Pages

Tuesday, April 30, 2024

भारत में जल संकट: पानी के प्रबंधन और उपयोग में बदलाव की ज़रूरत

 


भारत का जल संकट एक गंभीर मुद्दा है जिसके पीछे कई कारण है । तेजी से शहरीकरण, औद्योगीकरण और अस्थिर कृषि पद्धतियाँ के कारण पानी की माँग बहुत तेजी से बढ़ रही है।  जलवायु परिवर्तन ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है, जिससे वर्षा पैटर्न अनियमित हो गया है और जल स्रोत प्रभावित हो रहे हैं। अकुशल जल प्रबंधन, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा और प्रदूषण भी इसमें गंभीर भूमिका निभा रहे हैं, जिससे भारत में पानी की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनती जा रही है। देश के लगभग 90 प्रमुख शहरों में पानी की समस्या ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। इन शहरों में दिल्ली ही नहीं पहाड़ों पर बसा शहर शिमला भी है।यह कोई नई पैदा हुई समस्या नहीं है। आजादी के बाद से ही जल संरचनाओं पर अतिक्रमण हुआ है। बड़े लोगों ने पानी का शोषण किया है। पिछले 75 सालों में हमने जल संरचनाओं के महत्त्व को कभी भी नहीं समझा। बदलती जलवायु प्रवृत्तियों, बार-बार उभर रही प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों की अचानक तेज़ वृद्धि से यह स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है।

5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर भारत के संक्रमण में सतत आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देना सर्वोपरि है। इस प्रयास में जल एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होने की भूमिका रखता है। विश्व की लगभग 17% आबादी का वहन करने वाला भारत में विश्व के ताज़े जल संसाधनों का मात्र 4% ही है, जो स्पष्ट रूप से इसके विवेकपूर्ण उपयोग और कुशल जल जोखिम प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर करता है।

बहुत से तालाब ,झील और नदी  होने के बावजूद, भारत रोजमर्रा के काम के लिए आज भी बहुत हद तक भूजल पर निर्भर है। हरित क्रांति में भी पानी की ज़रूरत का एक बड़ा हिस्सा भूजल से पूरा हुआ। 20 मिलियन से अधिक टूयबेल , जो अक्सर सब्सिडी वाली बिजली से संचालित होते हैं, ने इस अमूल्य संसाधन को ख़त्म करने में सबसे बड़ा योगदान दिया है। सभी क्षेत्रों में से, कृषि और खाद्य सुरक्षा पानी से सबसे अधिक गहराई से जुड़े हुए हैं।

पिछले 75 वर्षों में, भारत की नीतियों ने भूजल के अत्य अधिक दोहन की अनुमति सभी को दी है और जैसे-जैसे संकट बढ़ा है, इसे निरंतर उपेक्षा, कुप्रबंधन और समग्र उदासीनता का सामना करना पड़ा है।

अनुमान के अनुसार भारत में भूजल का उपयोग वैश्विक उपयोग का लगभग एक-चौथाई है और कुल उपयोग चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के कुल उपयोग से अधिक है। किसानों को भूजल पंपिंग में मदद के लिए बिजली सब्सिडी प्रदान करने से, देश के कुछ हिस्सों में जल स्तर में 4 मीटर तक की गिरावट देखी गई है। पिछले दो दशकों में भूजल स्रोतों की निर्बाध निकासी में तेजी आई है।

 

विभिन्न राज्यों में उगाई जाने वाली फसलों पर बारीकी से नजर डालने से पता चलता है कि कम-इष्टतम रोपण पैटर्न पानी के तनाव को बढ़ा रहे हैं। गन्ना और धान जैसी पानी की खपत करने वाली फसलें महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में उगाई जाती हैं। पानी की अत्यधिक आवश्यकता के बावजूद, महाराष्ट्र देश में कुल गन्ना उत्पादन का 22 प्रतिशत पैदा करता है, जबकि बिहार केवल 4 प्रतिशत पैदा करता है। इसी प्रकार, पंजाब में धान के खेतों की सिंचाई के लिए उपयोग किया जाने वाला 80 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों से लिया जाता है। इसके अलावा, कृषि वस्तुओं में हमारा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जल-गहन फसलों का निर्यात करके बड़ी मात्रा में आभासी जल हानि में योगदान देता है। देश में पानी की कमी औद्योगिक संचालन और शहरीकरण में भी बाधा डाल सकती है, जिससे भारत की आर्थिक शक्ति बनने की आकांक्षाएं बाधित हो सकती हैं।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक भारत में जल संकट बहुत बढ़ जाएगा। आशंका जताई गई है कि अत्यधिक भूजल दोहन, अत्यल्प जलसंरक्षण और ग्लेशियर पिघलने के कारण गंगा, ब्रह्मपुत्र व सिंधु जैसी हिमालयी नदियों का प्रवाह कम हो जाएगा।

उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और तमिलनाडु ड्राई जोन की श्रेणी में आते हैं। ड्राफ्ट अर्ली वॉर्निंग सिस्टम (डीईडब्ल्यूएस) के अनुसार देश का 41.82 फीसदी हिस्सा सूखाग्रस्त है। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले दो दशकों से वर्षा में गिरावट दर्ज की जा रही है, इसलिए खेती-किसानी के लिए भूमिगत जल का इस्तेमाल करना पड़ता है। इससे भू-जल दोहन लगातार बढ़ रहा है। जितना भी बारिश का पानी जमीन में अंदर जाता है उसका करीब 80 फीसदी सिंचाई और पीने के लिए निकाल लिया जाता है। वर्ष 2021-22 में आई कैग रिपोर्ट के अनुसार पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और काफी हद तक उत्तर प्रदेश में 100 फीसदी भूमिगत जल का दोहन हो रहा है।

 

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश सहित कुल 13 राज्यों में पानी का भारी संकट पैदा होने की आशंका है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के करीब 25 शहर 2030 तक ‘डे जीरो’की कगार पर होंगे। डे-जीरो का मतलब पानी की आपूर्ति के लिए पूरी तरह अन्य साधनों पर आश्रित होना है। ऐसे शहरों में कानपुर, गुरुग्राम, फरीदाबाद, दिल्ली, मेरठ, जयपुर, बंगलूरू, कोयंबटूर, कोच्ची, मदुरै, चेन्नई, सोलापुर, हैदराबाद, विजयवाड़ा, मुंबई, जमशेदपुर धनबाद, अमरावती, विशाखापत्तनम, आसनसोल और आगरा जैसे शहर शामिल हैं।

 

समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) रिपोर्ट के अनुसार देश के 21 प्रमुख शहरों में लगभग 10 करोड़ लोग जल संकट की भीषण समस्या से जूझ रहे हैं। वर्ष 1994 में पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 6 हजार घन मीटर थी जो 2025 तक घटकर 1600 घन मीटर रह जाने का अनुमान है, इसके बावजूद बढ़ती आबादी जल संकट को और गहरा करेगी। हालांकि नीति आयोग ने समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) का दूसरा संस्करण तैयार किया है, जिसमें उत्तर भारत के कुछ राज्यों में जल प्रबंधन में सुधार दिख रहा है। इसके बावजूद रिपोर्ट कहती है कि बीते 50 सालों में देश में जिस तरह से पानी की मांग बढ़ी है उसके सापेक्ष जल प्रबंधन की प्रकिया में तेजी नहीं देखी गई। इसी से आपूर्ति और मांग में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है।

 

रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्षा जल का मात्र 15 फीसदी प्रयोग होता है, शेष जल बरसाती नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में चला जाता है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी से भी कम भारतीयों को स्वच्छ पेय जल मिल पाता है, क्योंकि यहां के भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा काफी ज्यादा है। सरकार के एक सर्वे में देश के 25 राज्यों के 209 विकासखंडों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई है। यह ह्रदय और फेफड़ो के रोगों को बढ़ावा देता है।

 

आज भारत के लगभग 100 शहर भयानक जल संकट की चपेट में हैं। भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से भयावह होगी। यह अभी जनसामान्य को नहीं दिखाई दे रही है। इसमें दो-तीन साल और लग जाएंगे। इसे इस तरह से समझना होगा कि भारत में 80% पानी भू-जल से आता है। देश का 62% भूजल पहले ही अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है। पानी का हमारा उपभोग करने का तरीका गलत है। चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ हों, बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन। सभी दोषपूर्ण हैं। शौचालय में एक बटन से 15 लीटर पानी खर्च होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पानी इस्तेमाल करना या उसका संरक्षण नहीं जानते थे। भारतीय विद्या में इसका प्रमुखता से वर्णन था लेकिन विकास की परिभाषा में इसे भुला दिया गया। आधुनिक शिक्षा की जो व्यवस्था है, उसमें पानी, पेड़ और पर्यावरण सबको टुकड़ों में बांटकर देखा जाता है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इन सबको एक साथ ही संरक्षित करने की व्याख्या है।

आज घर-घर जल पहुंचाने वाली योजना की बड़ी चर्चा है। इससे घरों में पानी पहुंचेगा या नहीं लेकिन इससे प्लास्टिक के पाइप का उद्योग खूब फलफूल रहा है। इस योजना के तहत बस्तियों में प्लास्टिक के पाइपों का जाल बिछा दिया गया है, बड़ी-बड़ी टंकियां बना दी गई हैं, लेकिन इसमें जल संरक्षण की कोई सोच नहीं है। भारत जहां पहले की पीढ़ियों को जल संरक्षण की गहरी समझ हुआ करती थी आज वहां 99% जल शोषण हो रहा है। यह जो दूसरे शहर से पानी लाकर जल संकट का समाधान खोजने वाला विचार है, यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है।

नदियों पर छोटे कस्बों का भी उतना ही अधिकार है, जितना बड़े शहरों का। जल संरक्षण को प्राथमिक शिक्षा से ही पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की जरूरत है। बदलाव इसी से आएगा। जल संकट का समाधान कहीं बाहर से लाया जाने वाला फार्मूला या तकनीकी नहीं है। यह हमें दूसरे बड़े देशों से अच्छा पता है। हमारे यहां आम ग्रामीण  इससे परिचित हैं। तालाब और पानी को बचाने वाले अन्य उपाय भी हमारे यहां जनसामान्य जानता है। हमें बस इसकी हर गांव, पंचायत, कस्बे, तहसील और जिले में मुहिम चलानी है। पानी तो सबको ही चाहिए। सभी कहते हैं कि पानी ही जीवन है। इसे सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा, जीवन को वचाने के लिए गंभीर प्रयास भी करने होंगे। वैसे ही उपाय जैसे बीमार व्यक्ति को बचाने के लिए किए जाते हैं। हमारे पानी की पूरी व्यवस्था बीमार है। यह साधारण बीमारी न होकर गंभीर बीमारी है। व्यवस्थागत बीमारी दूर करने के उपाय जितने जल्दी किए जाएं, उतना अच्छा है।

Thursday, April 25, 2024

पानी के अखाड़े में चुनाव


 दुनिया में यह दौर सांस्कृतिक चेतना के उभार का है। इतिहास को फिर से टटोलने और अपने पुरखों की काबिलियत पर अभिमान का भी है। अपने अतीत में हम झांकते हैं, तो हमें पानी की अद्भुत विरासत भी मिलती है, बेहतरीन वास्तु, कला और कौशल से बनाए जलाशय भी, जिनके देश के हर इलाके में अलग-अलग नाम हैं। कहीं बावड़ी, कहीं बाओली, तो कहीं बाव। पानी को सहेजने के सैकड़ों साल पुराने इतने अद्भुत और वैज्ञानिक तरीके हैं कि हम अपनी आधुनिक यांत्रिकी-अभियांत्रिकी का इस्तेमाल करके भी उनकी बराबरी नहीं कर पाते। बल्कि जब भी संकट से घिर जाते हैं, तो फिर पुरानी पद्धतियों की ओर देखते हैं, और उन्हें अपने मूल स्वरूप में लौटाने की योजनाएं बनाते हैं।

सच यह भी है कि देश की जल-विरासत को संभाले ये पारंपरिक संरचनाएं और जल-स्रोत, देहात की देखरेख में ही बाकी बची रही हैं। 2023 में भारत में पहली 'जल-गणना' में सवा 24 लाख जल स्रोतों की गिनती हो पाई, जिनमें से 23 लाख तो गांवों की हिफाजत में ही हैं जबकि आर्थिक समृद्धि से चमचमाते शहरों ने पानी का इतना शोषण किया है कि उनके अपने हिस्से का जो कुछ था वह भी बाकी नहीं रहा। बड़े शहरों में जो कुछ है सब आसपास के बांधों, नहरों या नदियों से उधार का है। या फिर है भी तो औद्योगिक कचरे से इतना गंदा कि वो प्यास बुझाने लायक हैं ही नहीं। और बात सिर्फ पानी मौजूद होने न होने भर की ही नहीं है, बल्कि उसके इर्दगिर्द के पूरे जल-जीवन से हमारे जुड़ाव की भी है। पानी को खोकर, दूषित कर, सुखा कर, जरूरत से ज्यादा खींच कर और उसकी अनदेखी कर, हमने अपने ही अस्तित्व को खतरे में डाला है। समाज पर इसका दोष मढ़ा जा सकता है, लेकिन प्रजातंत्र में प्रतिनिधियों का भी दायित्व कम नहीं है।

घोषणापत्रों में पानी

पिछले लोक सभा चुनावों में दोनों मुख्य पार्टियों ने अपने घोषणापत्रों में जलवायु संकट का मुद्दा शामिल किया था लेकिन जल-संकट को लेकर जाहिर तौर पर कुछ सुनने को नहीं मिला। जल वैसे भी राज्यों का मुद्दा है, इसलिए राष्ट्रीय पार्टियां विधानसभा चुनावों में ही पानी को बड़ा मुद्दा बनाती हैं। खास तौर पर किसानी क्षेत्रों में ये मसले वोट की राजनीति पर असर भी डालते रहे हैं। पानी को लेकर राज्यों के आपसी विवाद भी चुनावी दौर में बड़े जोर-शोर से उठते रहे हैं। हाल के कर्नाटक चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनता दल (एस) के मुखिया एचडी देवेगौड़ा ने वहां कावेरी और अरकावती नदी के संगम पर वन रहे मेकेदातु बांध को मुद्दा बनाया, जिस पर वग़ल के राज्य तमिलनाडु की डीएमके पार्टी के नेता स्टालिन ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, और घोषणा की कि यह बांध नहीं बनने देंगे। तमिलनाडु के भाजपा प्रमुख एम अन्नामलाई ने भी कर्नाटक में बांध का विरोध किया है। दोनों राज्यों के बीच यह पुराने विवाद का विषय है, जिस पर पहले भी सियासत होती रही है।
कर्नाटक में पिछले सालों में बारिश की कमी, उपभोग वाली जीवनशैली और आबादी के दबाव में पानी का संकट गहरा गया है। वहां के 236 में से 223 तालुका डार्क जोन में हैं यानी उनका पानी खाली है। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में कभी डेढ़ हजार से ज्यादा झीलें हुआ करती थीं, अब दो सौ भी नहीं बचीं। पिछले सालों में चेन्नई का अपना पानी खत्म होने की बात सुर्खियां बनी थीं और देखते-देखते 22 राज्यों का यही हाल हो गया। और अब बेंगलुरु में पानी की किल्लत ने सबका ध्यान खींचा है, जहां के 40% बोरवेल सूख चुके हैं। कर्नाटक सहित दक्षिण के राज्य उसी तरह के संकट से गुजर रहे हैं, जिसके लिए कभी मराठवाड़ा देश के नक्शे पर आया था। वहां के हालात भी कितने बदले हैं, इसका अंदाज इस वात से लगेगा कि महाराष्ट्र के इस इलाके के 8 जिलों में हाल में यानी 2023 में अनेक किसानों ने आत्महत्या की है।

पानी-खेती-कमाई के संकट को लेकर एनसीपी के नेता शरद पवार ने इस चुनाव में भाजपा को घेरा है, तो 10 पार्टियों के गठबंधन वाले महा विकास अघाड़ी ने भी जल-संकट के मुद्दे पर चुनावी सभाएं की हैं। महाराष्ट्र की 142 तहसीलें सूखे से जूझ रही हैं, सोलह जिलों में पानी का स्तर गिर गया है। लोकसभा में 48 सीटों की हिस्सेदारी वाले इस राज्य सहित सभी राज्यों में पानी की तकलीफें अलग-अलग हैं, लेकिन देशव्यापी चर्चाओं में यह अब भी पीछे ही धकेला हुआ मुद्दा है।

कुछ सुनी, कुछ अनसुनी 

राजस्थान के विधानसभा चुनावों में 13 जिलों पर असर डालने वाली पूर्वी नहर परियोजना ने सियासी रंग अपनाया और नई सरकार ने इसे लागू कर बरसों की छूटी हुई बात पर अमल किया। वर्षों से अटके यमुना जल समझौते पर भी राजस्थान ने हरियाणा से सहमति बना ली है। इस लोक सभा चुनाव में भी यहां कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां सिंचाई और पीने के पानी पर सियासत होगी। पार्टी के राष्ट्रीय घोषणापत्र के बजाय कुछ प्रत्याशी खुद पानी के संकट की बात जोर-शोर से कर रहे हैं। राजस्थान के जैसलमेर-वाड़मेर वाले पश्चिमी इलाके से लोक सभा चुनाव में दमखम दिखा रहे हाल ही चुने गए सबसे युवा विधायक रवींद्र सिंह भाटी पानी सहित मूलभूत सुविधाओं की बात शिद्दत से उठा रहे हैं। उनके अपने चुनावी उद्घोष में पाकिस्तान की सरहद से सटे गांवों के पिछड़ेपन को दूर करने की बात वार-वार सुनाई दे रही है। वो रेगिस्तान के बड़े भू-भाग को नेशनल पार्क कहे जाने और इस बहाने बड़ी इंसानी आबादी को पानी-बिजली-सड़क- स्कूल-अस्पताल-रोजगार से दूर रखने की नीतिगत गलतियों को दुरुस्त करने की बात कर रहे हैं।

अपनी संस्कृति-भाषा पर अभिमान करते हुए पानी पर्यावरण-आर्थिक समृद्धि के सामंजस्य की बात उठाने वाले अगर जीतकर देश की संसद में पहुंचते हैं, तो सैकड़ों गांवों की सुनवाई होने के साथ उनकी दुश्वारियों का सार्थक हल भी निकलेगा। जालोर लोक सभा के भाजपा प्रत्याशी लुंवाराम चौधरी खुलकर कह रहे हैं कि उनके इलाके में पानी की किल्लत दूर करना और किसानों को राहत दिलाना ही उनका चुनावी ध्येय है। यह इलाका ऐसा है जहां पर्यटकों की आवक खूब है और स्थानीय नेतृत्व में भाजपा का पलड़ा भारी होने के बावजूद पानी और पर्यावरण की हालत बद से बदतर ही हुई है। अब जमीन से जुड़े, इन जन-नेताओं के मैदान में उतरने से जाति और परिवार की राजनीति के बीच मुद्दों की जमीन मजबूत होती लग रही है।

संसद में उठाएं कड़े सवाल

अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास के इस गौरवकाल में हमें अपनी खामियों के बारे में और मुखर होना चाहिए। नदियों का पूजन और महिमामंडन तो हम करते हैं, लेकिन वो दूषित न हों, यह सख्ती समाज और कानून, दोनों ही नहीं कर पा रहे। एक तरफ मंदिर-ओरण-गोचर का बखान हम करते हैं, लेकिन वहीं कुछ राज्यों में पशु-पक्षियों-समुदाय के हक की जमीनें, वन विभाग को देने के फैसले पर सभी पर्यावरण-सांस्कृतिक प्रकल्प चुप्पी साधे हैं।

देश के 19 राज्यों के करीब ढाई सौ जिलों की 14 हजार बस्तियां हैं, जहां के पानी में घुले फ्लोराइड, नाइट्रेट और आर्सेनिक नई-पुरानी सभी पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बने हुए हैं। ऑस्टियोआर्थराइटिस और फ्लोरोसिस की चपेट में आए बच्चे-युवक-युवतियां और बुजुर्ग कभी आपसे टकराएंगे तो आप सोचेंगे जरूर कि बेहद आसान वैज्ञानिक समाधान होने के बाद भी हम बेबस क्यों हैं? 

राजस्थान और झारखंड के सांसदों ने खनन और उद्योग वाले इलाकों में पीने के पानी की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर उसके असर को लेकर सरकारी पहल पर सवाल पूछा तो कई जानकारियां सामने आईं। जनता भी बाकी के नेताओं से सवाल पूछती रही है कि हमने तो आपको चुना, अब आपने अपना धर्म निभाया कि नहीं? बिहार और असम की वाढ़ के स्थायी समाधान की बात कहीं सुनाई नहीं देती। कश्मीर घाटी की झीलों और दिल्ली की यमुना के प्रदूषण पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्तियों का जवाब किसी के पास नहीं?

परंपरागत जलस्रोतों को सहेजने के लिए समाज-सरकार और संगठन के समयबद्ध तालमेल से किसी को लेना देना नहीं? राज्यों के बीच जल- बंटवारे पर राजनीति-स्वार्थ से परे व्यावहारिक रवैया अपनाए जाने की मध्यस्थता करने वाला कौन है? इन सब सवालों के बीच औपनिवेशिक शासन की निशानियां रहे बड़े बांधों के बजाय, पर्यावरण-समाज हितैषी जल- प्रबंधन की ओर लौटने की वात नीतिगत पर्चों में आने लगी है। ऐसे में चिंतनशील और संवेदनशील नेताओं से ही उम्मीद है कि चुनाव और उसके बाद अपने पूरे कार्यकाल में, धरातल के मुद्दों को थामे रहें।

स्रोत : 06 अप्रैल 2024, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा


Tuesday, April 9, 2024

पर्यावरण क्यों नहीं बन सकता राजनीतिक मुद्दा?

 


लगभग हर राजनैतिक पार्टी ने आम चुनाव 2024 के लिए तैयारी शुरू कर दी है,भाग्य विधाता मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम मुद्दे उछालने भी शुरू कर दिए हैं, लेकिन आम चुनाव 2024  में  उठने वाले तमाम मुद्दों में पर्यावरण के मुद्दों को महत्व दिए जाने को लेकर मेरे मन में लगातार सवाल उठ रहा हैं कि क्या राजनीतिक दल इन मुद्दों को उचित महत्व दे रहे हैं। सच कहूं तो मेरे पास इसका कोई जवाव नहीं है । देश के सामने खड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों और राजनीतिक दलों के वादों के बीच इतनी बड़ी खाई है कि टिप्पणी करना आसान काम नहीं है। मैं इसे समझाता हूं।

भारत आज अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। हवा की गुणवत्ता इस हद तक खराब हो गई है कि इसके चलते देश में बड़ी तादात में लोग मर रहे हैं। विश्व के अन्य सभी देशों के मुकाबले भारत में जहरीली हवा के कारण शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। वायु प्रदूषण के कारण भारतीयों का जीवन पांच साल तक घट रहा है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) का लेटेस्ट एडिशन जारी किया है। यह सूचकांक 2020 के आंकड़ों पर आधारित है। इस अध्ययन में वायु प्रदूषण से संभावित जीवनकाल पर पड़ने वाले प्रभावों को बताया गया है। सूचकांक के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली ने एक बार फिर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शीर्ष स्थान पाया है। दिल्ली में वायु प्रदूषण धूम्रपान से ज्यादा खतरनाक हो चुका है। धूम्रपान से संभावित जीवन में 1.5 वर्ष की कमी आती है लेकिन दिल्ली मे वायु प्रदूषण से जिंदगी करीब 10 साल तक कम हो सकता है। इसी तरह, देश में शिशुओं की मौत का एक और बड़ा कारण जल प्रदूषण है और हमारे जल प्रदूषण का स्तर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।

2018 में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कुल 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की - तीन साल पहले 302 खंडों की वृद्धि हुई है। केवल गंगा ही प्रदूषित नदी नहीं है, सभी प्रमुख और छोटी नदियां पानी की निरंतर निकासी और अपशिष्टों के अप्रयुक्त निपटान के कारण प्रदूषण का शिकार हो रही हैं।

भूजल के मामले में संकट और भी विकट है। हम अभी पीने के पानी की आपूर्ति पर लगभग 80 फीसदी निर्भर हैं और हम भूजल प्रदूषण के अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुके हैं। देश में 640 जिलों में से 276 का भूजल फ्लोराइड के कारण प्रदूषित है, 387 में नाइट्रेट है, 113 जिलों में हैवी मेटल्स हैं और 61 जिलों में भूजल में यूरेनियम है।

हमारे जंगल, वन्यजीव और जैव विविधता पतन की ओर अग्रसर हैं। पिछले तीन दशकों में, हमने प्राकृतिक वनों को बगीचों में बदल दिया है। मनुष्य और पशुओं का संघर्ष बढ़ गया है और मरुस्थलीकरण अब हमारी उत्पादक कृषि भूमि को प्रभावित कर रहा है।

इसके अलावा, अब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन है, जो लोगों के जीवन और आजीविका के लिए खतरा है। अत्याधिक बारिश, चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसे चरम मौसम की घटनाएं अब नियमित रूप से देश के एक हिस्से या दूसरे हिस्से को तबाह कर देती हैं। 2013 में उत्तराखंड बाढ़ थी, 2014 में जम्मू और कश्मीर बाढ़, 2015 में चेन्नई बाढ़ और 2018 में केरल बाढ़। प्रति वर्ष औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जाने जाती हैं तथा बाढ़ के कारण फसलों व मकानों तथा जन-सुविधाओं को होने वाली क्षति 1805 करोड़ रुपए है। भयंकर  बाढ़ों की आवृति 5 वर्षों में एक बार से अधिक है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और भी बुरा होने वाला है क्योंकि निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान 1 डिग्री सेल्सियस से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।

ऐसी विकट स्थिति में, हमें  राजनीतिक दलों से अपेक्षा करनी चाहिये  कि वे एक गंभीर विचार के साथ सामने आए, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास और विकास की अनिवार्यताओं के संतुलन की बात हो, लेकिन अफसोस कि दो बड़े राजनीतिक दलों - कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी - ने  कभी भी अपने घोषणापत्र में पर्यावरण को एक मुख्य मुद्दे के रूप में नहीं रखा है। उन्होंने पर्यावरण को हमेशा एक परिधीय विषय के रूप में ही  पेश किया है।

देश में लगभग हर पार्टी विकास की बातें करती हैं, लेकिन उस विकास से पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों और देशवासियों के लिए लगातार ख़तरा बनते जा रहे पर्यावरण संबंधी मुद्दा का कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता है। देश में  होने वाले ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित कर रहा है सम्पूर्ण देशवासियों का अस्तित्व ही खतरे में डाल रहा है।

लेकिन अब समय आ गया है जब पर्यावरण का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के साथ हम सब के लिए सबसे ऊपर होना चाहिए क्योंकि अब भी अगर हमने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो आगे आने वाला समय इस से भी भयावह होगा। फिलहाल देश के सभी बड़े शहरों पर्यावरण संबंधित अलग अलग चुनौतियो का सामना कर रहे है।

चुनाव में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों नहीं है? मैं इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों को दोष नहीं दिया जा सकता है । राजनीतिक दल  के वादे अपने मतदाताओं की प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं और, अधिकांश मतदाताओं के लिए पर्यावरण प्राथमिकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण प्रदूषण और विनाश के कारण लोग पीड़ित नहीं हैं।  लेकिन उन्हें इस मुद्दे की पर्याप्त रूप से जानकारी नहीं है जिसके कारण भारत का मतदाता पर्यावरण को चुनाव में उठाये जाने वाला मत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा नहीं मानता और यह सिविल सोसायटी की विफलता है। हम सिविल सोसायटी में पर्यावरण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर अपने संदेश को ले जाने में विफल रहे हैं। यह समय है, जब हमें इस विफलता को पहचानें और मिलकर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को राजनैतिक और सामाजिक मुद्दा बनाये तथा उन समस्याओं को दूर करें।