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Monday, October 16, 2017

मौत में भी आरक्षण ।

देश में आरक्षण पर बड़ी बहस छिड़ी हुई है
। आरक्षण जारी रखने और आरक्षण खत्म करने को लेकर हर वर्ग का अपना अलग-अलग तर्क दे रहा है। इस बीच होशंगाबाद जिले के मुक्तिधाम आश्रम से आरक्षण को लेकर बड़ी खबर है कि यहां भी अंतिम संस्कार के लिए जो लकड़ी मुहैया कराई जाती है, उसमें भी आरक्षण दिया जाता है।

Friday, October 13, 2017

काश आप भुखमरी को भी चुनावी मुद्दा बना पाते .....

मोदी जी कृप्या एक नज़र इधर भी ......... 
 
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक ख़बर के अनुसार, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति, उत्तर कोरिया, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश से भी ख़राब है.
दुनियाभर के विकासशील देशों में भुखमरी की समस्या पर इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की ओर से हर साल जारी की जाने वाली रिपोर्ट में 119 देशों में भारत 100वें पायदान पर है.
एशिया में वो सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से आगे है. पिछले साल वो 97वें पायदान पर था. रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल कुपोषण ने इस स्थिति को और बढ़ाया है.
हंगर इंडेक्स अलग-अलग देशों में लोगों को खाने की चीज़ें कैसी और कितनी मिलती हैं यह उसे दिखाने का साधन है.
'ग्लोबल हंगर इंडेक्स' का सूचकांक हर साल ताज़ा आंकड़ों के साथ जारी किया जाता है. इस सूचकांक के ज़रिए विश्व भर में भूख के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान की उपलब्धियों और नाकामियों को दर्शाया जाता है.

Saturday, February 5, 2011

जो सवाल पत्रकारीय कौशल में दफन हो गये


पुण्‍य प्रसून वाजपेयी

रेलगाड़ी पर हजारों की तादाद में चीटिंयो और चूहों की तरह अंदर बाहर समाये बेरोजगार नवयुवकों को देखकर आंखों के सामने पहले ढाका में मजदूरों से लदी ट्रेन रेंगने लगी जो हर बरस ईद के मौके पर नजर आती है। वहीं जब बेरोजगार युवकों से पटी ट्रेन पटरी पर रेंगने लगी और कुछ देर बाद ही 19 की मौत की खबर आयी तो 1947 में विभाजन की त्रासदी के दौर में खून से पटी रेलगाडियों की कहानी और द्दश्य ही जेहन में चलने लगा। कई राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के स्‍क्रीन पर भी यही दृश्य चलते हुये भी दिखायी दिये... और यूपी में देशभर के लाखों बेरोजगारों की बेबाकी सी चलती भी स्क्रीन पर रेंगती तस्वीरो के साथ ही दफन हो गयी।

यानी कोई सवाल पत्रकारीय माध्यमों में कहीं नहीं उठा कि सवा चार सौ धोबी-नाई-कर्मचारी की नियुक्ति के लिये बरेली पहुंचे सवाल चार लाख बेरोजगारों की जिन्दगी ऐसे मुहाने पर क्यों आकर खड़ी हुई है जहां ढाई से साढ़े तीन हजार की आईटीबीपी को नौकरी भी मंजूर है। ना अखबार ना ही न्यूज चैनलों ने बहस की कि जो बेरोजगार मारे गये वह सभी किसान परिवार से ही क्यों थे। किसी ने गांव को शहर बनाने की मनमोहनइक्नामिक्स की जिद पर सवाल खड़े कर यह नहीं पूछा कि सवा चार लाख बेरोजगारों में साढे़ तीन लाख से ज्यादा बेरोजगार किसान परिवार के ही क्यों थे। यह सवाल भी नहीं उठा कि कैसे विकास के नाम पर किसानी खत्म कर हर बरस किसान परिवार से इस तरह आठवीं पास बेरोजगारों में सत्तर लाख नवयुवक अगली रेलगाड़ी पर सवार होने के लिये तैयार हो रहे हैं।

बरेली में बेरोजगारों के इतने बडे़ समूह को देखकर पत्रकारीय समझ ने बिंबों के आसरे मिस्र के तहरीर चौक का अक्स तो दिखाया, मगर यह सवाल कहीं खड़ा नहीं हो पाया कि बाजार अर्थव्यवस्था से बड़ा तानाशाह हुस्नी मुबारक भी नहीं है। और बीते एक दशक में देश की 9 फीसदी खेती की जमीन विकास ने हड़पी है, जिसकी एवज में देश के साढ़े तीन करोड़ किसान परिवार के किसी बच्चे का पेट अब पीढि़यों से पेट भरती जमीन नहीं भरेगी, बल्कि इसी तरह रेलगाडि़यों की छतों पर सवार होकर नौकरी की तालाश में उसे शहर की ओर निकलना होगा। जहां उसकी मौत हो जाये तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। अगर यह सारे सवाल पत्रकारीय माध्यमों में नहीं उठे तो यह कहने में क्या हर्ज है कि अब पत्रकारीय समझ बदल चुकी है। उसकी जरूरत और उसका समाज भी बदल चुका है। लेकिन पत्रकारीय पाठ तो यही कहता है कि पत्रकारिता तात्कालिकता और समसामयिकता को साधने की कला है। तो क्या अब तात्कालिकता का मतलब महज वह दृश्य है जो परिणाम के तौर पर इतना असरकारक हो कि वह उसके अंदर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को भी अनदेखा कर दे।

अगर खबरों के मिजाज को इस दौर में देखे तो किसी भी खबर में आत्मा नहीं होती। यानी पढ़ने वाला अपने को खबर से जोड़ ले इसका कोई सरोकार नहीं होता। और हर खबर एक निर्णायक परिणाम खोजती है। चाहे वह बेरोजगारों की जिन्दगी के अनछुये पहलुओं का सच तस्वीर के साये में खोना हो या फिर ए राजा से लेकर सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, पीजे थॉमस सरीखे दर्जनों नेताओं-अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर सजा के निर्णय के ओर सत्ता को ढकेलना, ब्रेकिंग न्यूज और सजा का इंतजार, राजनीति संघर्ष यानी निर्णय जैसे ही हुआ कहानी खत्म हुई। कॉमनवेल्थ को सफल बनाने से जुड़े डेढ़ हजार से ज्यादा कर्मचारियों का कलमाड़ी की वजह से वेतन रुक गया यह खबर नहीं है। आदर्श सोसायटी बनाने में लगे तीन सौ 85 मजदूरों को पगार उनके ठेकेदार ने रोक दी, यह खबर नहीं है। असल में इस तरह हर चेहरे के पीछे समाज के ताने-बाने की जरुरत वाली जानकारी अगर खबर नहीं है तो फिर समझना यह भी होगा कि पत्रकारीय समझ चाहे अपने अपने माध्यमों में चेहरे गढ़ कर टीआरपी तो बटोर लेगी लेकिन पढ़ने वालों को साथ लेकर ना चल सकेगी। ना ही किसी भी मुद्दे पर सरकार का विरोध जनता कर पायेगी। और आज जैसे तमाम राजनेता एक सरीखे लगते हैं जिससे बदलाव या विकल्प की बयार संसद के हंगामे में गुम हो जाती है। ठीक इसी तरह अखबार या न्यूज चैनल या फिर संपादक या रिपोर्टर को लेकर भी सिर्फ यही सवाल खड़ा होगा। यानी अब वह वक्त इतिहास हो चुका है जब सवाल खड़ा हो कि साहित्य को पत्रकारिता में कितनी जगह दी जाये या दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं। या फिर पत्रकारिता या साहित्य की भाषा आवाम की हो या सत्ता की। जिससे मुद्दों की समझ सत्ता में विकसित हो या जनता सत्ता को समझ सके।

दरअसल यह मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी, तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। लेकिन अब पत्रकारिता धन और रोजी पर टिकी है क्योंकि वैकल्पिक समाज को बहुत तेजी से उस सत्ता ने खत्म किया, जिसे अपने विस्तार में ऐसे माध्यम रुकावट लगते हैं जो एकजुटता का बोध लिये जिन्दगी जीने पर भरोसा करते हैं। यह सत्ता सियासत भी है और कारपोरेट भी। यह शहरी मानसिकता भी है और एकाकी परिवार में एक अदद नौकरी की धुरी पर जीने का नजरिया भी। यह संसद में बैठे जनता की नुमाइन्दगी के नाम पर सत्ता में दोबारा पहुंचने के लिये नीतियों को जामा पहनाने वाले सांसद भी हैं और किसी अखबार या न्यूज चैनलों के कैबिन में दरवाजा बंद कर अपनी कोठरी से अपने संपादक होने के आतंक पर ठप्पा लगाने में माहिर पत्रकार भी। यह सवाल कोई दूर की गोटी नहीं है कि आखिर क्यों देश में कोई लीडर नहीं है, जिसके पीछे आवाम खड़ी हो या कोई ऐसा संपादक नहीं जिसके पीछे पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी हो। दरअसल इस दौर में जिस तरह सवा चार लाख बेरोजगार एक बडी तादाद होकर भी अपने आप में अकेले हैं। ठीक इसी तरह देश में किसी ट्रेन दुर्घटना में मरते सौ लोग भी अकेले हैं और देश में रोजगार दफ्तर में रजिस्‍टर्ड पौने तीन करोड़ बेरोजगार भी अकेले ही हैं। कहा यह भी जा सकता है कि पत्रकारीय समाज के बडे़ विस्तार के बावजूद संपादक भी निरा अकेला ही है। और साहित्यकर्म में लगा सहित्यकार भी अकेला है।

इसलिये पत्रकारिता से अगर सरोकार खत्म हुआ हो तो साहित्य से सामूहिकता का बोध लिये रचनाकर्म। इसलिये पहली बार मुद्दों की टीले पर बैठे देश का हर मुद्दा भी अपने आप में अकेला है। और उसके खिलाफ हर आक्रोश भी अकेला है। जो मिस्र, जार्डन, यूनान, ट्यूनेशिया को देखकर कुछ महसूस तो कर रहा है लेकिन खौफजदा है कि वह अकेला है। और पत्रकारीय समझ बिंबों के आसरे खुद को आईना दिखाने से आगे बढ़ नहीं पा रही है।

लेखक पुण्‍य प्रसून वाजपेयी वरिष्‍ठ पत्रकार तथा जी न्‍यूज के संपादक हैं. उनका यह लेख दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है

Wednesday, December 8, 2010

हम पत्रकारों को पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार दल्ला है


राडिया के टेप से निकलते शुभ संकेत : नया-नया पत्रकार बना था। दोस्त की शादी में गया था। दोस्त ने अपने एक ब्यूरोक्रेट रिश्तेदार से मिलवाया। अच्छा आप पत्रकार हैं? पत्रकार तो पचास रुपये में बिक जाते हैं। काटो तो खून नहीं। क्या कहता? पिछले दिनों जब राडिया का टेप सामने आया तो उन बुजुर्ग की याद हो आई। बुजुर्गवार एक छोटे शहर के बड़े अफसर थे। उनका रोजाना पत्रकारों से सामना होता था। अपने अनुभव से उन्होंने बोला था। जिला स्तर पर छोटे-छोटे अखबार निकालने वाले ढेरों ऐसे पत्रकार हैं जो वाकई में उगाही में लगे रहते हैं। ये कहने का मेरा मतलब बिलकुल नहीं है कि जिलों में ईमानदार पत्रकार नहीं होते। ढेरों हैं जो बहुत मुश्किल परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं। इनकी संख्या शायद उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिये। ऐसे में राडिया टेप आने पर कम से कम मैं बिलकुल नहीं चौंका।

हालांकि इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे?

हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी मे इसे 'दल्लागिरी' कहते हैं और ऐसा करने वालों को 'दल्ला'। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार 'दल्ला' है और कौन 'दल्लागिरी' कर रहा है। इसी दिल्ली में क्या हम नहीं जानते कि जो लोग पैदल टहला करते थे कैसे रातोंरात उनकी कोठियां हो गईं और बड़ी बड़ी गाडियों में घूमने लगे? टीवी की बदौलत पत्रकारिता में पैसा तो पिछले दस सालों से आया है। उसके पहले पत्रकार बेचारे की हैसियत ही क्या थी? झोलाछाप, टूटी चप्पल में घूमने वाला एक जंतु जो ऑफिस से घर जाने के लिये डीटीसी बस का इंतजार करता था। उस जमाने में भी कुछ लोग ऐसे थे जो चमचमाती गाड़ियों में सैर करते थे और हफ्ते में कई दिन हवाई जहाज का मजा लूटते थे। इनमें से कुछ तो खालिस रिपोर्टर थे और कुछ एडीटर। इनकी भी उतनी ही तनख्वाह हुआ करती थी जितनी की ड़ीटीसी की सवारी करने वाले की।

इनमे से कई ऐसे भी थे जिनकी सैलरी बस नौकरी का बहाना था। जब पत्रकारिता में आया तब दिल्ली में एक खास बिजनेस घराने के नुमाइंदे से मिलना राजधानी के सोशल सर्किट में स्टेटस सिम्बल हुआ करता था। और जिनकी पहुंच इन 'महाशय' तक नहीं होती थी वो अपने को हीन महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं था कि पाप सिर्फ बिजनेस घराने तक ही सिमटा हुआ था। राजनीति में भी पत्रकारों की एक जमात दो खांचों मे बंटी हुई थी। कुछ वो थे जो कांग्रेस से जुड़े थे और कुछ वो जो बीजेपी के करीबी थे। और दोनों ही जमकर सत्ता की मलाई काटा करते थे। जो लोग सीधे मंत्रियों तक नहीं पंहुच पाते थे उनके लिये ये पत्रकार पुल का काम किया करते थे। ट्रासफर पोस्टिंग के बहाने इनका भी काम चल जाया करता था। और जेब भी गरम हो जाती थी। सत्ता के इस जाल में ज्यादा पेच नहीं थे। बस पत्रकार को ये तय करना होता था कि वो सत्ता के इस खेल में किस हद तक मोहरा बनना चाहता था।

क्षेत्रीय पत्रकारिता में सत्ता का ये खेल और भी गहरा था। मुझे याद है भोपाल के कुछ पत्रकार जिन्हें इस बात का अफसोस था कि वो अर्जुन सिंह के जमाने में क्यों नहीं रिपोर्टर बने। लखनऊ में भी ढेरों ऐसे पत्रकार थे जो कई जमीन के टुकड़ों के मालिक थे। किसी को मुलायम ने उपकृत किया तो किसी को वीर बहादुर सिंह ने। और जब लखनऊ विकास प्राधिकरण के मामले में मुलायम पर छींटे पड़े तो पत्रकारों की पूरी लिस्ट बाहर आ गई। इसमें कुछ नाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। हालात आज भी नहीं बदले हैं। आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी में किसी रिपोर्टर या एडीटर के लिये राज्य सरकार के खिलाफ लिखने के लिये बड़ा जिगरा चाहिये। अब इस श्रेणी में नीतीश के बिहार का पटना भी शामिल हो गया है। फर्क सिर्फ इतना आया है अब मलाई सिर्फ रिपोर्टर और एडीटर ही नहीं काट रहे हैं। अखबार के मालिक भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं। अखबार मालिकों को लगने लगा है कि वो क्यों रिपोर्टर या एडीटर पर निर्भर रहें। अखबार उनका है तो सत्ता के खेल में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिये। तब नया रास्ता खुला। और फिर धीरे धीरे पेड न्यूज भी आ गया।

कुछ लोग ये कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण ने इस परंपरा को और पुख्ता किया है या यो कहें कि बाजार के दबाव और प्रॉफिट के लालच ने मीडिया मालिकों को सत्ता के और करीब ला दिया है। दोनों के बीच एक अघोषित समझौता है। और अब कोई भी गोयनका किसी भी बिजनेस हाउस और सत्ता संस्थान से दो-दो हाथ कर घर फूंक तमाशा देखने को तैयार नहीं है। क्योंकि ये घाटे का सौदा है। और इससे खबरों के बिजनेस को नुकसान होता है। क्योंकि खबरें अब समाज से सरोकार से नहीं तय होतीं बल्कि अखबार का सर्कुलेशन और न्यूज चैनल की टीआरपी ये तय करती है कि खबर क्या है? ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है।

ऐसे में सवाल ये है कि वो क्या करे जो ईमानदार है और जो सत्ता के किसी भी खेल में अपनी भूमिका नहीं देखते, जो खालिस खबर करना चाहते हैं? तो क्या ये मान लें कि ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं की जा सकती? मैं निराश नही हूं। एक, पिछले दिनों जिस तरह से मीडिया ने एक के बाद एक घोटालों को खुलासा किया है वो हिम्मत देता है। और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पत्रकारों की पोल खोलने वाले राडिया के टेप का खुलासा भी तो पत्रकारों ने ही किया है? दो, इसमे संदेह नहीं है कि बाजार ने पत्रकारिता को बदला है लेकिन बाजार का एक सच ये भी है कि प्रतिस्पर्धा और प्रोडक्ट की गुणवत्ता बाजार के नियम को तय करते हैं। और लोकतंत्र बाजारवादी आबादी को इतना समझदार तो बना ही देता है कि वो क्वॉलिटी को आसानी से पहचान सके। बाजार का यही चरित्र आखिरकार मीडिया की गंदी मछलियों को पानी से बाहर करने मे मदद करेगा। और जीतेगी अंत में ईमानदार पत्रकारिता ही, सत्ता की दलाली नहीं।

लेखक आशुतोष आईबीएन7 के मैनेजिंग एडिटर हैं. आईबीएन7 से जुड़ने से पहले आशुतोष खबरिया चैनल आजतक की टीम का हिस्सा थे. वह प्राइमटाइम के कुछ खास ऐंकर्स में से एक थे. ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है. वह भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग ब्रेक के बाद से साभार लिया गया है.

Thursday, November 18, 2010

हसरत

पंकज रामेन्दू

जिंदगी को बस इसलिए दोबारा रखना चाहूंगा
मैं फिर तुझे उतनी ही शिद्दत से तकना चाहूंगा ।

प्यार तेरा पा सकूं मेरी यही कोशिश नहीं,
बन के खुशब तेरी सांसो में बसना चाहूंगा।

तेरी सूरत मेरी आंखो में हो बस यही हसरत नहीं
मैं ख्वाब ओ ख्यालों में तुझको भी दिखना चाहूंगा ।

जिसकी संगत से हुस्न निखरे औऱ बढ़े रंगत
बन के वो श्रंगार तेरे अंग अंग पे सजना चाहूंगा

हो सकता है लगे तुझे ये बाते बहुत बड़ी बड़ी
इंच भर मुस्कान की खातिर, में बिकना चाहूंगा ।

Saturday, October 9, 2010

बिहार चुनाव की खामोशी


पुण्य प्रसून बाजपेयी

जहां राजनीति का ककहरा अक्षर ज्ञान से पहले बच्चे सीख लेते हों, वहां चुनाव का मतलब सिर्फ लोकतंत्र को ढोना भर नहीं होता। उसका अर्थ सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत का एहसास करना भी होता है। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है तो मतलब साफ है राजनीति की हैसियत अब चुनाव से खिसक कर कहीं और जा रही है। चुनाव के ऐलान के बाद से बिहार में जिस तरह की खामोशी चुनाव को लेकर है, उसने पहली बार वाकई यह संकेत दिये हैं कि राजनीतिक तौर पर सत्ता की महत्ता का पुराना मिजाज बदल रहा है। लालू यादव के दौर तक चुनाव का मतलब सत्ता की दबंगई का नशा था। यानी जो चुनाव की प्रक्रिया से जुड़ा उसकी हैसियत कहीं न कहीं सत्ताधारी सरीखी हो गयी। और सत्ता का मतलब चुनाव जीतना भर नहीं था, बल्कि कहीं भी किसी भी पक्ष में खड़े होकर अपनी दबंगई का एहसास कराना भी होता है।

लालू 15 बरस तक बिहार में इसीलिये राज करते रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता के इस एहसास को दिमागी दबंगई से जोड़ा। लालू जब सत्ता में आये तो 1989-90 में सबसे पहले यही किस्से निकले की कैसे उंची जाति के चीफ सेक्रेट्ररी से अपनी चप्पल उठवा दी। या फिर उंची जाति के डीजीपी को पिछड़ी जाति के थानेदार के सामने ही माफी मंगवा दी। यानी राजनीतिक तौर पर लालू यादव ने नेताओ को नहीं बल्कि जातियों की मानसिकता में ही दबंगई के जरीये समूचे समाज के भीतर सत्ता की राजनीति के उस मिजाज को जगाया, जिसमें चुनाव में जीत का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं बल्कि अपने अपने समाज में अपनो को सत्ता की चाबी सौंपना भी था। सत्ता की कई चाबी का मतलब है लोकतंत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत। यानी पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था बनाये रखने वाले किसी भी संस्थान की हैसियत चाहे मायने रखे लेकिन चुनौती देने और अपने पक्ष में हर निर्णय को कराने की क्षमता दबंगई वाले सत्ताधारी की ही है।

चूंकि जातीय समीकरण के आसरे चुनाव जीतने की मंशा चाहे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार में हो, लेकिन लालू के दौर में जातीय समीकरण का मतलब हारी हुई जातियों के भीतर भी दबंगई करता एक नेता हमेशा रहता था। फिर यह सत्ता आर्थिक तौर पर अपने घेरे में यानी अपने समाज में रोजगार पैदा करने का मंत्र भी होता है। इसलिये चुनाव का मतलब बिहार में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित करने वाला भी है। लेकिन नीतीश कुमार के दौर में यह परिस्थितियां न सिर्फ बदली बल्कि नीतीश की राजनीति और इस दौर की आर्थिक परिस्थितियो ने दबंगई सत्ता के तौर तरीको को ही बदल दिया। 1990 से 1995 तक सत्ता की जो दबंगई कानून व्यवस्था को खारिज कर रही थी, बीते पांच बरस में नीतीश ने समाज के भीतर जातियों के उस दबंग मिजाज को ही झटका दिया और राजनीतिक बाहुबली इसी दौर में कानून के शिकंजे में आये।

सवाल यह नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में करीब 45 हजार अपराधियों को पकड़ा गया या कहें कानून के तहत कार्रवाई की गई। असल में अपराधियो पर कार्रवाई के दौरान वह राजनीति भी खारिज हुई जिसमें सत्ता की खुमारी सत्ताधारी जातीय दबंगई को हमेशा बचा लेती थी। यानी पहली बार मानसिक तौर पर जातीय सत्ता के पीछे आपराधिक समझ कत्म हुई। यह कहना ठीक नहीं होगा कि बिहार में जातीय समिकरण की राजनीति ही खत्म हो गई। हकीकत तो यह है कि राजद या जेडीयू में जिस तरह टिकटों की मांग को लेकर हंगामा हो रहा है, वह जातीय समीकरण के दुबारा खड़े होने को ही जतला रहा है। यानी अपराध पर नकेल कसने या बाहुबलियों को सलाखों के पीछे अगर बीते पांच साल में नीतीश सरकार ने भेजा है तो भी जातीय समीकरण को वह भी नहीं तोड़ पाये हैं। वहीं नीतीश के दौर में एक बडा परिवर्तन बाजार अर्थव्यवस्था के फैलने का भी है। सिर्फ सड़कें बनना ही नहीं बल्कि उनपर दौडती गाड़ियों की खरीद फरोख्त में बीत पांच साल में करीब तीन सौ फिसदी की वृद्धि लालू यादव के 15 साल के शासन की तुलना में बढ़ी। और रियल इस्टेट में भी बिहार के शहरी लोगों ने जितनी पूंजी चार साल में लगायी, उतनी पूंजी 1990 से 2005 के दौरान भी नहीं लगी।

यह परिवर्तन सिर्फ बिहारियो के अंटी में छुपे पैसे के बाहर आने भर का नहीं है बल्कि पुरानी मानसिकता तोड़ कर उपभोक्ता मानसिकता में ढलने का भी है। इस मानसिकता में बदलाव की वजह ग्रामीण क्षेत्रों या कहें खेती पर टिकी अर्थव्यवस्था को लेकर नीतीश सरकार की उदासी भी है। नीतीश कुमार ने चाहे मनमोहन इक्नामिक्स को बिहार में अभी तक नहीं अपनाया है, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में जिस तरह बाजार और पूंजी को महत्ता दी जा रही है, नीतीश कुमार उससे बचे भी नहीं है। इसका असर भी यही हुआ है कि खेती अर्थव्यस्था को लेकर अभी भी बिहार में कोई सुधार कार्यक्रम शुरु नहीं हो पाया है। जमीन उपजाऊ है और बाजार तक पहुंचने वाले रास्ते ठीक हो चले हैं, इसके अलावे कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बनाया गया। बल्कि नीतीश कुमार की विश्वास यात्रा पर गौर करें तो 31 जिलों में 12416 योजनाओं का उद्घाटन नीतिश कुमार ने किया। सभी योजनाओ की राशि को अगर मिला दिया जाये तो वह 35 अरब 51 करोड 95 लाख के करीब बैठती है। इसमें सीधे कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली योजनायें 18 फीसदी ही हैं। जबकि नीतीश कुमार ने 25 दिसंबर 2009 से 25 जून 2010 के दौरान जो भी प्रवास यात्रा की उसमें ज्यादातर जगहों पर उनके टेंट गांवों में ही लगे। यानी जो ग्रामीण समाज सत्ता की दबंगई लालू यादव के दौर में देखकर खुद उस मिजाज में शरिक होने के लिये चुनाव को अपना हथियार मानता और बनाता था...वही मिजाज नीतीश के दौर में दोधारी तलवार हो गया। यानी चुनाव के जरीये सत्ता की महत्ता विकास की ऐसी महीन लकीर को खींचना है, जिसमें खेती या ग्रामीण जीवन कितना मायने रखेगा यह दूर की गोटी हो गई। यानी देश में मनमोहन इक्नामिक्स में बजट तैयार करते वक्त अब वित्त मंत्री को कृषि से जुड़े समाज की जरुरत नहीं पड़ती और बिहार में नीतिश की इक्नामिक्स लालू के दौर की जर्जरता की नब्ज पकड कर विकास को शहरी-ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनाकर राजनीति भी साधती है और मनमोहन के विकास की त्रासदी में बिहार का सम्मान भी चाहती है।

यानी चुनाव को लेकर बिहार में बदले बदले से माहौल का एक सच यह भी है कि राजनीति अब रोजगार नहीं रही। रोजगार का मतलब सिर्फ रोजी-रोटी की व्यवस्था भर नहीं है बल्कि राजनीतिक कैडर बनाने की थ्योरी भी है और सत्ता को समानांतर तरीके से चुनौती देना भी है। दरअसल, नीतीश के सुशासन का एक सच यह भी है कि समूची सत्ता ही नीतीश कुमार ने अपने में सिमटा ली है और खुद नीतीश कुमार सत्ताधारी होकर भी दबगंई की लालू सोच से हटकर खुद को पेश कर रहे हैं, जिनके वक्त सत्ता का मतलब जाति या समाज पर धाक होती थी। बिहार में राजनीतिक विकास का चेहरा इस मायने में भी पारपंरिक राजनीति से हटकर है, क्योकि नीतीश कुमार की करोड़ों-अरबो की योजनाएं बिहारियों को सरकार की नीतियों के भरोसे ही जीवन दे रही हैं। जो कि पहले जातीय आधार पर जीवन देती थी। मसलन राज्यभर के शिक्षको के वेतन की व्यवस्था कराने का ऐलान हो या फिर दो लाख से ज्यादा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति या फिर 20 हजार से ज्यादा रिटायर सौनिकों को काम में लगाना। और इसी तरह कमोवेश हर क्षेत्र के लिये बजट की व्यवस्था कर सभी तबके को राहत देने की बात। लेकिन यह पूरी पहल मनरेगा सरीखी ही है। जिसमें लोगो को एकमुश्त वेतन तो मिल रहा है लेकिन इसका असर राज्य के विकास पर क्या पड़ रहा है, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है। क्योंकि सारे बजट लक्ष्यविहिन है। एक लिहाज से कहें तो वेतन या रोजगार के साधन खड़ा न कर पाने की एवज में यह धन का बंटवारा है। लेकिन इसका असर भी राजनीति की पारंपरिक धार को कम करता है और राजनीति को किसी कारपोरेट की तर्ज पर देखने से भी नहीं कतराता। कहा यह भी जा सकता है कि बिहार में भी पहली बार चुनाव के वक्त यह धारणा ही प्रबल हो रही है कि जिसके पास पूंजी है, वह सबसे बडी सत्ता का प्रतीक है। और सत्ता के जरीये पूंजी बनाना अब मुश्किल है।

कहा यह भी जा सकता है कि विकास के जिस ढांचे की बिहार में जरुरत है, उसमें मनमोहन सिंह का विकास फिट बैठता नहीं और नीतीश कुमार के पास उसका विकल्प नहीं है। और लालू यादव की पारंपरिक छवि नितीश के अक्स से भी छोटी पड़ रही है। इसका चुनावी असर परिवर्तन के तौर पर यही उभरा है कि जातियों के समीकरण में पांच बरस पहले जो अगड़ी जातियां नीतिश के साथ थीं, अब उनके लिये कोई खास दल मायने नहीं रख रहा। जो कांग्रेस पांच बरस पहले अछूत थी, अब उसे मान्यता मिलने लगी है। और विकास पहली बार एक मुद्दा रहा है। लेकिन यह तीनों परिवर्तन भी बिहार की राजनीतिक नब्ज से दूर हैं, जहां जमीन और खेती का सवाल अब भी सबसे बड़ा है। यानी भूमि सुधार से लेकर खेती को विकास के बाजार मॉडल के विकल्प के तौर पर जो नेता खड़ा करेगा, भविष्य का नेता वहीं होगा। नीतीश कुमार ने तीन साल पहले भू-अर्जन पुनस्थार्पन एंव पुनर्वास नीति के जरीये पहल करने की कोशिश जरुर की लेकिन महज कोशिश ही रही क्योकि बिहार की पारंपरिक राजनीति की आखिरी सांसें अभी भी चल रही हैं। शायद इसीलिये इसबार चुनाव में जेपी की राह से निकले नीतीश-लालू आमने-सामने खड़े हैं। जबकि बिहार की राह जेपी से आगे की है और संयोग से यह रास्ता कांग्रेस के युवराज भी समझ पा रहे हैं, इसलिये वह युवा राजनीति को उस बिहार में खोज रहे हैं, जहां राजनीति का ककहरा बचपन में ही पढ़ा जाता है।

Friday, October 1, 2010

संघर्षों का दौर

. मेरे संघर्षों का दौर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो

इस रात की भोर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो



तू ले ले और इम्तेहान जिन्दगी, में भी तैयार हूं

मेरी किस्मत में ज़ोर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो



जानता हूं इस तपिश भरी ज़मीन पर बूंदे गिरी हैं चंद

बरसना बादलों का घनघोर अभी बाकी है ज़रा ठहरो



यह दुनिया कभी कि गर्त में चली गई होती

यहाँ ईमान कुछ और अभी बाकी है ज़रा ठहरो



स्वाती तुम न घबराना वक्त के बदलावों से

तेरी आस वाला चकोर अभी बाकी है ज़रा ठहरो



इतनी जल्दी हार ना मानना "मानव"

कुछ पल ओर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो

पंकज रामेंदु मानव