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Tuesday, December 2, 2008

एक उत्तर भारतीय का दर्द

ये सन्देश मुझे मेरे एक साथी ने जो मुंबई में रहता है ने ऑरकुट पर भेजा है

anjule:
कहाँ हैं राज ठाकरे.....और उसकी बहादुर gundo ki ''महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना' ?? उसको बताओ.....200 एन0 एस0 जी0 कमांडोज़ ( जिनमें कोई 'मराठी-मानुष' नहीं है....सब या तो उत्तर भारतीय हैं या दक्षिण भारतीय) जो भेजे गए उसकी तथाकथित 'आमची मुंबई' को आतंकवादियों से बचाने के लिए. जिन्होंने इसलिए अपनी जान दी ताकि 'वो' जिंदा रह सके......जिन्होंने इसलिए अपनी नींदों की कुर्बानियां की ताकि 'वो' चैन से सो सके. जिन्होंने अपने लहू की सुर्खी से "आमची मुंबई'' नहीं ''अपनी मुंबई'' के माथे पर अपनी शहादत से तिलक कर दिया...........मुंबई किसी के 'बाप' की नहीं....''भारत माँ'' की है. हर हिन्दुस्तानी की है.....बिल में छिपे 'भाषावादी चूहों' से कह दो की अब वो बाहर आ जाएँ, बहादुर शेरों ने.....(वो चाहे किसी भी फोर्स के हों .....किसी भी राज्य के हों) मुंबई के खूबसूरत गुलिस्तान में घुसे वहशी भेड़ियों के कायर कलेजे अपने जूतों की एडियों के तले मसल कर रख दिए हैं.....!!!
इस मुठभेड़ में शहीद हुए हर बहादुर हिन्दुस्तानी की शहादत को सलाम.......!!!!

Sunday, October 26, 2008

दीपावली जादू है।

यह लेख मुझे मेरे एक मित्र अभय ने दीपावली के सन्देश के रूप में भेजा है मुझे लगा शायद ये हम सब की कहानी है इसलिए ये आप सब के लिए


दीपावली जादू है।

तिलिस्म है अनोखा।

आपको एेसा नहीं लगता!!!

मैं तो बड़ी शिद्दत से इस बात को महसूस करता हूं।

चाहे किसी भी जगह सदियों से कोई रोशनी नहीं गई हो।

अंधेरा जम कर सर्द और घना हो गया हो।

कुछ भी साफ न हो।

वहां भी रोशनी के आते ही जादू होता है।

बस एक किरण अाैर अंधेरे का खात्मा ।

काफूर हो जाता है।

है ना जादू ।

दोस्तों एक बार फिर दीपावली करीब आ गई है।

भागदौड़ से भरी इस नौकरी में भी कुछ दिन होते है जब हम अपने जड़ों की ओर अनायास ही लौट जाते हैं। एेसे ही चंद दिनों में यह त्यौहार भी शामिल है। इस त्यौहार पर मैं जहां भी रहा घर की कमी या अपनों के साथ न होने के एहसास से साराबोर रहा। सच में मुझे घर की बहुत याद आती है। मां-बाप, भाई-बहन, पुराने दोस्त, मोहल्ले के रास्ते, कुछ हंसी , कुछ पकवान, पेंट की खुशबू, नए कपड़े, दीप और तेल, बिजली के झालर, बचपन की बेफ्रिकी और घर पर होने वाली पूजा में देरी, पटाखों का उल्लास। बता नहीं सकता हर चीज की जबरदस्त कमी महसूस होती है। मुझे कई दीपावली याद है। हमारे यहां हर साल इसी रात को रजाई ओढऩा शुरू करते थे। तमाम बातें है। भूली बिसरी सी। एेसा लगता है यादों के झरोखा बड़ा होकर दरवाजा बन जाता हो। ज्यादा नहीं कुछ साल पहले की बात है। हमलोग साथ ही यह त्यौहार मनाते हैं। आज सब अलग-अलग है। सालों हो जाते हैं एक साथ मिले।

फिर दीपावली आई है।

मौका है।

पर साथ नहीं है।

घर पर मां बाप अकेले होंगे।

फोन पर दीपावली मना ली जाएगी।



किसी की प्रेमिका होगी ।

वह उसके साथ दीपावली मनाएगा।
कोई दोस्तों के साथ मौज मस्ती करेंगे।

बहरहाल पहली बार मैं मेरठ में रहूंगा। अभी डेढ़ माह पहले ही यहां आया हूं। ना तो मैं मेरठ को और ना ही यह शहर मुझे जानता है। एेसे में यहां दीपावली मनाना एक नया अनुभव होगा। मैं तो पूरी तरह तैयार हूं। दीपावली मनाने के लिए । हालांकि मेरी उम्मीद और तैयारी का बड़ा दारोमदार उससे पहले मिलने वाले वेतन पर निर्भर करेगा।

मेरी ओर से आप तमाम लोगों को इस पर्व की ढेर सारी शुभकामनाएं।

दीपावली की शुभकामनाएं।

आशा है आप इस अवसर का पूरा आनंद उठा पाएंगे।
यह आपकी जिंदगी को रौशन करेगी।


है ना जादू।

Happy Diwali To you and Your Family

Let the festivity embrace you..

let there be light


regards

abhay
HT Media LTd
Meerut

Friday, September 26, 2008

वेलकम टु सज्जनपुर "फिल्म हिट"


रुपेश गुप्ता
लोग कहते हैं कि हिट फिल्म के लिए कोई फार्मूला नहीं होता.लेकिन फिर भी कुछ तत्वों का होना फिल्म में ज़रुरी माना जाता है,
जिसके बिनाह पर कहा जा सके कि फिल्म हिट हो सकती है. ये बातें फिल्म को हिट कराने की संभावनाएं बढ़ा देती है. चलिए पहले
इन तत्वों को तलाशते हैं जो अच्छी फिल्म की निशानी के तौर पर देखी जा सकती है, कहानी और प्रस्तुतीकरण के इतर.
अच्छी स्टारकास्ट, हिट गाने, शानदार लोकेशन्स, मार्डन कपड़े और सपनों की दुनिया- जहां जहां ज़िंदगी के कड़वे हकीकत न हों

ताकि दर्शक तीन घंटे स्वप्नलोक में विचरण कर सके.इन सबके अलावा इंटरनेशनल तकनीक जो फिल्म को आधुनिक लुक दे.
इसमें शानदार इडिटिंग से लेकर विसुअल इफेक्ट तक शामिल हैं. अगर किसी फिल्म में ये तमाम बातें होंगी तो फिल्म के हिट
होने की संभावना ज़्यादा होगी. ग्रामीण पृष्ठभूमि की स्टोरी में इन तत्वों बातों की गुंजाइश काफी कम हो जाती है,और उसके नाकाम होने की
संभावनाएं बढ़ जाती है.इसलिए ग्रामीण परिवेश की फिल्में बनाना जोखिम से भरा माना जाता है और यही वजह है कि पिछले दो दशक से
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बननी करीब-करीब बंद हो चुकी हैं. लगान और मालामाल वीकली इसके अपवाद हैं, ये फिल्में दुहस्साहस का विजयी
नतीजा हैं.जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के बाद भी सफल रहीं.

अगर बात दुस्साहस की करें तो सबसे बड़ा दुस्साहसी काम श्याम बेनेगल ने किया है,वेलकम टु सज्जनपुर में. न गाने सुपर हिट हैं न ही
सुपरहिट स्टार कास्ट. और फिल्म भी ऐसे गांव की है जिसके माहौल से परिचय शहरी तबके का परिचय कम ही होगा. सुविधाविहीन गांव.
लेकिन इसके बाद भी एक शानदार और यादगार फिल्म. ये लोगों को एक
नया ज़ायके का मज़ा देती है.
अगर इसके स्टाकास्ट की बात करें तो,श्रेयस तलपड़े स्टार बनने की जद्दोजहद कर रहे हैं, तो अमृता राव कुछ एक फिल्मों के बाद उसकी
कामयाबी को कायम नहीं रख पाईं. बाकी स्टारकास्ट की बात करें तो कोई नाम ऐसा नहीं है जिसके लिए दर्शक फिल्म देखने चले आएं.लेकिन इन
छोटे स्टार और अच्छे कलाकारों ने ऐसा काम किया कि पूछिए मत. श्रेयस तलपड़े अपने पात्र में इतना डूबे हैं कि कहीं भी श्रेयस आपको
नहीं दिखेगी, हर जगह कहानी का मुख्य पात्र महादेव ही नज़र आएगा.और अमृता राव, जैसी खूबसूरती वैसी मासूमियत.ऐसी मासूमियत कि काफी
दिनों बाद याद आया कि हम हिंदुस्तानी खूबसूरती को एक और नाम से जानते हैं मासूमियत. खूबसूरती ऐसी कि मर मिटने को दिल चाहेगा.आपको
ये भी समझ में आ जाएगा कि गर्दन से नीचे नज़र न जाने का मतलब क्या होता है.कुछ दिन बाद फिर से ये खबर पढ़ने को मिल जाए कि मकबूल
फिदा हुसैन कमला यानी अमृता पर पेंटिग बनाएंगे. पूरी गारंटी है कि फिल्म देखने के बाद घूंघट में कुछ छिपा, कुछ झांकता कमला का चेहरा
आपकी आंखों के सामने नाचता रहेगा.और अगर उसके पति से जलन होने लगे तो यकीन मानिए आप इकलौते नहीं हैं

फिल्म की कहानी गांव की है, और काल्पनिक नहीं-हकीकत के इर्दगिर्द। फिल्म की कहानी हमारे समाज में हाल के दिनों में घटी तमाम
असल घटनाओं के ज़िक्र या चित्रण से आगे बढ़ती है. चाहे वो किडनी का काला कारोबार हो या फिर बेरोजगारी और उससे पैदा हुए पलायन से
कैसे घर बार की सामान्य खुशियां तार तार हो जाती हैं, बड़ी ही सफाई से दिखाया गया है. यह फिल्म इन समस्याओं के जड़ में पहुंचती है और
इन समस्याओं का समाज में असर दिखाती हैं, संवेदनाओं के साथ. जहां तक खबरें नहीं पहुंच पाती.हिरोईन सुन्दर है.लेकिन उसकी सुंदरता घुंघट में
कैद रहती है.जब घुंघट से बाहर निकलती है तो चेहरे से नीचे आपकी नज़र नहीं जा सकती.
फिल्म की जान है इसकी कॉमेडी. जो बड़े ही स्वाभाविक हैं.किसी को तोतला या लूला बनाकर कॉमेडी को ठूंसने की कोशिश नहीं की गई है.न ही
आपको हंसने के लिए लॉजिक को घर छोड़कर आने की ज़रुरत है. बल्कि यहां त्रासदियों से भी हंसी निकालने की निर्देशक ने सफल कोशिश की है.

Friday, June 13, 2008

सब कुछ सीख कर भी तुम कुछ न सीख सके

इन अंधेरों में, मैं रोशनी की किरण तलाशता रहा,
कुछ इस तरह से मैं अपनी ज़िंदगी तराशता रहा ।

मुझको पाने की मंज़़िल नहीं कोई ख्वाहिश
मेरी मंज़िल तो बस मेरा रास्ता रहा।

ऐसी ज़िंदगी की नहीं ई हसरत
जिसका बस लालच से ही वास्ता रहा

सफर तो यूं सभी करते हैं पूर्ण जिंदगी का
किसी का तेज़, किसी का आहिस्ता रहा

सब कुछ सीख कर भी तुम कुछ न सीख सके मानव
जिस ने चाहा परखा तुम्हे जिसने चाहा वो जांचता रहा

पंकज रामेन्दू मानव

Saturday, April 26, 2008

ख्वाहिश

अंजुले श्याम मौर्य 'एडिट वर्क्स स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन' में बी.एस.सी. इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वीतीय वर्ष के छात्र हैं। ये अपनी एक प्यारी सी अभिव्यक्ति के साथ 'मुद्दा' पर हाज़िर हैं।

अंजुले श्याम मौर्य

काश, यह ज़िन्दगी
खुशनुमा इक पथ होता
साथ में इक खूबसूरत हमसफर होता
बातों-बातों में यूं रास्ता नप जाता
पमारे होंठो पे जो कोई मोहब्बत भरा तराना होता
इस तरह हमारा सफर 'आशिकाना' होता।

काश हमारे बीच
कोई समझौता होता
प्रेमभरा कोई घरौंदा होता
तो मिल बैठ कर दो-चार, मीठी-तीखी बातें होंती
जहाँ रूठने-मनाने का इक 'िसलसिला' होता
फिर धीरे-धीरे मशहूर हमारा 'फसाना' होता

काश मेरा देखा
हर सपना सच होता
मैं ख्वाहिशों के द्वीप में सो रहा होता
हर शाम जहाँ सपनों की बारिश और आरजू के ओले गिरते,
यहाँ न कोई ख्वाहिश और न सपना अधूरा होता
काश ऐसा ही दिलचस्प अपना 'आशियाना' होता।

Thursday, April 17, 2008

भूख मुक्त या आलस युक्त दिल्ली

जैसे जैसे चुनाव निकट आता है सबसे पहले विवेक मर जाता है। यह बात दिल्ली की राज्य सरकार या केंद्र सरकार दोनों पर बड़ा सटीक बैठता है। दिल्ली की इसलिए बोलना पड़ रहा है क्योंकि एक तो दिल्ली की है ही और जो दूसरी है जिसे आप केंद्रीय सरकार कहते हैं वो दिल्ली के अळावा कहीं की सोचती नहीं है। खैर विषय यह नहीं है हम विषय से ना भटकते हुए सीधे विषय पर आते हैं। १६ अप्रैल को हिंदुस्तान के पेज नं. १३ पर एक विज्ञापन छपा,(हिंदुस्तान का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैंने इसमें देखा था, आपने हो सकता है किसी और अखबार में देखा हो) विज्ञापन का विषय है भूख मुक्त दिल्ली-एक सार्थक कदम। आप की रसोई नाम के इस कार्यक्रम में लोगों को मुफ्त खाना खिलाया जाएगा, इस महान काम में जनहित कार्य क्यों नहीं कह रहा हूं इसका आगे विवरण दूंगा, अभी से अलबलाइए मत। इस महान काम में दिल्ली सरकार का सहयोग दे रहे हैं स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर।
भारत को भिखारियों का देश कहा जाता है ऐसा कुछ लोग कहते हैं औऱ यह कुछ लोग विदेशी ज्यादा होते हैं यह ऐसा क्यों कहते हैं क्योंकि यह ऐसा कह सकते हैं औऱ चूंकि यह लगातार ऐसा कह रहे हैं तो हमने मान भी लिया है अब जब हमने मान लिया है तो इस बात को साबित भी करना होगा तो हम लगातार लोगों को फोकट में खाना देंगे औऱ अलालों की संख्या में तेज़ी के साथ इज़ाफा होगा। औऱ हम झूठे नहीं कहलाएंगे वैसे भी आजकल स्लम टूरिज्म की काफी मांग है तो इसमें भिखारी टूरिज़्म भी बढ़ जाएगाा औऱ सरकार को टूरिज़्म से फायदा मिल जाएगा औऱ जो बाकी सहयोगी बचे हैं उन्हे मुफ्त का प्रचार मिल रहा है।
भारत को संतो का देश भी कहा जाता है जो संत होते हैं वो कोई काम-वाम नहीं करते वो सिर्फ बातें करते हैं, उन्हें मोह-माया भौतिकता से कोई नाता नहीं होता है, वो जेब में पैसा लेकर नहीं घूमते, अब जब जेब में पैसा लेकर नहीं घूमते तो भरण-पोषण कैसे करेंगे, और जेब में पैसा आएगा कैसे जब कुछ काम नहीं करेंगे औऱ काम क्यों करे जबकि यह कहा गया है कि संत सिर्फ ईश्वर के आदेश पर चलते हैं। जब ईश्वर की मर्जी के बगैर कुछ चलता नहीं, उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता, वो ही चोर से कहता है चोरी कर वो ही पहरेदार से कहता है जागता रह, जब सब कुछ उसी को करना है तो फिर हम क्यों कुछ करें, हम निठल्ले रहेंगे। ये निठल्ले होने का आदेश हमें ईश्वर से मिला है तो दिल्ली सरकार की क्या मजाल की वो इस आदेश का पालन ना करे, फिर अक्षरधाम भी तो ईश्वर का ही धाम है तो वो तो इस आदेश का पालन करने के लिए करबद्ध है, तो कुल मिलाकर ये देश संतों का हे, संत फकीर होते हैं, फकीर कुछ काम नहीं करते, बगैर काम किये पैसा नहीं मिलता, बगैर पैसे के पेट नहीं पलता, बगैर पेट पले इंसान ज़िंदा नहीं रहता, तो भारत की पंरपरा को आगे बढ़ाते हुए हमें निठल्लावाद, कामचोरीवाद और फोकटवाद को एकसाथ बढ़ावा देते हुए लोगों को मुफ्त में भोजन कराना है और अपनी परपंरा को आगे बढ़ाना है। भारत माता की जय।
माफ कीजिएगा जज्बात में आकर एक तकनीकी पक्ष रखना भूल गया। भूख मुक्त दिल्ली नामक इस विज्ञापन का एक तकनीकी पक्ष भी है जिसकी रखे बगैर बात अधूरी सी रह जाएगी। इस फोटू को गौर से देखिए, इस तस्वीर से आप को इसे छापने वाले, इसके लिए दान लेने वाले औऱ मुख्यमंत्री जी की भागीदारी प्रदर्शित करने वाले, कुल मिलाकर इस पूरी योजना में संपूर्ण रूप से सम्मिलित लोगों की भूख का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तस्वीर में जो लोग बैठ कर खाना खा रहे हैं उनमें से किसी को भी देख कर यह नहीं लगता की वो काम करके पेट नहीं भर सकता, इससे भी आगे बढ़कर एक बात औऱ है जो लोग खाना खा रहे हैं उनमें से पहले वाले की थाली ही खाली और चमचमाती सी रखी है। यानि हम सिर्फ बातें परोसेंगे। खा सको तो खालो।

किसी का पेट भरना बुरी बात नहीं है, बुरी बात है समस्याओं का ढांकना, केंद्र सरकार किसानों की समस्याओं को सुलझाएगी नहीं उन्हे ६० अरब रू का दान देकर उन्हे कामचोर बनाएगी। किसान मरते रहे तो मरे हमें क्या हमने तो अरबों रु का कफन का इंतज़ाम कर दिया है। लोग बेरोज़गार है तो सत्ता उन्हे काम नहीं दिलवाएगी, वो उन्हे फोकट में खाना खिलाएगी। जब रोटी जितनी भारी चीज़ उठाने मात्र से ही पेट भर रहा है तो मेहनत का सब्बल-फावड़ा उठाने की क्या ज़रूरत।
हे सत्ता तुम धन्य हो. तुम्हे नमन हो।


पंकज रामेन्दू

Thursday, April 10, 2008

मेरा भारत महान

रविन्द्र

मेरा भारत महान,
100 में से 99 बेइमान,
अगर ये होता भारत का नारा,
तो अच्छा होता,
क्योंकि इसमें कुछ तो सच्चा होता।
आज़ादी के हर नारे को,
इन बेइमानो ने सूली दिया है टांग,
क्योंकि बेइमानों का यही है असली काम।
और फिर निकले हैं देश चलाने कि राह में,
बेच के अपना दीन और ईमान।
देते हैं हज़ारों सपनों की आस,
फिर कर देते हैं उन्हे अपने बेइमानी के बिल से पास।
फिर न जाने क्यों लगता है अभी भी है कुछ आस,
उसके बाद भी होता नहीं है कुछ खास।
न जाने कब वो दिन आएगा,
जब बेइमानी का चोला इस दुनिया से उठ जाएगा।
तब देखेंगे हम भारत का नया चेहरा,
जिसमें बेइमानी का कभी न होगा बसेरा।

मै देखना चाहती थी

रविन्द्र का ताल्लुक पत्रकारिता जगत से नया नया है, ये एडिटवर्क्स स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन में बी.एस.सी. इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रथम वर्ष के छात्र हैं। इनकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष है। ये अपनी पहली रचना के साथ मुद्दा पर आये हैं।


रविन्द्र

मै देखना चाहती थी,
शिखर की उन ऊंचाईयों को,
न जाने क्यों देख न पाई।
एक लड़की होने के अहसास,
के बंधन को कभी तोड़ न पाई।
मै चाहती थी कुछ ऐसा कर दिखाना,
जो मेरी छवि को बना देता और भी निराला।
कुछ ऐसा जहाँ ने दिया फिर ताना,
जिसने बना दिया समाज से बेगाना।
मै चाहती थी आजाद भारत में रहकर कुछ करने की,
मगर आजाद हो कर जीना मेरा समाज को रास ना आया।
फिर मुझे दबंगों कि तरह जीना सिखाया,
जिसके बाद मुझे सभ्य नारी का पद मिल पाया।
न जाने कब ये समझेगा ज़माना,
कि नारी ही होती है, हर इंसान को समाज में लाने का बहाना।
न जाने कब लिखा जायेगा,
नारी को अपने हक से जीने का अफसाना।

Monday, April 7, 2008

हमउ भी कोई कम नीच नाही

पंकज रामेन्दू

मध्यप्रदेश के एक कवि हैं, माणिक वर्मा, उनकी कविता पढ़ने का अंदाज़ एकदम जुदा है। जब वो कविता पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि किसी को गाली बक रहे हैं, गाली भी ऐसी की आपने आज तक नही सुनी होगी, एकदम अनूठा प्रयोग करते हैं। उनकी एक कविता की एक पंक्ति है- उच्च कोिट के नीच लोगों।

आप यह सोच रहे होंगे कि मैं माणिक वर्मा का ज़िक्र क्यों कर रहा हूं, दरअसल रविवार के जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर दो लेख एक दूसरे के बगल में बाते करते हुए नज़र आए। एकतरफ भारत भारद्वाज जी गुड़िया भीतर गुड़िया हेडिंग के साथ यह कह रहे थे कि मैत्रयी पुष्पा ने जो अपनी आत्मकथा लिखी है वो एकदम सतही है, उन्होंने यह तक लिखा है कि आजकल जिन्हें लिखना नहीं आता है वो आत्मकथा लिखने लगे हैं। रसेल, गांधी से लेकर तसलीमा तक उन्होंने सभी आत्मकथाओं का ज़िक्र भी छेड़ दिया था। यह सब बताने के साथ वो राजकिशोर जी की छीछालेदर भी करने पर तुले थे, वो यह कहना चाह रहे थे कि राजकिशोर जी ने पैसे लेकर इस आत्मकथा की शान में कसीदे पढ़े हैं।
दूसरी तरफ - मो सम कौन कुटिल खल कामी के साथ राजकिशोर जी यह कहते नज़र आये कि उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा से उनकी किताब की आलोचना लिखने के लिए दस हज़ार रु मांगे थे, वो उन्हे आज तक नहीं मिले, ऐसी ही कई प्रकार की व्यंग्योक्तियों के साथ राजकिशोर जी की किलपन नज़र आई।
इस बात की शुरूआत १६ मार्च के जनसत्ता में छपी मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़ियी भीतर गुड़िया की आलोचना से हुई, जिसमें राजकिशोर जी ने इस पुस्तक की काफी तारीफ की हुई है।
भारत भारद्वाज जी इसे सतही बता रहे हैं और वो यह भी कह रहे हैं कि राजकिशोर जी इसकी मार्केटिंग कर रहे हैं।
अब यहां से समस्या खड़ी होती है। जब आपके सामने दो वरिष्ठ एवं गरिष्ठ साहित्यकारों की विपरीत प्रतिक्रिया किसी समान विषय पर मिलती है तो वो अकस्मात ही आप में एक जिज्ञासा पैदा कर देती है। आप सोचने लगते हैं कि चलो पढ़ कर देखा तो जाए आखिर है क्या मामला ।
तो इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ऐसा भी हो सकता है कि मैत्रयी पुष्पा से जो पैसे प्राप्त हुए वो आपस में बांट लिए गए हों। भई हंगामा खड़ा करना भी तो एक मकसद हो सकता है। अब मेरे जैसे लोग जिनमें साहित्य पढ़ने की खुजली है और जो यह विश्वास करके बैठा है कि यह वरिष्ठ साहित्यकार थोड़े ईमानदार टाइप के भी हैं मुझमें और खुजाल पैदा कर देगा और नतीजा में वो किताब खरीद डालूंगा। मेरे जैसे कई ग़रीब लेखक है (वैसे हिंदी के लेखक का ग़रीब होना ही इस बात का सूचक है कि वो लेखक है या यूं कह लो की ग़रीब ही लेखक है)वो इस किताब को खरीद डालेंगे। अब हम सब एक दूसरे से मिलते तो हैं नहीं तो किताब के अच्छे या बुरे होने की बात भी नहीं बता सकेंगे। नतीजा, उद्देश्य की पूर्ति ।
अगर दोनों वरिष्ठ मतैक्य नहीं भी हैं तो भी मैत्रयी पुष्पा के लिए तो यह फायदे का सौदा रहा। वो कुछ कहा जाता है ना कि दो .. कि लड़ाई में .. तीसरे का फायदा। वैसे एक बात काबिल-ए-तारीफ है, इनका इस तरह से लड़ना इस बात की पुष्टि कर देता है कि हिंदी साहित्य में जो केकड़ा प्रथा का बार बार ज़िक्र आता है वो कितना सही है। तो इस बात की पुष्टि कराने के लिए मैं इन दोनों का धन्यवाद भी देता हूं। यह बात हमें बताती है कई कीचड़ ऐसी हैं जिनमें कमल खिलते नहीं है, हां अगर खिले हुए कमलों को उनमें डाल दो तो वे मुरझा ज़रूर जाएंगे।

Sunday, March 30, 2008

गुरुजी, आपके शिष्य जोड़-घटाना नहीं जानते




संजीव मिश्र]

यह खबर शिक्षकों के लिए एक आइना है। बच्चों के विद्या-बुद्धि के विकास में गुरुजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बच्चे के प्रतिभा विकास का श्रेय उनको जाता है, तो उनके अल्प विकास की जिम्मेदारी से भी वे नहीं बच सकते। अगर पांचवीं कक्षा के बच्चे जोड़-घटाना नहीं जानते, हिंदी नहीं पढ़ पाते; तो यह पूरी शिक्षण प्रक्रिया और उससे जुड़ी सरकारी कवायद पर एक सवाल है। उत्तर प्रदेश में एक हद तक ऐसी हालत दिख रही है। प्रदेश में अगर सर्व शिक्षा अभियान अपेक्षा पर खरा नहीं उतर रहा है, तो जिम्मा मास्टर साहब का भी है। यहां हर वर्ष इस अभियान पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं, इसके बावजूद वह प्रभावी नहीं हो सका है। अभियान के मूल्यांकन के लिए योजना आयोग की पहल पर संस्था 'प्रथम' द्वारा देश भर में किए गए सर्वेक्षण में चौंकाने वाले तथ्य मिले हैं। 'ऐनुअल स्टेटस आफ एजूकेशन रिपोर्ट' [असर-2007] के मुताबिक प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश खासा पिछड़ा है। रिपोर्ट योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को सौंप दी गई है।

अध्ययन के मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर जहां कक्षा तीन के 49 फीसदी बच्चे शुरुआती स्तर की हिंदी पढ़ लेते हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या महज 40 फीसदी है। इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा पांच के 59 फीसदी बच्चे कक्षा दो की हिंदी पढ़ सकते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसी कक्षा के सिर्फ 48 फीसदी बच्चे कक्षा दो के स्तर की हिंदी पढ़ सकते हैं। जोड़-घटाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश फिसड्डी है। राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा तीन से पांच के 42 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना एवं गुणा-भाग जानते हैं, पर उप्र में कक्षा तीन से पांच के महज 34 फीसदी बच्चे प्रारंभिक गणित समझते हैं। कक्षा पांच के महज 42.8 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना ठीक से कर पाते हैं। मतलब यह कि आधे से अधिक [57.2 प्रतिशत] बच्चे तो बिना जोड़-घटाना सीखे ही कक्षा पांच तक पहुंच जाते हैं। आंगनबाड़ी केंद्रों में भी छात्र-छात्राएं पर्याप्त संख्या में नहीं पहुंच पा रहे हैं।

जिलावार छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के स्तर व उनके स्कूल पहुंचने में अंतर है। तमाम कोशिश के बावजूद बदायूं के 12.5 फीसदी व बाराबंकी के 10.3 फीसदी बच्चे स्कूलों से दूर हैं। सबसे बुरा हाल कानपुर देहात का है, जहां कक्षा तीन से पांच में पढ़ने वाले 72.3 फीसदी बच्चे हिंदी तक नहीं पढ़ पाते। रामपुर दूसरे व चित्रकूट तीसरे स्थान पर है, जहां तीसरी से पांचवीं कक्षा के क्रमश: 71.1 व 69.9 फीसदी बच्चे हिंदी नहीं पढ़ पाते। श्रावस्ती 80.3 फीसदी बच्चों के हिंदी पढ़ने की क्षमता के साथ अव्वल है। हिंदी पढ़ने के मामले में 78.8 फीसदी बच्चों के साथ मेरठ व 75.2 फीसदी बच्चों के साथ ज्योतिबाफुले नगर तीसरे स्थान पर है। कानपुर देहात के बच्चे गणित में भी फिसड्डी हैं। वहां कक्षा तीन से पांच के 77.4 फीसदी बच्चे सामान्य जोड़-घटाने के सवाल भी नहीं हल कर पाते। इस दृष्टि से 77.1 प्रतिशत बच्चों के साथ चित्रकूट दूसरे व 75.3 प्रतिशत बच्चों के साथ प्रतापगढ़ तीसरे स्थान पर है। गणित में श्रावस्ती अव्वल रहा, जहां 75.1 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना ही नहीं, गुणा-भाग भी कर लेते हैं। गणित में 65.9 फीसदी बच्चों के साथ औरैया दूसरे व 65.3 फीसदी बच्चों के साथ ज्योतिबाफुले नगर तीसरे स्थान पर है।
(साभार याहू)

Sunday, March 23, 2008

सबसे खर्चीले पीएम थे नेहरू


क्या देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू दुनिया के सबसे अधिक खर्चीले प्रधानमंत्री थे।

इस सवाल पर पचास के दशक में देश में करीब पांच साल तक संसद, मीडिया और सार्वजनिक जीवन में यह बहस चली थी। पंडित नेहरू के सबसे खर्चीले प्रधानमंत्री होने का आरोप प्रख्यात समाजवादी चिंतक डा. राम मनोहर लोहिया ने लगाया था। उनका कहना था कि नेहरू ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति से भी ज्यादा खर्चीले हैं।

डा. लोहिया ने सरकारी आंकड़ों से यह सिद्ध किया था कि पंडित नेहरू पर प्रतिदिन 25 हजार रुपये खर्च होते हैं और वह दुनिया के सबसे अधिक खर्चीले प्रधानमंत्री हैं। इतना खर्च तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकमिलन और अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी पर भी नहीं होता। लोहिया ने इस पूरी बहस पर प्रतिदिन पच्चीस हजार रुपये नामक एक पुस्तक भी लिखी थी जो तब बिहार के दरभंगा से कौटिल्य प्रकाशन से हुई थी।

डा. लोहिया की 98वीं जयंती के मौके पर अनामिका प्रकाशन द्वारा नौ खंडों में प्रकाशित लोहिया रचनावली में यह अनुपलब्ध पुस्तक दोबारा प्रकाशित हुई थी। रचनावली का संपादन प्रख्यात समाजवादी पत्रकार, लेखक एवं विचारक मस्तराम कपूर ने किया है। 82 वर्षीय कपूर ने यूनीवार्ता को बताया कि लोहिया के निधन के 40 वर्ष बाद बड़ी मुश्किल से लोहिया की रचनाएं एकत्र हो पाई हैं, क्योंकि उनकी बहुत-सी सामग्री अनुपलब्ध है ओर लोगों को इसकी जानकारी भी नहीं है। पंडित नेहरू को सबसे अधिक खर्चीला प्रधानमंत्री बताने वाली पुस्तक प्रतिदिन पच्चीस हजार रुपये के बारे में भी आज कइयों को जानकारी नहीं है। यह बहस तब संसद में भी चली थी और किशन पटनायक जैसे समाजवादी नेता का पंडित नेहरू से इस बारे में लंबा पत्राचार भी हुआ था।

डा. लोहिया का कहना था कि उन्होंने पंडित नेहरू के सरकारी खर्च की बात व्यक्तिगत द्वेष के कारण नहीं कहीं थी। उन्होंने बजट के आंकड़ों को पेश कर अपने आरोप की पुष्टि की थी। पंडित नेहरू इससे तिलमिला गए थे, उन्होंने बार-बार इस आरोप का खंडन किया और अंत में किशन पटनायक से इस संबंध में पत्राचार ही बंद कर दिया।

रचनावली के अनुसार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पर 500 रुपये प्रतिदिन और अमेरिका के राष्ट्रपति पर करीब पांच हजार रुपये प्रतिदिन खर्च होते थे। किशन पटनायक ने डा. लोहिया के इस आरोप की जांच कराने की भी संसद में मांग की थी, लेकिन सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया था।

डा. कपूर का कहना है कि अब तो सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों पर अनाप-शनाप सरकारी खर्च हो रहे हैं पर यह अब संसद में बहस का विषय नहीं है। डा. लोहिया सार्वजनिक जीवन में सादगी और नैतिकता के पक्षधर थे। जब वह सांसद बने तो उनके पास मात्र दो जोड़ी कपड़े थे।

डा. लोहिया पहले नेहरू से प्रभावित थे, पर धीरे-धीरे उनकी नीतियों से उनका मोहभंग हो गया और वे नेहरू के कटु आलोचक होते चले गए। वह हर तरह के अन्याय, दमन, गुलामी, शोषण और असमानता के विरोधी थे। वह समतामूलक समाज का सपना देखते थे। इसके लिए उन्होंने काफी संघर्ष भी किया। अभी सात आठ खंडों में उनकी और सामग्री आएगी। इस रचनावली से भविष्य में डा. लोहिया का समग्र मूल्यांकन हो सकेगा। दो साल बाद जब उनकी जन्मशती पड़ेगी तो नई पीढ़ी नए सिरे से लोहिया को जानेगी और उनकी समग्र रचनाओं के आधार पर इतिहास में उनको सही जगह मिलेगी।
(साभार याहू)

Wednesday, March 19, 2008

होली

जिस दिन जिसकी लालसा ने
मनवांछित तृप्ति पा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

भूख से भैराते भिखमंगे ने
जिस दिन भरपेट रोटी खा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

विरह वेदना से व्याकुल विरही ने
जिस दिन प्रिय की झलक पा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

वर्षों से कलम घिसते कवि ने
जिस दिन संपादक की कृपा हथिया ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली

Saturday, March 15, 2008

ऐसे तो उच्च शिक्षा में मिल चुकी मंजिल

राजकेश्वर सिंह

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम आने वाले वर्षो में उच्च शिक्षा की तस्वीर बदल देने के जो भी सब्जबाग दिखा रहे हों, लेकिन जमीनी तौर पर चीजें उतनी ठोस दिखती नहीं हैं। दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले हमारे पास तो पीएचडीधारकों तक की बहुत बड़ी कमी है। वैज्ञानिक शोध के मामले में हम कहीं ठहरते ही नहीं। बावजूद इसके शोध की जरूरत के हिसाब से सरकार धन नहीं दे पा रही। संसद की एक समिति भी हैरान है कि आखिर सुधारों पर अमल होगा तो कैसे?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबंधित मानव संसाधन विकास मंत्रालय की प्राक्कलन समिति की बीते दिनों संसद में पेश रिपोर्ट काबिलेगौर है। जान सकते हैं कि आजादी के 60 साल बाद भी सालभर में हमारे यहां सिर्फ पांच हजार लोग पीएचडी करके तैयार होते हैं। जबकि भारत से बाद में आजाद हुए पड़ोसी देश चीन में सालाना 35 हजार और अमेरिका में हर साल 25 हजार लोग पीएचडी करते हैं। इसी तरह 2005 में भारत के पास कुल 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452, अमेरिका के पास 45,111 और जापान के पास 25,145 पेटेंट थे।

बात इतनी ही नहीं है। अकेले अमेरिका पूरे विश्व के 32 प्रतिशत शोधपत्र प्रकाशित करता है। इस मामले में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.5 प्रतिशत है। शोध को बढ़ावा देने के उपाय सुझाने के लिए सरकार की ओर से गठित प्रो. एमएम शर्मा समिति ने चालू वित्तीय वर्ष में 600 करोड़ रुपये के प्रावधान की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने दिए हैं सिर्फ 205 करोड़। यह स्थिति तब है, जब यूजीसी ने प्रो. शर्मा की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वह यह समझ पाने में नाकाम है कि बुनियादी ढांचे और मानव संसाधनों के अभाव में यूजीसी वैज्ञानिक अनुसंधानों में कैसे सुधार ला पाएगा? समिति ने यूजीसी से वित्तपोषित विश्वविद्यालयों में शोध की बहुत कम संख्या और उसकी गुणवत्ता को लेकर भी गहरा दुख जताया है।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही समिति ने वैज्ञानिक अनुसंधानों में सुधार के लिए सरकार से अगले वित्तीय वर्ष में हर स्थिति में 600 करोड़ रुपये का प्रावधान करने की ठोस सिफारिश की है। यह भी कहा है कि जरूरी हो तो लागत वृद्धि के मद्देनजर आवंटन को और भी बढ़ाया जाए।

यूजीसी बोर्ड में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के अलावा दस सदस्य होते हैं। इनमें सचिव (शिक्षा) व सचिव (व्यय) भी शामिल हैं। समिति तब दंग रह गई, जब उसे पता चला कि सचिव (व्यय) ने 2005 से 2007 के बीच आयोग की एक भी बैठक में शिरकत ही नहीं की।

(साभार याहू)

Wednesday, March 12, 2008

कब्ज़

कभी आपने सुना है ,
कब्ज़ के बारे में,
कुछ लोग इसे बीमारी कहते हैं,
यह भी कहा जाता है कि यह बीमारी
अमीरों की बीमारी है,
जी हां अमीरों की भीमारी
बीमारी भी अमीर और ग़रीब दोनों होती हैं,
यह भी भेद करती हैं,
ग़रीबों को कभी कब्ज़ नहीं होता,
गरीबों को दस्त लगते हैं।
कब्ज़ में कुछ खा नहीं सकते हैं,
पेट हमेशा भरा सा लगता है,
सोचिए अगर ग़रीब को कब्ज़ हो जाए
तो क्या मज़ा आए,
उसे हमेशा पेट भरा लगेगा,
कुछ खाने का दिल नहीं करेगा,
इससे यह फायदा होगा
कि वो आसानी से दो तीन दिन
भूखा रह सकता है,
उसे उपवास नहीं करना पड़ेगा,
क्योंकि पेट तो भरा हुआ रहेगा,
मगर अफसोस
ग़रीबों को कब्ज़ नहीं होता
ग़रीबों को तो दस्त लगते हैं।

पंकज रामेन्दू मानव

Friday, March 7, 2008

हे नारी !




प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
मीठी सी झिड़की हो, प्यार हो,
भावनाओं में लिपटी फटकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

प्रसव वेदना सहती ममता हो
विरह वेदना सहती ब्याहता हो,
सरस्वती, लक्ष्मी भी तुम हो
तुम ही काली का अवतार हो,
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

कैकयी हो, कौशल्या हो,
मंथरा भी तुम, तुम ही अहिल्या हो.
वृक्षों से लिपटी बेल हो,
कहीं सख़्त, सघन देवदार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

सति तुम ही, सावित्री तुम हो
जीवन लिखने वाली कवियत्री हो,
दोहा, छंद , अलंकार तुम ही
तुम ही मंगल सुविचार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

नदी हो तुम कलकल बहती,
धरती हो तुम हरियाली देती,
जल भी तुम हो, हल भी तुम हो,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जीवन का पर्याय हो तुम
आंगन, कुटी, छबाय हो तुम
यत्र तुम ही, तत्र तुम ही,
तुम ही सर्वत्र हो
ईश्वर की पवित्र पुकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

गेंहू तुम हो, धानी तुम ही
तुम मीठा सा पानी हो,
जब भी सुनते अच्छी लगती
ऐसी एक कहानी हो,
कविता में शब्दों सी गिरती
एक अविरल धार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जन्म दिया तुम ही ने सबको
तुम ही ने तो पाला है
पहला सबक लेते हैं जिससे
वो तेरी ही पाठशाला है
एक पंक्ति में,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

पंकज रामेन्दू मानव

"अपना क्या जाता है "।

आजकल मैं रिसर्च कर रहा हूं। रिसर्च का मतलब तो आप सभी लोग जानते होंगे। जब किसी विषय पर दोबारा खोज की जाती है तो वह रिसर्च कहलाती है। जैसे आप रास्ते से गु़ज़र रहे हों, कोई सुन्दर कन्या आप को दिख जाती है, आप को दोबारा से उसकी सुंदरता को आंकना ही रिसर्च हो। लेकिन मेरा उद्देश्य आप को शोध के विषय में जानकारी देना नहीं है, वो तो बात निकली तो दूर तलक जा पहुंची। तो मै क्या कह रहा था, हां रिसर्च, मैं आजकल एक रिसर्च कर रहा हूं औऱ इस शोध से मुझे जो बोध हुआ है उससे मैं काफी हैरत में हूं औऱ मेरी दिली तमन्ना थी कि आप भी मेरी हैरानी में शामिल हों। दरअसल मैं काफी दिनों से सोच रहा था कि इस दुनिया ने जितनी तरक्की की क्या उतनी काफी थी या उससे भी बेहतर कुछ हो सकता था औऱ अगर हो सकता था तो क्यों नही हुआ।
फिर भारत को लेकर भी एक सवाल उभरा, अब भाई मैं भारत का रहने वाला हूं तो मेरा अपने देश के लिए भी तो कोई दायित्व बनता है कि नहीं, जिस देश में जन्म लिया उसके लिए कुछ कर तो पाते नहीं हैं तो कम से कम सोच तो सकते हैं, वैसे भी भारत में ज्यादातर लोगों का अधिकतर समय दो ही बातों में व्यतीत होता है- सोच औऱ शौच। खैर हम विषय से ना भटके, हां तो भारत को लेकर प्रश्न यह उभरा कि, क्या कारण हैं कि हम विकास को लेकर इतने शील बने हूए हैं ?
अब दिमाग में सवाल रूपी खुजली उठी है तो खुजाने के लिए जवाब रूपी नाखून की आवश्यकता भी होगी, यही सोचकर मैं शोध करने पर मजबूर हुआ और इस नतीजे पर पहुंचा कि दुनिया की तमाम बड़ी घटनाओं औऱ विकास में बाधक महज़ एक वाक्य की मानसिकता है। जिसके कारण समस्याएं खड़ी हुई हैं। यह एक वाक्य कई प्रकार की परेशानियों की मूल जड़ है। यह वाक्य है "अपना क्या जाता है "।
आप खुद ही देखिए, बिजली का एक तार गया हुआ है औऱ नज़र दौड़ाओ तो उस तार में उलझे हुए कई तार दिख जाएंगे। अरे व्यवस्था है भई, मुफ्त बिजली घर पहुंचाने के लिए। बैठे ड्राइंगरूम में हैं लेकिन बाथरूम का बल्ब औऱ बेडरूम का पंखा भी अपनी कर्तव्यपरायणता निभाता रहता है औऱ क्यों न निभाए मालिक उसके लिए पैसे देते हैं, (कब देते हैं, कहां देते हैं. किसे देते हैं, औऱ कितना देते हैं, यह मेरा विषय नहीं है)। फिर देश पर बिजली संकट गहराए तो गहराए, अपना क्या जाता है।
पानी नल में आ रहा है नाली में जा रहा है, हम क्यों उसे नाली में जाने से रोकें ? हमारे यहां तो कहा भी गया है,रमता जोगी, बहता पानी इनके मन की किसने जाती। अब भाई पानी की नाली में जाने की उमंग है तो जाए, अपना क्या जाता है।
सड़क पर जा रहे हैं रास्ते में प्रेशर बन गया तो क्या करें, नहीं कर सकते बर्दाश्त फिर खुले वातावरण का मजा ही कुछ औऱ है। पान खा रहे हैं, अब क्या मुंह में थूक भरे घुमते रहें आखिर मुंह की भी कुछ महिमा है तो भैया मुंह की महिमा को बनाए रखने के लिए दीवारों, सड़कों को रंगना भी ज़रूरी है बाद में सफाई विभाग जाने उनका काम जाने आखिर हमारे पैसों पर पल रहे हैं वो सोचें इस विषय में अपना क्या जाता है।
दोस्त का फोन आया लगे है बतियाने,एक घंटे या इससे ऊपर बात हुई,जिसमें बीच बीच में कम से कम 30 बार, और सुनाओ, औऱ बताओ जैसे वाक्यांश का उच्चारण करके तल्लीनता का प्रदर्शन भी हुआ। अरे यार ऐसे ही तो बात आगे बढ़ेगी, बिल भी तो मित्र का ही बढ़ेगा अपना क्या जाता है।
कई बार तो मैं सोचता हूं कि हिटलर ने हज़ारों लोगों को गैस चैंबर में ठूंस दिया था, उसके पीछे भी हिटलर की यही मानसिकता रही होगी, मरे तो मरे, अपना क्या जाता है।
मुगलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो जयचंद ने सोचा होगा मैं क्यों किसी का साथ दूं जिसको लड़ना हो लड़े मरे अपना क्या जाता है।
अंग्रेज दो सौ सालों तक राज कर गए, हमारे राजा धीरे धीरे गुलाम बनते गए, सबने यही सोचा होगा कि बगल वाला जान वो बनेगा गुलाम अपना क्या जाता है।
देश आज़ाद हो गया, टुकड़ों में बंट भी गया हम इंसान से हिंदू-मुस्लिम बन बनकर मरे जा रहे हैं। एक कौम और है, वो है सियासतदारों की कौम, वो सोचती है कि और लड़े अच्छा है मरे, अपना क्या जाता है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान पर दादागिरी की और फिर ईराक पहुंच गया, सबको निपटा रहा है, सब तमाशा देख रहे हैं और सभी सोच रहे हैं कि भैया अपना क्या जाता है।
आजकल एक शब्द बहुत चलन में है एनकाउंटर, हिंदी मे इसे मुठभेड़ कहते हैं, वैसे पुलिसवाले जब इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो एक हाथ में बंदूक की मुठ होती है और सामने एक भेड़ होती है। एक आदमी के मरने की खबर छपती है, मरनेवाला आतंकवादी या वगैरह-वगैरह बताया जाता है, पड़ौसी सोचते हैं कि बरसों से बगल में रह रहा था तब तो कभी महसूस नहीं हुआ, अब पुलिसवाले कहते हैं तो..... पुलिस सोचती है कि भई आतंक के साये में जीने वाले को आतंकवादी बनाने में समय कितना लगता है और फिर सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें आखिर अपना क्या जाता है।
क्रिकेटर से लेकर रूलिंग पार्टी को चलायमान रखने वाले सपोर्टर तक सभी की यही सोच बन चुकी है, चाहे देश मैच हारे या सत्ता की तलवार से जनता का सर कलम हो हमें कुछ नहीं सोचना है,हमें कुछ नहीं करना है आखिर अपना क्या जाता है।
आपको क्या लगता है ? मेरी शोध के बारे में आपके क्या विचार हैं ? अब आप विचार बनाएं या ना बनाएं मुझे जो कहना था सो कह दिया, सुन ले तो अच्छी बात नहीं तो अपना क्या जाता है।

Tuesday, March 4, 2008

कौन चले इस मार्ग पर



पंकज रामेन्दू

भारत में हर क्रांतिकारी और समाज सुधारक के नाम से एक मार्ग बना दिया जाता है, फिर यह मार्ग बस वालों के लिए एक स्टॉप, आम जनात के लिए एक रास्ता और हज़ारों लाखों के लिए गुज़रने का एक ज़रिया बन कर रह जाता है। महज़ एक रास्ता जिसे, जिसके नाम पर रखा गया है ना उसे किसी को वास्ता होता है ना हमारी राजनीति चाहती हबै कि कोई उससे वास्ता रखे ।
हल्ला बोल.. फिल्म में एक नुक्कड़ नाटक के माद्यम से अवाम को जगाने की कोशिश को दिखाया गया। मैं यह फिल्म देख कर निकला, गाड़ी मैं बैठा, गाड़ी कई रास्तों से गुज़रती हुई सफदर हाशमी मार्ग से निकली, सफदर हाशमी मार्ग मंडी हाउस के पास से निकलता हुआ एक रास्ता है। रास्ता इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां से सभी गुज़रते हैं, कुछ को अपना काम रहता है, कुछ यूंही तफरीह करते रहते हैं. फिल्म की स्क्रिप्ट दिमाग में चल रही थी जैसे ही इस मार्ग से निकला तो एकदम से सफदर हाशमी की याद ताजा हो गई। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं कभी उनसे मिल नहीं सका, उनके बारे में जो भी मालूम चला वो लिखे-पढ़े से ही जान पाया था। नुक्कड़ नाटक के माध्यम से सफदर ने जो क्रांति पैदा की थी, उसकी वो लपट इतनी तेज थी कि वो तात्कालीन राजनीति को झुलसाने लगी थी और यही कारण रहा कि सफदर राजनीतिक गोली का शिकार बन गए। उनकी मौत के पश्चात उनके नाम से एक मार्ग बना दिया गया। अब यह मार्ग एक सार्वजनिक मार्ग है जिस पर से गुजरने वालों में से अधिकांश को यह भी नहीं मालूम कि सफदर आखिर थे कौन ?
सफदर की जलाई हुई आग काफी तीखी थी इसलिए उसे बुझाने के लिए सांत्वना का मार्ग बना दिया गया है। लेकिन कई ऐसे भी लोग है जो लगातार ऐसा काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हे भरोसे के शब्द भी नहीं मिलते हैं । स्कूल दिनों में भोपाल में नुक्कड़ नाटक हमारा मुख्य शगल हुआ करता था, इस नाटक की सर्वेसर्वा पाखी दीदी हुआ करती थी। वो कहां से आती थी हम नही जानते थे, बस वो जब भी आती तो हमेशा हमारे मोहल्ले से लगी झुग्गी बस्ती के बच्चों को इकट्ठा करती थी और नुक्कड़ नाटक करवाया करती थी। उनके नाटकों का कई बार मुहल्ले में विरोध होता था, मोहल्लेवाले का विरोध इस बात को लेकर रहता था कि पाखी दीदी झुग्गी वाले बच्चों और मोहल्ले के दूसरे बच्चों को नाटक में हिस्सा दिलवाती हैं और उन्हें इस बात का डर रहता था कि इससे बमारे बच्चे बिगड़ जाएंगे। बाद में पता नहीं दीदी कहां चली गई मैं भी बड़ा हो गया और रोज़ी रोटी ने दिल्ली धकेल दिया। लेकिन आज सोचता हूं कि पाखी दीदी का क्या स्वार्थ था ? वो तो एक अच्छा ही काम कर रही थी। यह सोचते सोचते बचपन में दिमाग में पैदा हुई एक उलझन ताज़ा हो जाती है, बचपन में जब हमें ऐसे तथाकथित बच्चों के साथ खेलने से रोका जाता था तो हमेशा सोचता रहता था कि आखिर यह बिगड़ा होता क्या है ?
खैर पाखी दीदी का पता नही है लेकिन सफदर हाशमी मार्ग से गुज़रना हो जाता है, सफदर हाशमी मार्ग जैसे ही भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में एक प्रचलित रोड ज़रूर होती है, इस रोड का नाम है एम.जी रोड। महात्मा गांधी को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है, जो नहीं भी जानता ता उसे मुन्ना भाई की गाधीगिरी ने बता दिया था कि गांधी जी क्या चीज़ थे। लेकिन इन जानने वालों में बहुत से लोग यह नही जानते कि यह एम.जी रोड दरअसल महात्मा गांधी मार्ग है। दिल्ली में ऐसे ही एक रोड और है जी.बी रोड, वैसे तो दिल्ली में रहने वाले और यहां घूमने आने वाले इस रोड को दिल्ली के रेड लाइट एरिये के नाम से जानते हैं। मेरी पहचान वालों में से कई ऐसे भी है जो जब में दिल्ली से जाता हूं तो यह ज़रूर पूछते हैं कि जी.बी रोड घूमा कि नहीं। इस पूछ के साथ उनके चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान भी दौड़ जाती है।
एक दिन मैं भीपाल के अपने एक मित्र जो कि इश रोड के मेरे अनुभव जानने के लिए काफी आतुर थे, से पूछ बैठा, यार तुम्हे मालूम है कि जीबी रोड का क्या मतलब है ? मेरे मित्र ने काफी दार्शनिक अंदाज़ में मुझसे कहा था कि रेज लाईट एरियों का क्या नाम ? जब मैंने उनसे कहा कि इस रोड का नाम गोविन्द बल्लभ मार्ग है तो वो नाम को लेकर बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं हुए, अलबत्ता वो मुझसे यह ज़रूर पूछ बैठे, तो क्या हुआ ? मुझे चुप रहने के अलावा कोई और जवाब नहीं सूझा ।
महात्मा गांधी का एम.जी रोड में, गोविन्द बल्लभ मार्म का जीबी रोड में तब्दीलल होना हमें यह बता देता है कि चाहे सफदर हाशमी हो या सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह हो या गौतम बुद्ध यह सिर्फ एक मार्ग के नाम है.. भोपाल में दुष्यंत कुमार मार्ग से गुज़रता हूं तो यह बात ध्यान आती है.. हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.. मेरे सीने में नही. तेरे सीने में सही... हो कहीं भी आग जलनी चाहिए। दरअसल दूसरे के सीने में आग जलने की अपेक्षा रखने वाले इस मार्ग से गुज़र तो सकते हैं ... लेकिन इस पर चल नहीं सकते हैं

Saturday, March 1, 2008

ब्लाग में होती नंगाई

पंकज रामेन्दू


कहावत बहुत पुरानी है मगर कभी इसका असर कम नहीे हुआ है, हमाम में सभी नंगे होते हैं, और जब सब नंगे हों तो दूसरे को कम या ज़्यादा नहीं आंका जा सकता है। आज कल ब्लागों के बीच जो वाक् और युद्ध और शक्ति प्रदर्शन चल रहा है। वो हमाम में बैठे एक नंगे के दूसरे के नंगत्व पर हंसने जैसा हो रहा है। हिंदी लेखकों और कवियों हमेशा से बेचारे रहे, हर बार लिखी हुई रचना का वापस आ जाना, उसमें सुधार की सलाह मिलना, और कलम घिसते-घिसते हाथों से तक़दीर की लकीर का मिट जाना एक हिंदी रचनाकार के लिए नियति रही है। हिंदी रचनाकार जब महान होता है तो हर महान की तरह उसकी ज़बान में भी यह दर्द आ ही जाता है कि फलां प्रकाशक ने मुझे भगाया था, फलां पत्रिका औऱ अखबार में मेरी रचनांए नहीं छपी। हर रचनाकार की रचना को अच्छा ना बताकर वापस करने की प्रथा रही है, लेकिन जब वो बड़ा हो जाता है तो उसकी वो ही लौटी हुई रचना बड़े मजे से छापी जाती है और चाव से साथ पड़ी जाती है। पहल हर समय यह प्रश्न बना रहता था कि ऐसा क्यों. क्या कारण है कि जो रचना पहले वापस आ गई वो दोबारा बेहतर से बेहतरीन हो जाती है। दरअसल हिंदी साहित्य में केकड़े पलते हैं, जो किसी भी दूसरे केकड़े को आगे बढ़ता हुआ देख उसकी टांग खींच लेते हैं।
हिंदी साहित्य में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी रचनाकार को आसानी से मिल गया हो, सभी साहित्यकारों ने उसकी मदद की है, यही कारण है कि हिंदी के विकास की दुहाई देने वाले तमाम लोग खुद की इसकी रेड़ मारते रहते हैं। गिद्ध के समान हमेशा सब कुछ झपट लेने की मानसिकता हमारे तथाकथित साहित्यकारों की एक विधा रही है।
अब इस काम को आग बढ़ाने का बीढ़ा उठाया है, इन ब्लागरों ने, यह भी वही हरकत कर रहे हैं जो हिंदी साहित्यकार करते हैं, जिसके कारण हिंदी साहित्य और तमाम खूबसूरत कृतियां लोगों तक आने से पहले ही मर जाती हैं। लगे हुए हैं एक दूसरे की जूतमपैजार करने में। सब एक दूसरे को गरिया कर अपनी लकीर बड़ी करने में लगे हुए हैं, इन सभी लोगों का एक ही सिद्दांत हो चुका है, मेरी साड़ी से तेरी साड़ी सफेद कैसे।
लेकिन इन तमाम पहलुओं में एक बात पर गौर करना सभी लोग भूल रहे हैं, या यूं कहे कि गुस्से में सभी का ध्यान इस ओर नहीं गया है कि यह प्रचार का एक बाज़ारु तरीका भी हो सकता है। अभी कुछ दिनों पहले सराय में ब्लागरों की मीटिंग हुई थी, मैं भी वहां पहुंचा था, वहां कोई सज्जन थे( नाम मुझे याद नहीं आ रहा है क्योंकि मैें उनसे पहली बार ही मिला था और चेहरे और नाम याद रखने में मेरी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर है) उन्होने कहा था कि हमें ब्लाग में सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना होगा कि इसकी पाठक संख्या कैसे बढ़ती है, मीडिया वाले जहां भी अपनी नाक घुसेड़ेंगे वहां वो टी आर पी की ही गंध चाहते हैं, इसे कहा जाता है, बिल्ली की नज़र में छींछडे। तो वो ब्लागरों की संख्या बढ़ाने को लेकर काफी चिंतित थे, इस चिंता के पीछे का सच तो वो ज़्यादा बेहतर बता सकते हैं। इसके अलावा एक चीज़ और देखने को मिली थी कि जिस प्रकार किसी कविता गोष्ठी में अगर कोई नया कवि बगैर किसी का हाथ थामे पहुंच जाए , तो उसके साथ जैसा बर्ताव वरिष्ठ कवियों द्वारा किया जाता है, यानि जैसे ही वो अपनी कोई रचना प्रस्तुत करेगा तो कई वरिष्ठ चेहरों पर संतो वाली मुस्कान लहर जाती है, ऐसे ही कुछ लोग थे जिनके चेहरे पर वो संतो वाली मुस्कान थी। अविनाश जी को तो हमेशा से बहस में मज़ा आया है, उनकी कम्युनिस्ट विचार धारा उन्हे हमेशा से ऐसा करने पर मजबूर करती रहती है, तो वो तो बहस का भरपूर आनंद उठा रहे थे।
यह पूरी बात बताने के पीछे मंतव्य यही था कि अभी जो ब्लाग पर मारकुटाई चल रही है, वो महज एक प्रचार का तरीका भी हो सकता है, जिसे देशी भाषा में कह सकते हैं . तू मेरी खुजा,में तेरी खुजाता हूं।

लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अपने को होशियार और दूसरे को बेवकूफ समझना बुरे वक्त की निशानी होती है।

Friday, February 29, 2008

टी.वी. पर ट्राई मारने का है एक बार।



संजीव चौधरी

सात-आठ साल उम्र के दो बच्चे । एक के गले में लटका हुआ छोटा-सा पुराना
हारमोनियम और दूसरे के हाथ में एक डफ़ली । महानगर नयी दिल्ली का व्यस्ततम
इलाका कनॉट प्लेस इन दोनों बच्चों के कमाने-खाने की जगह। फुटपाथ और खुले
आसमान के अलावा जमा पूंजी के नाम पर और तीसरा उनके पास कुछ भी नहीं। उलझे
बाल, बुझे चेहरे और अलमस्त आंखों में सुलगते हुए सवाल महानगर की इलीट
सोसायटी से अनजान नहीं है । समाज में हाशिये पर रुके ये बच्चे इतने नादान
भी नहीं हैं कि हवा का रुख भी न भांप सके । माहौल और मौका देखकर कभी माता
की भेंट गाते हैं तो कभी दुत्कार मिलने पर सिर खुजाने के अलावा और दूसरा
चारा नहीं रहता । कभी हल्की सी रोमांटिक आवारगी में 'ये इश्क हाय' गाते
हैं कभी 'सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा' । जनपथ बाज़ार पर पटरी
के किनारे चिंहुकते इन दोनों बच्चों से मुखातिब हुआ -

क्या नाम है?
असली नाम तो कुछ और है लेकिन मुझे रितिक कहते हैं और मेरे इस दोस्त को
अभिषेक । आपको क्या काम है हमसे, गाना सुनोगे?

नहीं, कहां रहते हो?
यूं तो हम पहाड़गंज के हैं । यहां और कई ऐसे बच्चे हैं, जो जमनापार,
पहाड़ी धीरज और कुचापातीराम से आते हैं। अपुन कनॉट प्लेस में रहते हैं,
अपुन का दिल यहीं लगता है।

मां-बाप क्या करते हैं?
नहीं मालूम।

मां-बाप का क्या नाम है?
होगा कुछ, वो भी नहीं मालूम।

सिंगर कैसे बने?
पैसा कमाने के लिए। अभी इधर दिल्ली में हैं। टी.वी. पर ट्राई मारने का
है एक बार। बाम्बे जाने का मूड है।

मां की याद नहैं आती?
नहीं।एक बाई है बाई। वे जी.बी. रोड एरिया है न, वहीं है। उसी को मां बोलते हैं।

गाकर कितना कमा लेते हो?
कुछ पक्का नहीं। इधर धंधा बहुत डल है। बीस-तीस की पॉकेट हो जाती है।

कभी स्कूल गये हो?
क्यों जाएं स्कूल, वहां कोई पैसे मिलते हैं।

कहां-कहां गाते हो?
कभी सफेद बस में, कभी लाल बस में, कभी नीली बस में। कई बार रेल में भी
गाते हैं। शाम को इधर जनपथ पर गाते हैं। इधर का छोकरी बहुत अच्छा है।
छोकरा लोग पैसा नहीं देता। कुछ और पूछना है आपको? कौन हैं आप?

सबसे ज्यादा गाना कौन सा गाना गाते हो?
बस दीवानगी है, ओम शान्ति ओम।

ब्लाग मेरे बाप की


पंकज रामेन्दू

आखिरकार ब्लागरों ने अपनी औकात दिखाना शुरु कर दिया, लगातार छप रही इन तकरीरो को देख कर एक कहानी याद आती है, एक सियार शहर में गया, शहरी लोग उसे भगाने लगते हैं, वो छिपते-छिपते एक रंग के टब में गिर जाता है और उसका रंग नीला हो जाता है। उसके रंग को देख कर सब लोग अचंभित रह जाते हैं और उसकी देख रेख होने लगती है, एक दिन अचानक सियार हू हू करते हैं तो वो भी उनके साथ ताल में ताल मिलाने लगता है।
ब्ललागर भी अब सियारों की तरह हू हू करने में लगे हुए हैं, सब को दूसरे की दाद में खुजाने में आनंद आ रहा है, भड़ास हो या मोहल्ला। सभी को दूसरे की छीछालेदर करने में आनंद आ रहा है, मोहल्ला कौन होता है यह कहने वाला की भड़ास बंद होना चाहिए, भड़ास कौन होता है मोहल्ला को अनुशासन सिखाने वाला। अपने आप को क्या यह ब्ललॉग का बाप मानने लगे हैं या ब्ललॉग इन्होंने खरीद लिया है।
जब ब्लागिंग शुऱू हुई थी, तो इसका उद्देश्य हिंदी को आगे बढ़ाने और एक दूसरे के भावनाओं को बांटने का था। बहुत अच्छी पहल थी, जिसने इन्हे शुरू किया था वो उस छोटे बच्चे के समान थे जो अपने तन पर कपड़े इसलिए नहीं रखना चाहता है क्योंकि उसे कपड़े एक बनावटी आवरण लगते हैं। उसको प्राकृतिक रूप से रहने में आनंद आता है, उसके नंगेपन में मासूमियत होती है। यह तथाकथित पत्रकारों ने इसमें अपनी नाक घुसेड़ कर इसमे होने वाले नंगेपन को अश्लीलता की सीमा पर ला दिया है.
ब्लाग ब्लाग ना रहकर अखाड़ा बन गया है, सब लाल लंगोटी पहने तैयार है, और एक दूसरे की लंगोटी उतारने का प्रयास करने में लगे हए हैं।
दरअसल यह सारे के सारे किसी विषय पर चरचा नहीं करना चाहते यह बहस करना चाहते हैं, यह ग़लतफहमी पाले बैठे हैं कि ब्लाग की सत्ता इनके हाथों में है, यह जैसे चाहे नचा लेंगे। कुछ लोगों को अतिक्रमण करने की आदत होती है, वो चाहे रेल्वे की बर्थ पर बैठे, टेलीफोन की लाइन में खड़े हो, या कुछ लिखे पढ़े, हर जगह वो पिछवाड़ा टिका कर पांव पसारने पर विश्वास रखते हैं।
लेकिन यह भूल गए हैं कि १२ घंटे बाद तो सूरज भी अस्त हो जाता है।
इसलिए भैया अगर आप लोग यह सोच कर बैठे हो कि जिस तरह मीडिया में फन फैलाए बैठे हो और किसी दूसरे को अंदर नहीं आने देने चाहते हो, खड़ी भाषा में कहें तो, जो आप लोग अगले को चूतिया समझने की भूल कर रहे हो ना, तो यह भूल जाओ क्योंकि

हर एक चीज़ का होता है, एक ना एक दिन अंत
बारहों महीने नहीं रहता बंसत

Wednesday, February 27, 2008

मर्जी एक्सप्रेस





अभय मिश्र
अशोक कुमार की एक फिल्म का गाना याद आ रहा है। बोल थे- रेलगाड़ी रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक, बीच वाले स्टेशन बोले रुक रुक रुक रुक। बचपन में यह गाना गाते हुए भाई बहनों के साथ रेलगाड़ी का खेल खेलना हमारा प्रिय शगल होता था। खेलते वक्त बीच में गाड़ी रोक कर घर के अन्य सदस्य खुद को गाड़ी में बैठाने का आग्रह करते थे और हम उन्हें अपनी रेल में बिठा कर नानी के य़हां छोड़ देने का उपक्रम करते .
बचपन में खेले जाने वाले इस खेल की याद हाल में एक खबर से आई। एक चैनल ने दिखाया कि बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में लोग पटरियों पर खड़े बीस रुपये का नोट हाथ में लेकर हिलाते हैं। ट्रेन आती है और रुक जाती है. ड्राइवर बीस रुपये हाथ में लेता है और लोग आराम से ट्रेन में चढ़ जाते हैं। यह लोगों की रेल ड्राइवरों के साथ मिल कर बनाई हुई व्यवस्था है।
लोगों का कहना है कि रेल मंत्री भी तो यही चाहते हैं कि सबको रेलवे की सुविधा मिले। रेल आपकी अपनी संपत्ति है- इस सूत्र को पूरी तरह अपने में समाहित करने इन गांव वालों को स्टेशन जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. वे आराम से घर के पास ही सुविधा प्राप्त कर लेते हैं, बिना इस बात की चिंता किए कि ट्रेन के इस तरह बार-बार रोके जाने से दूसरे दूसरे लोगेों को कितनी असुविधा और रेलवे को राजस्व का कितना नुकसान होता होगा। उन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पडता कि उस ट्रेन में बैठा कोई बेटा शायद अपने बीमार बूढे मां-बाप को देखने जा रहा होगा और जितनी बार गाड़ी रुकती होगी उतनी बार उसके मन में हज़ार आशंकाएं उठ खड़ी होती होंगी. गाड़ी में जा रही किसी बारात को देर हो रही होगी या नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहे किसी बेरोज़गार को समय पर न पहुंच पाने का डर सता रहा होगा. यही नही, यह सुविधा उठाने वालों को यह अहसास ही नहीं रहता होगा कि उनकी वजह से कोई बीमार समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाया और समय पर कारखाने न पहुंच पाने के कारण किसी की आधे दिन की दिहाड़ी काट ली गई। ऐसे कितने अफसानों के साथ एक ट्रेन के भीतर हज़ारों लोग यात्रा करते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली हो या बघेलखंड के पिछड़े इलाके में बसा मेरा गांव, सार्वजनिक सुविधाओं का जितना दुरुपयोग हम करते हैं उसकी नज़ीर कही और देखने को नहीं मिलती । पिछले दिनों लंबे अंतराल के बाद गांव जाने का मौका मिला। रीवा से गांव की दूरी मात्र नब्बे किलोमीटर है। लेकिन यह सफर तय करने में सात या आठ घंटे तक का समय लगता है। क्योंकि हर मुसाफिर अपने घर के समाने बस रुकवाना चाहता है। थोड़ी थोड़ी दूरी पर खड़े रहते है, एक जगह खड़ा रहने में मानों उनका अहं आड़े आता हो। कोई ब्राह्मण या ठाकुर किसी दलित के साथ खड़े होकर कैसे बस का इंतज़ार कर सकता है ।
बहरहाल, बस धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी कि चुरहट पार करते ही फिर रुक गई। बारह झांक कर हक़ीकत जानने की कोशिश की, बस किसी नई-नवेली दुल्हन के लिए रुकवाई गई थी, और वह दूर से लंबा घूंघट और चमकीलीी गुलाबी साड़ी में लिपटी धीरे-धीरे बड़बड़ाता हुआ गाड़ी को रोके रहा और दुल्हन का इंतज़ार करता रहा. उसके पास कोई चारा नहीं था, क्योंकि उसे रोज़ इसी रास्ते निलना है और यहां बसों में तोड़-फोड़ मारपीट रोज़ की बात है।
इस तरह ट्रेन-बसों को रोकने की प्रवृत्ति सिर्फ बिहार में नहीं है। खंडवा-इंदौर रेल लाइन पर दूध वाले ड्राइवर को थोड़े से दूध के बदले में कहीं भी रुकने पर मजबूर कर देते हैं। नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर रेलवे का एक विज्ञापन आता था- हम बेहतर इसे बनाएं और इसका ळाभ उठाएँ, रेल रेल। हमने इसे बेहतर तो पता नहीं कितना बनाया, लेकिन इसका मनमुताबिक लाभ ज़रूर उठा रहे हैं।

Monday, February 25, 2008

जय जवान, जय किसान


जय जवान, जय किसान, यह नारा भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादूर शास्त्री ने दिया था, यह बात हम सब को मालूम है, इस नारे से प्रभावित होकर उपकार फिल्म का निर्माण हूआ यह भी हम लोग जानते हैं। उपकार फिल्म का गाना मेरे देश की धऱती सोना उगले-उगले हीरे मोती, हम सभी ने सुना है (वैसे भी हर स्वतंत्रता दिवस पर यह गीत कही ना कहीं सुनाई दे ही जाता है।)। मेरे ख्याल से मेरी इस बात से किसी को गुरेज नहीं होगा।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री के नारे दिए जाने औऱ फिल्म निर्माण से अब तक काफी समय गुजर गया, देश ने काफी तरक्की भी कर ली, हर जगह मॉल भी खड़े हो गए, औऱ तो औऱ सेज़ की सेज बनाकर सरकार ने गहरी निंद्रा भी तान ली। इस पूरे बदलावीकरण में कुछ चीजें है जो हमारी परंपराओं के समान अडिग रही, औऱ ना पहले बदली औऱ नही अब बदली, हां बदतर ज़रूर होती गई। किसान आज भी मुंशी प्रेमचंद की पूस की रात का किरदार है जो अपने कुत्ते झबरा को छाती से चिपटाकर हाड़ तोड़ती सर्दी में गर्माहट लेता है, यह किसान कभी जवान नहीं हो पाया क्योंकि वक्त से पहले झुकती कमर ने इसे बचपन से सीधे बूढ़ापे ला पटका, हर जगह पराजय स्वीकारता किसान कभी जय किसान नहीं बन पाया।
कभी प्रकृति की मार सहता, कभी सूखा कभी बाढ़ सहता यह किसान इन त्रासदियों से उभर नहीं पाता है कि कोई नई मुसीबत उसके सामने दम साधे खड़ी रहती है।



सेज़ की सेज पर नंदीग्राम में कई लाशे सोई पड़ी है, तो विदर्भ में अपने पेट को घुटने से चिपकाकर अपनी भूख को मारता किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहा है। यहां प्रधानमंत्री भी आते है, औऱ मुख्यमंत्री भी दौरा करते हैं लेकिन इनके वादों की आभासीय मिठाई मुंह मीठा नहीं कड़वा कर जाती है। किसान इन मु्द्दो को सहन करने के बाद फिर उठने का प्रयास करने लगा तो हमारे देश के कर्णधारों को यह भी नागवार गुजरा औऱ वो गेंहू के मूल्य निर्धारण का निर्णय लेकर फिर किसान की कमर तोड़ने पर आमादा हो गए।
जिस देश का स्थान कृषि में सर्वोच्च रहा करता था, आज उस भारत में कृषि सरककर तीसरे स्थान पर आ गई है। बढ़ते शहरीकरण औऱ खेती में लगातार होते घाटे को देखते हुए किसान का मन भी अब खेती की ओऱ से खट्टा होने लगा है औऱ वो शहरों की तरफ आकर्षित हो रहा है, जो न सिर्फ उसके लिए बल्कि देश के लिए भी एक चिंतन का विषय है। आज का किसान अपनी दो बीघा ज़मीन को वापस पाने के लिए शहरों में संघर्ष करने नहीं पहुंच रहा है बल्कि उसका उचटा मन उसे यह करने पर मजबूर कर रह है। हमारे देश की शासन व्यवस्था जिसने कभी ज़मींदारी प्रथा औऱ सूदखोरी जैसी व्यवस्थाओं पर लगाम लगाने के लिए कदम उठाए थे, आज मदर इंडिया के सुख्खी लाला की तरह हर किसान का दो तिहाई अनाज छीन रही है औऱ बिरजू बना किसान आज भी सुख्खी लाला के बही को दुनिया की सबसे कठिन पढ़ाई समझे बैठा हुआ, एक बेबस की तरह उसे समझने का प्रयास कर रहा है।

Sunday, February 24, 2008

राहत की चाहत



कई बार ज़िंदगी में कुछ ऐसी घटनाए घट जाती हैं, जो हमें सोचने पर तो मजबूर करती ही हैं साथ ही साथ हमारी आत्मा को भी कचोट देती है। कुछ दिनों पहले मैं एक ऐसी महिला के दर्द से रूबरू हुआ, जिसने मुझे हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की रजाई में पड़े पैबंद दिखाए, यह वो व्यवस्था है जो हालातों की सर्दी में ठिठुरते आम लोगों को राहत देने का वादा तो करती है, लेकिन इसमें हुए दंबगदारी के छेद से गरीब और मजबूर जनता के हाड़ तक को कंपा देने वाली असंवेदशील सर्द हवा अंदर प्रवेश करती ही रहती है।
मै जिस महिला की बात कर रहा हूं वो अनिता नाम की एक मध्यमवर्ग की महिला है। एक ऐसा वर्ग जो अपने ज़िंदगी के कुंए में रोज़ हक़ीकत की बाल्टी उतारता है औऱ उसमें अपने सपने के पानी को देखने की कोशिश करता है। अनिता की मां भी है और पिता भी, यानि एक भरापूरा परिवार, जो एक दूसरे की मुस्कुराहटों पर जीवित है। अनिता एक कामकाजी महिला है, जो अपनी कमाई से अपने माता-पिता औऱ घर का खर्च चलाती है। मां बाप बूढ़े हो चुके है, इसलिए उनके सेहत को ध्यान में रखते हुए अनिती ने उनका मेडिकल इंश्योरेंस भी करवा रखा है। आखिर बुरा वक्त कह कर थोड़ी ना आता है। वो अपनी छोटी सी कमाई में से इस इंश्योंरेंस के पैसों को जमा करना कभी नहीं भूलती है।
एक दिन अनिता की मां को हल्का सा बुखार हो गया, उसकी मां को सर्दी-जुखाम कुछ दिनों से था, उसने सोचा शायद उसी के कारण बुखार हो गया होगा।
वो अपनी मां को लेकर पास के मैक्स नाम के निजी अस्पताल में पहुंची, डॉक्टरों ने बताया कि उसकी मां को मामूली सा वायरल इंफेक्शन है, एक दो दिन में ठीक हो जाएगा। एहतियात के तौर पर उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया । अनिता ने सोचा, किसी बात को जोखिम क्यों उठाया जाए और फिर मेडिकल इंश्योरेंस भी है, उसने अपनी मां को अस्पताल में भर्ती कर दिया, इलाज भी शुरू हो गया।
दो दिन की बीमारी दो महीने में तब्दील हो गई, वो डॉक्टर जो इसे एक मामूली बीमारी बता रहे थे, अब इसकी गंभीरता बयान करने लगे। पैसा लगातार खर्च हो रहा था। इंश्योरेंस कंपनी भी पैसा देने में नानुकुर करने लगी । डॉक्टर अपने अनुसार अनिता की मां के इलाज का बिल बना रहे थे, वैसे भी इंश्योरेंस कंपनी जिन अस्पतालों से समझौता करती हैं, वे दोनों मिल कर क्या करते हैं यह कभी ग्राहक को पता नहीं चल पाता है। उसे तो अंत में मालूम चलता है कि वो इतना लुट चुका है। एक दिन डॉक्टर ने आकर बताया कि उसकी मां को निमोनिया है वो भी ऐसा जो हज़ारों में किसी एक को होता है। अनिता कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी वो सिर्फ चुपचाप अपनी मां को देख रही थी, उसे अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था। दिन बीतते गए। एक दिन इंश्योरेंस कंपनी वालों ने आकर कहा कि हमारी योजना में इतना खर्च वहन करना नही है और पता नहीं उसे क्या समझा गए, उसे सिर्फ इतना समझ में आया कि पॉलिसी लेते वक्त उसे अंधेर में रखा गया, वो कुछ नहीं कर सकती थी। एक दिन डॉक्टरों ने कहा कि उसे एक नियत राशि जमा करनी होगी तभी आगे उसकी मां का इलाज हो सकता है अन्यथा वो अस्पताल खाली करे। सरिता डॉक्टरों के आगे गिड़गिड़ाई, रोई, लेकिन डॉक्टर ने एक नहीं सुनी, आखिर उन्होंने खैरातखाना तो खोल नहीं रखा था। एक दिन अनिता की मां को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया, अनिता इसके बात जी.बी पंत नामक सरकारी अस्पताल में गई। ये वो अस्पताल है, जिन्हे ऐसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ही जाना जाता है, और यह अस्पताल आम जनता के लिए ही बनाए गए हैं,। मगर अफसोस हमारे देश में आम नागरिक आमतौर पर मरने के लिए बना है, जीना तो उसके अधिकार में है ही नही। जिन अस्पतालों के विषय में कहा जाता है कि यहां गरीबों का इलाज किया जाता है, यह खैराती अस्पताल है वहां भी खैरात सिर्फ दंबगदारों के नसीब में ही है। आपके पास कितनी लंबी पहुंच है कितना जेब में माल है, यह बात निर्धारित करती है कि आप जीने के हकदार है कि नहीं । अनिता की मां इस बात को साबित करने में नाकामयाब रही और उसे किसी सरकारी अस्पताल में दाखिला नहीं मिला। अनिता ने लाख सिर पटके, कार्यालय दर कार्यालय, यहां तक कि मुख्यमंत्री के पास भी पहुंची, लेकिन आम जनता की आवाज़ में वो बुलंदी नहीं होती की वो किसी खास के कान में जूं को रेंगा सके, धीरे-धीरे अनिता की मां मरती गई, यह सब हमारी आंखो के सामने घटा। अनिता रोज़ अपनी मां को तड़पता देखती और बिलखते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती कि है ईश्वर मेरी मां को उठा ले, उसे मुक्ति दे दे, उसे जीने का कोई हक नहीं है क्योंकि वो एक आम इंसान है। एक दिन ईश्वर ने अनिता की सुन ली औऱ उसकी मां ने इलाज के अभाव में अंतिम हिचकी ली। यह बात सुन कर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला शायद किसी की आत्मा भी ना कचोटे, क्योंकि हमने अपनी संवेदनाओं, इंसानियत, मानवता को सरे बाज़ार नीलाम कर दिया है। फिर ऐसे आदमी के मरने पर क्या अफसोस करना जो कीड़ों मकोड़ों की तरह जी रहा है, भारत का हर आम नागरिक एक कीड़ा है, जो ना जीने का हक़दार है औऱ ना ही जिसे मौत भी मयस्सर है, उसे सिर्फ तड़प मिल सकती है, यह आम आदमी, उस चूसने वाले आम की तरह होता है जिसका रस का आनंद उठाया जाता है, और फिर उसे कूड़ा समझ कर फेंक दिया जाता है। अनिता की मां महज एक उदाहरण है जो हमारी दिन प्रति दिन खत्म होती संवेदना को बताती है, क्योंकि सरकार चाहे लाख वादे कर ले प्रशासन चाहे लाख दुरुस्त हो जाए लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इसे चलाने वाले हैं तो आखिर इंसान, जिनकी आंखे भौतिकता की चकाचौंध का कारण तड़पती मानवता को नहीं देख पा रही है। अगर देश के एक बड़े तबके को यूंही मरना है तो फिर उन्हें सीधे सीधे मरने देना चाहिए, यह अस्पतालों का झूठा दिखावा क्यों ? जो एक इंसान की जान भी लेता है औऱ दूसरे की हिम्मत को तोड़ भी देता है। क्या हमारे देश के नेता जिस जनता के सामने झोली फैलाए गद्दी की भीख मांगते रहते हैं, बाद में उसका जीवन उनके सामने बोझ बन जाता है ? हर साल स्वास्थ्य विभाग के लिए करोड़ो का बज़ट पास होता लेकिन आम जनता ऐसे ही इलाज के अभाव में मरती रहती है, तो आखिर यह पैसा जाता कहां है ? यह खैराती अस्पताल आखिर किसको खैरात बांट रहे हैं ? यह ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब कोई भी नहीं देना चाहता है।

Saturday, February 23, 2008

भूख



पंकज रामेन्दू मानव

जब घुटने से सिकुड़ा पेट दबाया जाता है
जब मुंह खोल कर हवा को खाया जाता है
जब रातें, रात भर करवट लेती है
जब सुबह देर से होती है
जब चांद में रोटी दिखती है
तब दिल में यह आवाज़ उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब गिद्ध मरने की राहें तकता है
जब कचरे में भी कुछ स्वादिष्ट दिखता है
जब कलम चलाने वाला बार-बार दाल-चावल लिखता है
जब एक वक्त की खातिर जिगर का टुकड़ा बिकता है
जब रातें सूरज पर भारी होती हैं
तब दिल से एक आवाज़ होती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब हांडी में चम्मच घुमाने का कौशल दिखलाया जाता है
जब चूल्हे की आंच से बच्चों का दिल बहलाया जाता है
जब मां बच्चों की कहानी सुना, फुसलाती है
जब सेहत की बातें बता ज़्यादा पानी पिलवाती है
जब रोटी की बातें ही आनंदित कर जाती हैं
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब पेट का आकार बड़ा सा लगता है
जब इंसान भगवान पर दोष मढ़ता है
जब भरी हुई थाली महबूबा लगती है
जब महबूबा सुंदर कम स्वादिष्ट ज़्यादा दिखती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब एक टुकड़ा ज़िंदगी पर भारी लगता है
जब तिल तिल कर जीना लाचारी लगता है
जब बातें रास नहीं आती
जब हंसना फनकारी लगता है
जब एक निवाले पर लड़ती भौंक सुनाई देती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

Thursday, February 21, 2008

बलात्कार के प्रकार



पंकज रामेन्दु मानव

मैं एक औरत हूं
मेरा रोज़ बलात्कार किया जाता है
बलात्कार सिर्फ वो नहीं है
जो अंग विच्छेदन पर हो

बलात्कार सिर्फ वो भी नही है
जब कपड़ों को तार तार करके कई लोग जानवरों के समान
मेरा मांस नोचते हैं
वो तो अपराध भी होता है
यह बात जानते हुए, अब मेरा बलात्कार
दूसरी तरह से किया जाता है
यह बलात्कार हर दिन होता है
भीड़ में होता है, समाज के सामने होता है
कई बार समाज खुद इसमें शरीक भी हो जाता है
इसमें मेरे कपड़े तार -तार नहीं होते
कई निगाहें रो़ज़ मुझे इस तरह घूरती हैं कि
वो कपड़ो को भेदती चली जाती हैं, और मैं सबके सामने
खुद को नंगा खड़ा पाती हूं
कई बार बातों से भी मेरी अस्मिता लूटी जाती है और
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढांकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
ऐसे ही न जाने कितने तरीकों से लुटती मैं रोज़ाना
इन्ही अपराधियों का सामना करती हूं
समाज के शरीफ की श्रेणी में रखे जाने वाले यह लोग
बात बात पर मेरे बदन के स्पर्श का लुत्फ लेते यह लोग
कभी अपराधी नहीं माने जाएगें
क्योंकि यह आपराधिक बलात्कार नहीं

Wednesday, February 20, 2008

जनतंत्र एक डैश है

सफ़हे पे दर्ज
दो ईस्वीसनों के बीच छोटी लकीर की तरह
जन और तंत्र के बीच का छोटी लकीर की तरह
पर आंख से एकदम ओझल
यह जनतंत्र
जन और तंत्र के बीच का
सिर्फ़ एक डैश ( - ) है
(जो समझो, उसके पहिये की कील है)
जिसे जनगण ने उस आदमीनुमा जंतु के हवाले कर दिया है
जो सियार और सांप के हाईब्रीड से
इंसानी मादा की कोख का इस्तेमाल कर पैदा हुआ है
और घुमा रहा है जनतंत्र का पहिया
लगातार उल्टा-पुल्टा, आगे के बजाय पीछे
पर भूख की जगह भाषा पर छिड़ी बहस में जुटे लोग
डैने ताने अपने को फुलाये बैठे हैं कि
उनका लोकतंत्र सरपट दौड़ रहा है
गंतव्य की ओर।
डैश पर टांगें फैलाये बैठा
पूरे तंत्र का तमाशागर यह जीव
जनता की बोटियों के खुराक पर
जिन्दा रहता है
लूटता है उनके वोटों को
घुस आता है सरकार की धमनियों में
वायरस बनकर और
डैश को लंबा करने की
हर मिनट
बहत्तर शातिर चालें चलता है ।

(सुशील कुमार की कविता)


(साभार कृत्या)

Tuesday, February 19, 2008

करो या मरो



जिस विषय पर मैं बात करने जा रहा हूं, यह विषय उतना ही गंभीर है जितना भारत-पाक के रिश्तों को लेकर हमारे नेता, कश्मीर मामले पर भारत-पाक राजनीति, विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए पाक-अमेरिका, और शादी को लेकर सैफ-करीना। जो विषय इतना गंभीर हो उसको मैं तो हल्के मे नहीं ले पाया, आप भी उसके बारे में गंभीर रूप से विचार कीजीयेगा। वैसे भी भारत का नागरिक विचार को अचार की तरह इस्तेमाल करता है, बनाता देर तक है, खाता कम-कम है।
विषय को जानने के लिए हमे आज़ादी की लड़ाई के दौर में जाना पड़ेगा, साहब हालत बहुत खराब थी, अंग्रेज मान ही नही रहे थे, हम कहे जा रहे थे चले जाओ, वो थे की अड़ियल मेहमान बने जा रहे थे। वो क्या कहते हैं- वो हमारे घर में कुछ इस तरह आए, जैसे किरायेदार मकानमालिक हो जाए। गांधी जी ने खूब समझाया, जब वो लोग नही माने तो गांधी जी ने गुस्से मे आकर कहा कि अब तो - करो या मरो की स्थिति है। तो साहब गांधी जी ने यह नारा दिया, लोगो ने इस पर अमल किया और लो भारत को आज़ादी भी मिल गई। लेकिन भाईसाब कई बार समय के साथ ऐसी बाते नुकसानदायक हो जाती है।
अब हमारे क्रिकेटर हैं उनके लिए आए दिन हर नई सीरिज़ में करो या मरो की स्थिति बनी रहती है। अच्छा वो लोग भी क्या करे, गांधी जी ने इतना अच्छा नारा दिया है वो बेचारा बने ये सही नही लगता, तो वो हमेशा करो या मरो की स्थिति बना देते हैं। इसे कहते हैं सच्चे गांधी भक्त।
अब हमारे देश के नेता है, इनकी अब इतनी औकात तो रही नही कि यह जीत सके, तो यह क्या करते हैं, यह भारत का पुराना फार्मूला यानि जुगाड़ तकनीकी के तहत भानुमति का कुनबा बना लेता है। लेकिन साहब परेशानी यहां पर भी वही है, आखिर कुछ तो बात हो जिसे लेकर हम कह सकें कि, हां भईया हम गांधी जी की नीतियों का अनुसरण कर रहे हैं। तो क्या होता है पार्टी के अंदर का एक नेता विदेश से कोई डील करता है, तो जूगाड़स्वरूप आई दूसरी पार्टी कहती है - हमारी नहीं सुन रहे हो तो मरो। तो एक पार्टी इस प्रकार संयुक्त रूप से गांधी के वाक्यों को दोहराती है (डील) करो या (नहीं मान रहे) मरो।
आप लोग यह बात तो जानते ही हैं कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, इस सदी की सबसे खास बात यह है कि इस सदी में कानून कोई नहीं तोड़ता (क्योंकि टूटे -फूटे को क्या तोड़ा जाए)। इस सदी में अपराध, भ्रष्टाचार और जो इस प्रकार के तमाम बाते गुजरे ज़माने में गलत मानी जाती थी, आज कल कानूनन कर दी गई हैं तो इससे क्या होता है गलत बातों में कमी आई है। अच्छा एक बात और इक्कीसवीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते हमने भले ही कितनी भी तरक्की कर ली हो, लेकिन मजाल है कि कोई गांधी जी की कही हूई बातों को भूल जाए, सवाल ही पैदा नहीं होता, आज भी अगर कोई ईमानदारी या सच्चाई जैसी फालतू की बातों का अनुसरण करता है, तो तुरंत यानि तत्काल प्रभाव से उसके सामने दोहराया जाता है- करो या मरो।यह करो या मरो आज के परिप्रेक्ष्य में उस कब्ज़ के मरीज के समान है जिसकी यही स्थिति है कि भैया- करो या मरो।आप लोग क्या सोच रहे हैं, सोचने में समय व्यतीत मत कीजीए- जल्दी से देश के लिए कुछ करिए, अन्यथा.........

Monday, February 18, 2008

नोएडा का महाघोटाला - भाग-2

द ग्रेट इंडिया प्लेस के नाम से मशहूर यह उत्तर भारत का सबसे बड़ा मॉल बताया जाता है जिसके दो फ्लोर पर दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों के शोरुम हैं। तीसरे फ्लोर पर निर्माण कार्य चल रहा है जो लगभग पूरा हो चुका है। द ग्रेट इंडिया प्लेस को पूरी मस्ती के साथ देखने के लिए एक दिन कम पड़ता है। इस मॉल में प्रवेश के साथ ही इसके तामझाम यह बताने के लिए काफी हैं कि इसमें युवाओं के लिए विशेष इंतजाम हैं। जगह जगह बैठे प्रेमी युगलों की जोड़ी का नजारा अपने आप एक सबूत है। सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हैं और फोटो खीचने की मनाही है। जनसुबिधा की चमक किसी भी पांचसितारा होटल से बेहतर है। द ग्रेट इंडिया प्लेसको देखकर आप भी कहेंगे खेल बड़ा है।
ग्रेट इंडिया प्लेस को यूनिटेक अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन पार्क बताती है। एक ऐसी जगह जिससे भारत अब तर परिचित नहीं था। यह मनोरंजन सिटी का एक हिस्सा है जहां दुनिया के बेहतरीन रिटेल और इंटरटेनमेंट कांपलेक्स होंगें। 1,500,000 वर्गफीट में बना यह भारत का सबसे बड़ा रिटेल सेंटर है।
नियमानुसार मॉल बनाने के लिए प्राघिकरण अलग भूखंडों का चयन करके महंगी दरों पर आवंटन करता है। बानगी के तौर पर सेक्टर - 18 में इसी दौरान व्यावसायिक भूखंडों की नीलामी 5 लाख से 6 लाख (5 हजार प्रतिवर्ग मीटर) की दरों से गई थी, जबकि इन भूखंडों का एफ.ए.आर. मॉल को दिए गए एफ.ए.आर. से काफी कम होता है। मनोरंजन पार्क के नाम पर बनाए गए उत्तर भारत के इस विशाल मॉल की भूमि की कीमत का अनुमान लगाएं तो देश के एक बड़े घोटाले का पर्द ाफाश होता है। 21 एकड़ यानी लगभग 85 हजार वर्ग मीटर भूमि पर बने मॉल की भूमि की कीमत 5 लाख प्रतिवर्ग मीटर की दर से 4250 करोड़ बनती है। इसके अलावा शेष बची 120 एकड़ भूमि का आकलन करके घोटाले के व्यापक आकार का अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में, आश्चर्यजनक यह है कि भूखंड आवंटित करने व नक्शा स्वीकृत करने वाले अधिकारियों की कुंभकरणी नींद क्यों नहीं खुली कि मात्र 108 करोड़ में 140 एकड़ भूमि कैसे दे दी गई। ऐसा नहीं है कि इस महाघोटाले को भाजपा व बसपा नीत सरकारों का ही संरक्षण प्राप्त था, बल्कि 25 अगस्त 2003 को मायावती सरकार के पतन के पश्चात सत्ता में आई मुलायम सिंह सरकार का आशीरवाद और संरक्षण भी इस कंपनी को मिलता रहा। पुरानी कहावत है कि चांदी की जूती भी अच्छी लगती है। मुलायम सिंह सरकार के दौरान भी समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने यह मामला उठाने का प्रयास किया तो सपा हाईकमान ने उसे चुप रहने का निर्देश दिया, क्योंकि इस घोटाले के सूत्रधार और कंपनी के मालिकों के मधुर संबंध सरकार के दो बड़े नेताओं से हो चुके थे जो नोएडा के भाग्य का फैसला किया करते थे। सरकार में आते ही समाजवादी पार्टी के नेता इस घोटाले की जांच करवाने की घोषणा कर रहे थे, परंतु कंपनी के मालिकों से मुलाकात के बाद उनके सुर बदल गए। महाघोटाले का सिलसिला यहीं पर समाप्त नहीं होता, बल्कि इस कंपनी की हिस्सेदार कंपनी यूनिटेक को नोएडा में सैकड़ों एकड़ जमीन आवासीय व व्यावसायिक गतिविधियों के लिए आवंटित की गई। इसके अलावा प्रदेश में दो महत्वपूर्ण स्थानों पर उन्हें हाईटेक सिटी विकसित करने के लिए भी हजारों एकड़ भूमि आवंटित की गई।

(साभार प्रथम प्रवक्ता) 


Saturday, February 16, 2008

नोएडा का महाघोटाला भाग-1



नोएडा का यह एक एेसा जमीन घोटाला है जिसकी राजनाथ सिंह की सरकार में शुरुआत हुई और बाद की राज्य सरकारों में उसे पूरी तरह से अंजाम दिया गया। जो सिलसिला उस समय शुरु हुआ वह मायावती से होते हुए मुलायम सिंह के कार्यकाल में भी बदस्तूर जारी रहा। यह एक बेशकीमती जमीन को कौड़ियों के दाम लुटाने का मामला है। इसकी ढंग से अगर जांच की जाए तो पांच हजार करोड़ रुपए का घोटाला सामने आएगा। जमीन दी गई मनोरंजन पार्क के लिए और बन गया उस पर बड़ा सा मॉल। नियमों की अनदेखी और नेताओं - अफसरों और कारोबारियों की साठ-गांठ का ही है यह कमाल।
नोएडा सेक्टर-18 के ठीक सामने सेक्टर-38 ए में करीब 140 एकड़ जमीन मनोरंजन पार्क के लिए आरक्षित की गई थी। वर्ष 2001 में समाचार पत्रों के जरिए इस जमीन पर मनोरंजन पार्क विकसित करने के लिए निविदाएं आमंत्रित की गई थीं। 17 जुलाई 2001 को नोएडा के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी देवदत्त, महाप्रबंधक (वित्त) एस.के.सिंह, महाप्रबंधक संस्थागत विजय अग्रवाल, वास्तुविद ए.के.इंगले की उपस्थिति में इन निविदाओं को खोला गया। कुल छह निविदाओं में दिल्ली में अप्पू घर का संचालन करने वाली मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की 108 करोड़ की निविदा पर चिंतन मनन करते रहे और उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की शैली में इच्छुक पार्टियों से मोलभाव करते रहे। जिस समय इस बेशकीमती भूमि के आवंटन की प्रक्रिया चल रही थी, उस समय प्रदेश के औघोगिक विकास आयुक्त के पद पर बहुचर्चित अफसर अखंड प्रताप सिंह काबिज थे। आप को याद ही होगा कि उनका भ्रष्टाचार जैसे
विवादों से बड़ा गहरा रिश्ता रहा है। वे बाद में प्रदेश के सर्वधिक विवादित मुख्य सचिव भी रहे और भ्रष्टाचार के आरोप में उन्हे सीबीआई ने पकड़ा।
जिस समय इस घोटाले की नींव पड़ी तब उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह थे। उनकी सरकार ने उस जमीन को मनोरंजन पार्क बनाने के लिए मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. को कुछ शर्तों सहित आवंटित कर दिया गया। इस कंपनी को यह सुविधा दी गई कि उस जमीन के 15 प्रतिशत हिस्से पर वह प्रोजेक्ट के समर्थन के लिए व्यावसायिक गतिविधियां संचालित कर सकती है। इसमे एक शर्त यह थी कि निर्धारित 21 एकड़ जमीन का 30 प्रतिशत हिस्सा ही प्रोजेक्ट के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। जिसका एफ.ए.आर 1.5 होगा। नोएडा के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी संजीव नायर ने अन्य शर्त सहित यह पत्र जारी कर दिया था। उन दिनों उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे और 14 फरवरी, 2002 को प्रथम चरण का मतदान होना था। परंतु आदर्श चुनाव आचार संहिता का पालन न कर अधिकारियों ने इस भूमि का आवंटन कर दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. के नाम यह भूमि आवंटित की गई उसका पता बी.ए.-324 टैगोर गार्डन, नई दिल्ली-27 है। यह पता भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन प्रदेश महासचिव व विधायक ओमप्रकाश बब्बर का है और उनके पुत्र राकेश बब्बर इस कंपनी के निदेशक हैं। क्या इस आवंटन में उन्हे इसलिए प्राथमिकता दी गई कि वे भाजपा के हैं? उन्हें आनन फानन में आवंटन पत्र जारी कर दिया गया। सतही तौर पर भले ही इसमें पार्टी के तार जुड़े हुए दिखते हैं पर किस्सा उससे कहीं आगे का है।
याद करिए कि उस चुनाव में राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की शर्मनाक हार हो गई। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा क्योंकि 3 मई, 2002 को उत्तर प्रदेश में तीसरी बार जब मायावती मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुईं तो इस मनोरंजन पार्क का रथ रुका नहीं। उसकी गतिविधियों में तेजी आई। सबसे बड़ा रहस्य तो यह है कि मायावती सरकार के कार्यकाल में जिस 4 फरवरी, 2003को नोएडा प्राधिकरण ने मै. इंटरनेशनल रिक्रिएशन पार्क प्रा. लि. से समझौता किया उसे इसका अधिकार ही नहीं था क्योंकि जमीन इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. को आवंटित की गई थी। सवाल यह है कि एक नई कंपनी से लीज का समझौता कैसे हो गया? यह निविदा की शर्त का खुला उल्लंघन था। क्या नोएडा प्राधिकरण ने तब यह काम किसी उपकार भाव से किया? सवाल यह भी है कि जिसे लीज पर वह जमीन गैरकानूनी तरीके से दी गई उसे मनोरंजन पार्क चलाने का क्या अनुभव था?
नियमानुसार वहां बनना था-मनोरंजन पार्क। नोएडा में सेक्टर - 18 का अपना रुतबा है। उसके ठीक सामने के अवैध कारोबार पर नजर क्यों नहीं गई। ऐसा हो नहीं सकता कि इसे किसी अधिकारी ने न देखा हो या उसे न बताया गया हो। साफ है कि अफसरों की मिलीभगत से मॉल का नक्शा पास कराया गया। जिस अंधेरगर्दी से यह हुआ उसी तरह वहां एफ.ए.आर. के नियमों का मजाक उड़ाते हुए मॉल का निर्माण प्रारंभ हुआ।
इस प्रोजेक्ट को यूनिटेक नामक कंपनी के साथ मिलकर बनाया गया है। यूनिटेक और इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की साझेदारी के कई मिसाल हैं। ग्रेट इंडिया प्लेस एक नमूना भर है। दिल्ली के रोहिणी इलाके में जापानी पार्क के साथ ही एडवेंचर आइलैंड और मेट्रो वॉक प्रोजेक्ट विकसित किया गया। इस प्रोजेक्ट की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है।
एडवेंचर आइलैंड मनोरंजन पार्क का हिस्सा है और मेट्रोवॉक रिटेल सेंटर है। जी हां, कुछ उसी तरह ग्रेट इंडिया प्लेस को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन पार्क बताकर एक अलग तरह का खेल खेला गया। रोहिणी के दोनों प्रोजेक्ट यूनिटेक और इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की 50 : 50 प्रतिशत साझेदारी के तहत तैयार की गई है।
(साभार प्रथम प्रवक्ता)

शेष आगे...........................

Friday, February 15, 2008

छुट्टे सांड और भांड



पंकज रामेन्दु
राजधानी दिल्ली हो या बिहार का छपरा, एक प्राणी है जो सर्वव्याप्त है। मस्तमौला यह प्राणी सड़क से लेकर संसद तक हर जगह उनमुक्त होकर विचरण करता है। किसी माइके लाल में इत्ती हिम्मत भी नही है कि इसको उठाने की कोशिश कर सके। अभी कल ही की बात है, सड़क पे ये लंबा जाम लगा हुआ था, हमारी बदकिस्मती ऐसे मौके पर इतनी कामयाब रहती है कि उसने हमें पीछे रख छोड़ा था, तो साहब नज़र तो कुछ आ नही रहा था, थोड़ा सा आगे वालों से जानकारी जुटाई तो मालूम चला कि एक सांड महोदय हैं उन्हें रोड इतनी पसंद आ गई है कि वो उस पर आराम करना चाह रहे थे। और यह कंबख्त गाड़ी वाले पीं पीं करके उनके आराम में खलल डाल रहे है, बस इस बात पर सांड साहब को गुस्सा आ गया और लोकतांत्रिक शरीर में तानाशाही आत्मा ने प्रवेश कर डाला।
अब साहब बर्दाश्त की भी एक हद होती है, एक तो कोई किसी से कुछ कह नहीं रहा है अपना आराम कर रहा है, औऱ यह गाड़ीवाले हैं कि लगे हैं उंगली करने में। भैया पूरे 3 घंटे में सांड साहब माने।
साहब यह सांड वो प्राणी है जो पहले आराम से बदमाशी किया करता था, कभी कभार इसका उपयोग चुनावी के दौरान किया जाता था, फिर इसको लगा कि भैया यह कोन बड़ी चीज़ है राजनीति तो ससुरी सांडगिरी का ही काम है तो ये भी कूद पड़े मैदान में, और लो जीत भी गये, गाय जनता ने सोचा कि वैसे ही कौन से भले हो रहे हैं कम से कम ये अपनी तरह जमीन से जुड़कर बदमाशी तो किया करता है। अब साहब यह सांड भाई छुट्टे होकर राजनीति के गलियारों में घूमते हैं।
सांड की सांडाई बताने में एक प्राणी का ज़िक्र करना तो भूल ही गया, तो ऐसा है कि भारत देश में सांड जितना खुला है उतना ही हक एक औऱ प्राणी को मिला है, यह है भांड। भांड एक ऐसा प्राणी है, जो राजे महाराजे के ज़माने से अपने कर्तव्य को निभाता आ रहा है, सत्ता की ताल में ताल ठोंकता भांड हमेशा खुश रहने वाला प्राणी है, चाहे गाली पड़े या ताली मिले। भांड का काम हंसते-हंसते सब ज़ब्त कर जाना है। यह जीने का एक ही सिद्धांत मानता है जहां बम वहां हम। यह सत्ता के सांडों को ज्ञान भी देता है औऱ चाशनी सी बातों में घुली हुई सानी देकर खुद को भी पोसता रहता है। भांड ने ही जामवंत के माफिक सांड को उसकी शक्ति का एहसास दिलाया है।
आज के ज़माने में भैया ये ही है जो जमे हुए हैं औऱ लगातार सफलता को चूम रहे हैं। कई बार मुझे लगता है कि सांड बनने की औकात मेरी है नहीं, भांड बनने के तरीके मुझे मालूम नहीं है, यही कारण हैं कि मैं आज तक ऐवेंइ पड़ा हुआ हूं। भैया सांडगिरी हो या भांडगिरी सब टैलेंट की बात है, हर किसी के बस का रोग नहीं है।
क्या कर सकते हैं, ईश्वर कला से हर किसी को थोड़े ना नवाज़ता है. तो भैया हमारे पास तो अफसोस करने के अलावा कोई चारा नहीं है। अगर आप में यह टैलेंट है तो देर मत कीजिए, अपनी इस कला को निखारिये देखिए फिर क्या कमाल होता है।