भारत का जल संकट एक गंभीर मुद्दा है जिसके पीछे कई कारण है । तेजी से शहरीकरण,
औद्योगीकरण और अस्थिर कृषि पद्धतियाँ के कारण
पानी की माँग बहुत तेजी से बढ़ रही है।
जलवायु परिवर्तन ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है, जिससे वर्षा पैटर्न अनियमित हो गया है और जल स्रोत प्रभावित
हो रहे हैं। अकुशल जल प्रबंधन, अपर्याप्त
बुनियादी ढाँचा और प्रदूषण भी इसमें गंभीर भूमिका निभा रहे हैं, जिससे भारत में पानी की कमी एक गंभीर चिंता का
विषय बनती जा रही है। देश के लगभग 90 प्रमुख शहरों में पानी की समस्या ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। इन शहरों में
दिल्ली ही नहीं पहाड़ों पर बसा शहर शिमला भी है।यह कोई नई पैदा हुई समस्या नहीं
है। आजादी के बाद से ही जल संरचनाओं पर अतिक्रमण हुआ है। बड़े लोगों ने पानी का
शोषण किया है। पिछले 75 सालों में हमने
जल संरचनाओं के महत्त्व को कभी भी नहीं समझा। बदलती जलवायु प्रवृत्तियों, बार-बार उभर रही प्राकृतिक आपदाओं और
महामारियों की अचानक तेज़ वृद्धि से यह स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है।
5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर भारत के संक्रमण में सतत आर्थिक विकास
को प्रोत्साहन देना सर्वोपरि है। इस प्रयास में जल एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होने की
भूमिका रखता है। विश्व की लगभग 17% आबादी का वहन
करने वाला भारत में विश्व के
ताज़े जल संसाधनों का मात्र 4% ही है, जो स्पष्ट रूप से इसके विवेकपूर्ण उपयोग और
कुशल जल जोखिम प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर करता है।
बहुत से तालाब ,झील और नदी होने के बावजूद, भारत रोजमर्रा के काम के लिए आज भी बहुत हद तक भूजल पर
निर्भर है। हरित क्रांति में भी पानी की ज़रूरत का एक बड़ा हिस्सा भूजल से पूरा
हुआ। 20 मिलियन से अधिक टूयबेल ,
जो अक्सर सब्सिडी वाली बिजली से संचालित होते
हैं, ने इस अमूल्य संसाधन को
ख़त्म करने में सबसे बड़ा योगदान दिया है। सभी क्षेत्रों में से, कृषि और खाद्य सुरक्षा पानी से सबसे अधिक गहराई
से जुड़े हुए हैं।
पिछले 75 वर्षों में, भारत की नीतियों ने भूजल के अत्य अधिक दोहन की
अनुमति सभी को दी है और जैसे-जैसे संकट बढ़ा है, इसे निरंतर उपेक्षा, कुप्रबंधन और समग्र उदासीनता का सामना करना पड़ा है।
अनुमान के अनुसार भारत में भूजल का उपयोग वैश्विक उपयोग का लगभग एक-चौथाई है
और कुल उपयोग चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के कुल उपयोग से अधिक है। किसानों को
भूजल पंपिंग में मदद के लिए बिजली सब्सिडी प्रदान करने से, देश के कुछ हिस्सों में जल स्तर में 4 मीटर तक की गिरावट देखी गई है। पिछले दो दशकों में भूजल
स्रोतों की निर्बाध निकासी में तेजी आई है।
विभिन्न राज्यों में उगाई जाने वाली फसलों पर बारीकी से नजर डालने से पता चलता
है कि कम-इष्टतम रोपण पैटर्न पानी के तनाव को बढ़ा रहे हैं। गन्ना और धान जैसी
पानी की खपत करने वाली फसलें महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में उगाई जाती हैं।
पानी की अत्यधिक आवश्यकता के बावजूद, महाराष्ट्र देश में कुल गन्ना उत्पादन का 22 प्रतिशत पैदा करता है, जबकि बिहार केवल 4 प्रतिशत पैदा करता है। इसी प्रकार, पंजाब में धान के खेतों की सिंचाई के लिए उपयोग किया जाने वाला 80 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों से लिया जाता है।
इसके अलावा, कृषि वस्तुओं में हमारा
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जल-गहन फसलों का निर्यात करके बड़ी मात्रा में आभासी जल
हानि में योगदान देता है। देश में पानी की कमी औद्योगिक संचालन और शहरीकरण में भी
बाधा डाल सकती है, जिससे भारत की
आर्थिक शक्ति बनने की आकांक्षाएं बाधित हो सकती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक भारत में जल संकट बहुत बढ़ जाएगा। आशंका
जताई गई है कि अत्यधिक भूजल दोहन, अत्यल्प
जलसंरक्षण और ग्लेशियर पिघलने के कारण गंगा, ब्रह्मपुत्र व सिंधु जैसी हिमालयी नदियों का प्रवाह कम हो
जाएगा।
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र,
बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और
तमिलनाडु ड्राई जोन की श्रेणी में आते हैं। ड्राफ्ट अर्ली वॉर्निंग सिस्टम
(डीईडब्ल्यूएस) के अनुसार देश का 41.82 फीसदी हिस्सा सूखाग्रस्त है। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले
दो दशकों से वर्षा में गिरावट दर्ज की जा रही है, इसलिए खेती-किसानी के लिए भूमिगत जल का इस्तेमाल करना पड़ता
है। इससे भू-जल दोहन लगातार बढ़ रहा है। जितना भी बारिश का पानी जमीन में अंदर
जाता है उसका करीब 80 फीसदी सिंचाई और
पीने के लिए निकाल लिया जाता है। वर्ष 2021-22 में आई कैग रिपोर्ट के अनुसार पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और काफी
हद तक उत्तर प्रदेश में 100 फीसदी भूमिगत जल
का दोहन हो रहा है।
पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश
सहित कुल 13 राज्यों में पानी का
भारी संकट पैदा होने की आशंका है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एक रिपोर्ट
के मुताबिक देश के करीब 25 शहर 2030 तक ‘डे जीरो’की कगार पर होंगे। डे-जीरो का
मतलब पानी की आपूर्ति के लिए पूरी तरह अन्य साधनों पर आश्रित होना है। ऐसे शहरों
में कानपुर, गुरुग्राम, फरीदाबाद, दिल्ली, मेरठ, जयपुर, बंगलूरू, कोयंबटूर, कोच्ची, मदुरै, चेन्नई, सोलापुर, हैदराबाद, विजयवाड़ा,
मुंबई, जमशेदपुर धनबाद, अमरावती, विशाखापत्तनम, आसनसोल और आगरा जैसे शहर शामिल हैं।
समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) रिपोर्ट के अनुसार देश के 21 प्रमुख शहरों में लगभग 10 करोड़ लोग जल संकट की भीषण समस्या से जूझ रहे
हैं। वर्ष 1994 में पानी की
उपलब्धता प्रति व्यक्ति 6 हजार घन मीटर थी
जो 2025 तक घटकर 1600 घन मीटर रह जाने का अनुमान है, इसके बावजूद बढ़ती आबादी जल संकट को और गहरा
करेगी। हालांकि नीति आयोग ने समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) का दूसरा
संस्करण तैयार किया है, जिसमें उत्तर
भारत के कुछ राज्यों में जल प्रबंधन में सुधार दिख रहा है। इसके बावजूद रिपोर्ट
कहती है कि बीते 50 सालों में देश
में जिस तरह से पानी की मांग बढ़ी है उसके सापेक्ष जल प्रबंधन की प्रकिया में तेजी
नहीं देखी गई। इसी से आपूर्ति और मांग में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्षा जल का मात्र 15 फीसदी प्रयोग होता है, शेष जल बरसाती नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में चला जाता
है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी से भी कम भारतीयों को स्वच्छ पेय जल मिल पाता है, क्योंकि यहां के भूमिगत जल में फ्लोराइड की
मात्रा काफी ज्यादा है। सरकार के एक सर्वे में देश के 25 राज्यों के 209 विकासखंडों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई है। यह ह्रदय और
फेफड़ो के रोगों को बढ़ावा देता है।
आज भारत के लगभग 100 शहर भयानक जल
संकट की चपेट में हैं। भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से भयावह होगी।
यह अभी जनसामान्य को नहीं दिखाई दे रही है। इसमें दो-तीन साल और लग जाएंगे। इसे इस
तरह से समझना होगा कि भारत में 80% पानी भू-जल से
आता है। देश का 62% भूजल पहले ही
अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है। पानी का हमारा उपभोग करने
का तरीका गलत है। चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ हों,
बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन। सभी
दोषपूर्ण हैं। शौचालय में एक बटन से 15 लीटर पानी खर्च होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पानी इस्तेमाल करना या उसका
संरक्षण नहीं जानते थे। भारतीय विद्या में इसका प्रमुखता से वर्णन था लेकिन विकास
की परिभाषा में इसे भुला दिया गया। आधुनिक शिक्षा की जो व्यवस्था है, उसमें पानी, पेड़ और पर्यावरण सबको टुकड़ों में बांटकर देखा जाता है।
प्राचीन भारतीय दर्शन में इन सबको एक साथ ही संरक्षित करने की व्याख्या है।
आज घर-घर जल पहुंचाने वाली योजना की बड़ी चर्चा है। इससे घरों में पानी
पहुंचेगा या नहीं लेकिन इससे प्लास्टिक के पाइप का उद्योग खूब फलफूल रहा है। इस
योजना के तहत बस्तियों में प्लास्टिक के पाइपों का जाल बिछा दिया गया है, बड़ी-बड़ी टंकियां बना दी गई हैं, लेकिन इसमें जल संरक्षण की कोई सोच नहीं है।
भारत जहां पहले की पीढ़ियों को जल संरक्षण की गहरी समझ हुआ करती थी आज वहां 99% जल शोषण हो रहा है। यह जो दूसरे शहर से पानी
लाकर जल संकट का समाधान खोजने वाला विचार है, यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है।
नदियों पर छोटे कस्बों का भी उतना ही अधिकार है, जितना बड़े शहरों का। जल संरक्षण को प्राथमिक शिक्षा से ही
पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की जरूरत है। बदलाव इसी से आएगा। जल संकट का समाधान
कहीं बाहर से लाया जाने वाला फार्मूला या तकनीकी नहीं है। यह हमें दूसरे बड़े
देशों से अच्छा पता है। हमारे यहां आम ग्रामीण
इससे परिचित हैं। तालाब और पानी को बचाने वाले अन्य उपाय भी हमारे यहां
जनसामान्य जानता है। हमें बस इसकी हर गांव, पंचायत, कस्बे, तहसील और जिले में मुहिम चलानी है। पानी तो
सबको ही चाहिए। सभी कहते हैं कि पानी ही जीवन है। इसे सिर्फ कहने से काम नहीं
चलेगा, जीवन को वचाने के लिए
गंभीर प्रयास भी करने होंगे। वैसे ही उपाय जैसे बीमार व्यक्ति को बचाने के लिए किए
जाते हैं। हमारे पानी की पूरी व्यवस्था बीमार है। यह साधारण बीमारी न होकर गंभीर
बीमारी है। व्यवस्थागत बीमारी दूर करने के उपाय जितने जल्दी किए जाएं, उतना अच्छा है।