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Saturday, April 26, 2008

ख्वाहिश

अंजुले श्याम मौर्य 'एडिट वर्क्स स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन' में बी.एस.सी. इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वीतीय वर्ष के छात्र हैं। ये अपनी एक प्यारी सी अभिव्यक्ति के साथ 'मुद्दा' पर हाज़िर हैं।

अंजुले श्याम मौर्य

काश, यह ज़िन्दगी
खुशनुमा इक पथ होता
साथ में इक खूबसूरत हमसफर होता
बातों-बातों में यूं रास्ता नप जाता
पमारे होंठो पे जो कोई मोहब्बत भरा तराना होता
इस तरह हमारा सफर 'आशिकाना' होता।

काश हमारे बीच
कोई समझौता होता
प्रेमभरा कोई घरौंदा होता
तो मिल बैठ कर दो-चार, मीठी-तीखी बातें होंती
जहाँ रूठने-मनाने का इक 'िसलसिला' होता
फिर धीरे-धीरे मशहूर हमारा 'फसाना' होता

काश मेरा देखा
हर सपना सच होता
मैं ख्वाहिशों के द्वीप में सो रहा होता
हर शाम जहाँ सपनों की बारिश और आरजू के ओले गिरते,
यहाँ न कोई ख्वाहिश और न सपना अधूरा होता
काश ऐसा ही दिलचस्प अपना 'आशियाना' होता।

Thursday, April 17, 2008

भूख मुक्त या आलस युक्त दिल्ली

जैसे जैसे चुनाव निकट आता है सबसे पहले विवेक मर जाता है। यह बात दिल्ली की राज्य सरकार या केंद्र सरकार दोनों पर बड़ा सटीक बैठता है। दिल्ली की इसलिए बोलना पड़ रहा है क्योंकि एक तो दिल्ली की है ही और जो दूसरी है जिसे आप केंद्रीय सरकार कहते हैं वो दिल्ली के अळावा कहीं की सोचती नहीं है। खैर विषय यह नहीं है हम विषय से ना भटकते हुए सीधे विषय पर आते हैं। १६ अप्रैल को हिंदुस्तान के पेज नं. १३ पर एक विज्ञापन छपा,(हिंदुस्तान का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैंने इसमें देखा था, आपने हो सकता है किसी और अखबार में देखा हो) विज्ञापन का विषय है भूख मुक्त दिल्ली-एक सार्थक कदम। आप की रसोई नाम के इस कार्यक्रम में लोगों को मुफ्त खाना खिलाया जाएगा, इस महान काम में जनहित कार्य क्यों नहीं कह रहा हूं इसका आगे विवरण दूंगा, अभी से अलबलाइए मत। इस महान काम में दिल्ली सरकार का सहयोग दे रहे हैं स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर।
भारत को भिखारियों का देश कहा जाता है ऐसा कुछ लोग कहते हैं औऱ यह कुछ लोग विदेशी ज्यादा होते हैं यह ऐसा क्यों कहते हैं क्योंकि यह ऐसा कह सकते हैं औऱ चूंकि यह लगातार ऐसा कह रहे हैं तो हमने मान भी लिया है अब जब हमने मान लिया है तो इस बात को साबित भी करना होगा तो हम लगातार लोगों को फोकट में खाना देंगे औऱ अलालों की संख्या में तेज़ी के साथ इज़ाफा होगा। औऱ हम झूठे नहीं कहलाएंगे वैसे भी आजकल स्लम टूरिज्म की काफी मांग है तो इसमें भिखारी टूरिज़्म भी बढ़ जाएगाा औऱ सरकार को टूरिज़्म से फायदा मिल जाएगा औऱ जो बाकी सहयोगी बचे हैं उन्हे मुफ्त का प्रचार मिल रहा है।
भारत को संतो का देश भी कहा जाता है जो संत होते हैं वो कोई काम-वाम नहीं करते वो सिर्फ बातें करते हैं, उन्हें मोह-माया भौतिकता से कोई नाता नहीं होता है, वो जेब में पैसा लेकर नहीं घूमते, अब जब जेब में पैसा लेकर नहीं घूमते तो भरण-पोषण कैसे करेंगे, और जेब में पैसा आएगा कैसे जब कुछ काम नहीं करेंगे औऱ काम क्यों करे जबकि यह कहा गया है कि संत सिर्फ ईश्वर के आदेश पर चलते हैं। जब ईश्वर की मर्जी के बगैर कुछ चलता नहीं, उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता, वो ही चोर से कहता है चोरी कर वो ही पहरेदार से कहता है जागता रह, जब सब कुछ उसी को करना है तो फिर हम क्यों कुछ करें, हम निठल्ले रहेंगे। ये निठल्ले होने का आदेश हमें ईश्वर से मिला है तो दिल्ली सरकार की क्या मजाल की वो इस आदेश का पालन ना करे, फिर अक्षरधाम भी तो ईश्वर का ही धाम है तो वो तो इस आदेश का पालन करने के लिए करबद्ध है, तो कुल मिलाकर ये देश संतों का हे, संत फकीर होते हैं, फकीर कुछ काम नहीं करते, बगैर काम किये पैसा नहीं मिलता, बगैर पैसे के पेट नहीं पलता, बगैर पेट पले इंसान ज़िंदा नहीं रहता, तो भारत की पंरपरा को आगे बढ़ाते हुए हमें निठल्लावाद, कामचोरीवाद और फोकटवाद को एकसाथ बढ़ावा देते हुए लोगों को मुफ्त में भोजन कराना है और अपनी परपंरा को आगे बढ़ाना है। भारत माता की जय।
माफ कीजिएगा जज्बात में आकर एक तकनीकी पक्ष रखना भूल गया। भूख मुक्त दिल्ली नामक इस विज्ञापन का एक तकनीकी पक्ष भी है जिसकी रखे बगैर बात अधूरी सी रह जाएगी। इस फोटू को गौर से देखिए, इस तस्वीर से आप को इसे छापने वाले, इसके लिए दान लेने वाले औऱ मुख्यमंत्री जी की भागीदारी प्रदर्शित करने वाले, कुल मिलाकर इस पूरी योजना में संपूर्ण रूप से सम्मिलित लोगों की भूख का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तस्वीर में जो लोग बैठ कर खाना खा रहे हैं उनमें से किसी को भी देख कर यह नहीं लगता की वो काम करके पेट नहीं भर सकता, इससे भी आगे बढ़कर एक बात औऱ है जो लोग खाना खा रहे हैं उनमें से पहले वाले की थाली ही खाली और चमचमाती सी रखी है। यानि हम सिर्फ बातें परोसेंगे। खा सको तो खालो।

किसी का पेट भरना बुरी बात नहीं है, बुरी बात है समस्याओं का ढांकना, केंद्र सरकार किसानों की समस्याओं को सुलझाएगी नहीं उन्हे ६० अरब रू का दान देकर उन्हे कामचोर बनाएगी। किसान मरते रहे तो मरे हमें क्या हमने तो अरबों रु का कफन का इंतज़ाम कर दिया है। लोग बेरोज़गार है तो सत्ता उन्हे काम नहीं दिलवाएगी, वो उन्हे फोकट में खाना खिलाएगी। जब रोटी जितनी भारी चीज़ उठाने मात्र से ही पेट भर रहा है तो मेहनत का सब्बल-फावड़ा उठाने की क्या ज़रूरत।
हे सत्ता तुम धन्य हो. तुम्हे नमन हो।


पंकज रामेन्दू

Thursday, April 10, 2008

मेरा भारत महान

रविन्द्र

मेरा भारत महान,
100 में से 99 बेइमान,
अगर ये होता भारत का नारा,
तो अच्छा होता,
क्योंकि इसमें कुछ तो सच्चा होता।
आज़ादी के हर नारे को,
इन बेइमानो ने सूली दिया है टांग,
क्योंकि बेइमानों का यही है असली काम।
और फिर निकले हैं देश चलाने कि राह में,
बेच के अपना दीन और ईमान।
देते हैं हज़ारों सपनों की आस,
फिर कर देते हैं उन्हे अपने बेइमानी के बिल से पास।
फिर न जाने क्यों लगता है अभी भी है कुछ आस,
उसके बाद भी होता नहीं है कुछ खास।
न जाने कब वो दिन आएगा,
जब बेइमानी का चोला इस दुनिया से उठ जाएगा।
तब देखेंगे हम भारत का नया चेहरा,
जिसमें बेइमानी का कभी न होगा बसेरा।

मै देखना चाहती थी

रविन्द्र का ताल्लुक पत्रकारिता जगत से नया नया है, ये एडिटवर्क्स स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन में बी.एस.सी. इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रथम वर्ष के छात्र हैं। इनकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष है। ये अपनी पहली रचना के साथ मुद्दा पर आये हैं।


रविन्द्र

मै देखना चाहती थी,
शिखर की उन ऊंचाईयों को,
न जाने क्यों देख न पाई।
एक लड़की होने के अहसास,
के बंधन को कभी तोड़ न पाई।
मै चाहती थी कुछ ऐसा कर दिखाना,
जो मेरी छवि को बना देता और भी निराला।
कुछ ऐसा जहाँ ने दिया फिर ताना,
जिसने बना दिया समाज से बेगाना।
मै चाहती थी आजाद भारत में रहकर कुछ करने की,
मगर आजाद हो कर जीना मेरा समाज को रास ना आया।
फिर मुझे दबंगों कि तरह जीना सिखाया,
जिसके बाद मुझे सभ्य नारी का पद मिल पाया।
न जाने कब ये समझेगा ज़माना,
कि नारी ही होती है, हर इंसान को समाज में लाने का बहाना।
न जाने कब लिखा जायेगा,
नारी को अपने हक से जीने का अफसाना।

Monday, April 7, 2008

हमउ भी कोई कम नीच नाही

पंकज रामेन्दू

मध्यप्रदेश के एक कवि हैं, माणिक वर्मा, उनकी कविता पढ़ने का अंदाज़ एकदम जुदा है। जब वो कविता पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि किसी को गाली बक रहे हैं, गाली भी ऐसी की आपने आज तक नही सुनी होगी, एकदम अनूठा प्रयोग करते हैं। उनकी एक कविता की एक पंक्ति है- उच्च कोिट के नीच लोगों।

आप यह सोच रहे होंगे कि मैं माणिक वर्मा का ज़िक्र क्यों कर रहा हूं, दरअसल रविवार के जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर दो लेख एक दूसरे के बगल में बाते करते हुए नज़र आए। एकतरफ भारत भारद्वाज जी गुड़िया भीतर गुड़िया हेडिंग के साथ यह कह रहे थे कि मैत्रयी पुष्पा ने जो अपनी आत्मकथा लिखी है वो एकदम सतही है, उन्होंने यह तक लिखा है कि आजकल जिन्हें लिखना नहीं आता है वो आत्मकथा लिखने लगे हैं। रसेल, गांधी से लेकर तसलीमा तक उन्होंने सभी आत्मकथाओं का ज़िक्र भी छेड़ दिया था। यह सब बताने के साथ वो राजकिशोर जी की छीछालेदर भी करने पर तुले थे, वो यह कहना चाह रहे थे कि राजकिशोर जी ने पैसे लेकर इस आत्मकथा की शान में कसीदे पढ़े हैं।
दूसरी तरफ - मो सम कौन कुटिल खल कामी के साथ राजकिशोर जी यह कहते नज़र आये कि उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा से उनकी किताब की आलोचना लिखने के लिए दस हज़ार रु मांगे थे, वो उन्हे आज तक नहीं मिले, ऐसी ही कई प्रकार की व्यंग्योक्तियों के साथ राजकिशोर जी की किलपन नज़र आई।
इस बात की शुरूआत १६ मार्च के जनसत्ता में छपी मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़ियी भीतर गुड़िया की आलोचना से हुई, जिसमें राजकिशोर जी ने इस पुस्तक की काफी तारीफ की हुई है।
भारत भारद्वाज जी इसे सतही बता रहे हैं और वो यह भी कह रहे हैं कि राजकिशोर जी इसकी मार्केटिंग कर रहे हैं।
अब यहां से समस्या खड़ी होती है। जब आपके सामने दो वरिष्ठ एवं गरिष्ठ साहित्यकारों की विपरीत प्रतिक्रिया किसी समान विषय पर मिलती है तो वो अकस्मात ही आप में एक जिज्ञासा पैदा कर देती है। आप सोचने लगते हैं कि चलो पढ़ कर देखा तो जाए आखिर है क्या मामला ।
तो इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ऐसा भी हो सकता है कि मैत्रयी पुष्पा से जो पैसे प्राप्त हुए वो आपस में बांट लिए गए हों। भई हंगामा खड़ा करना भी तो एक मकसद हो सकता है। अब मेरे जैसे लोग जिनमें साहित्य पढ़ने की खुजली है और जो यह विश्वास करके बैठा है कि यह वरिष्ठ साहित्यकार थोड़े ईमानदार टाइप के भी हैं मुझमें और खुजाल पैदा कर देगा और नतीजा में वो किताब खरीद डालूंगा। मेरे जैसे कई ग़रीब लेखक है (वैसे हिंदी के लेखक का ग़रीब होना ही इस बात का सूचक है कि वो लेखक है या यूं कह लो की ग़रीब ही लेखक है)वो इस किताब को खरीद डालेंगे। अब हम सब एक दूसरे से मिलते तो हैं नहीं तो किताब के अच्छे या बुरे होने की बात भी नहीं बता सकेंगे। नतीजा, उद्देश्य की पूर्ति ।
अगर दोनों वरिष्ठ मतैक्य नहीं भी हैं तो भी मैत्रयी पुष्पा के लिए तो यह फायदे का सौदा रहा। वो कुछ कहा जाता है ना कि दो .. कि लड़ाई में .. तीसरे का फायदा। वैसे एक बात काबिल-ए-तारीफ है, इनका इस तरह से लड़ना इस बात की पुष्टि कर देता है कि हिंदी साहित्य में जो केकड़ा प्रथा का बार बार ज़िक्र आता है वो कितना सही है। तो इस बात की पुष्टि कराने के लिए मैं इन दोनों का धन्यवाद भी देता हूं। यह बात हमें बताती है कई कीचड़ ऐसी हैं जिनमें कमल खिलते नहीं है, हां अगर खिले हुए कमलों को उनमें डाल दो तो वे मुरझा ज़रूर जाएंगे।