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Wednesday, December 8, 2010

हम पत्रकारों को पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार दल्ला है


राडिया के टेप से निकलते शुभ संकेत : नया-नया पत्रकार बना था। दोस्त की शादी में गया था। दोस्त ने अपने एक ब्यूरोक्रेट रिश्तेदार से मिलवाया। अच्छा आप पत्रकार हैं? पत्रकार तो पचास रुपये में बिक जाते हैं। काटो तो खून नहीं। क्या कहता? पिछले दिनों जब राडिया का टेप सामने आया तो उन बुजुर्ग की याद हो आई। बुजुर्गवार एक छोटे शहर के बड़े अफसर थे। उनका रोजाना पत्रकारों से सामना होता था। अपने अनुभव से उन्होंने बोला था। जिला स्तर पर छोटे-छोटे अखबार निकालने वाले ढेरों ऐसे पत्रकार हैं जो वाकई में उगाही में लगे रहते हैं। ये कहने का मेरा मतलब बिलकुल नहीं है कि जिलों में ईमानदार पत्रकार नहीं होते। ढेरों हैं जो बहुत मुश्किल परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं। इनकी संख्या शायद उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिये। ऐसे में राडिया टेप आने पर कम से कम मैं बिलकुल नहीं चौंका।

हालांकि इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे?

हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी मे इसे 'दल्लागिरी' कहते हैं और ऐसा करने वालों को 'दल्ला'। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार 'दल्ला' है और कौन 'दल्लागिरी' कर रहा है। इसी दिल्ली में क्या हम नहीं जानते कि जो लोग पैदल टहला करते थे कैसे रातोंरात उनकी कोठियां हो गईं और बड़ी बड़ी गाडियों में घूमने लगे? टीवी की बदौलत पत्रकारिता में पैसा तो पिछले दस सालों से आया है। उसके पहले पत्रकार बेचारे की हैसियत ही क्या थी? झोलाछाप, टूटी चप्पल में घूमने वाला एक जंतु जो ऑफिस से घर जाने के लिये डीटीसी बस का इंतजार करता था। उस जमाने में भी कुछ लोग ऐसे थे जो चमचमाती गाड़ियों में सैर करते थे और हफ्ते में कई दिन हवाई जहाज का मजा लूटते थे। इनमें से कुछ तो खालिस रिपोर्टर थे और कुछ एडीटर। इनकी भी उतनी ही तनख्वाह हुआ करती थी जितनी की ड़ीटीसी की सवारी करने वाले की।

इनमे से कई ऐसे भी थे जिनकी सैलरी बस नौकरी का बहाना था। जब पत्रकारिता में आया तब दिल्ली में एक खास बिजनेस घराने के नुमाइंदे से मिलना राजधानी के सोशल सर्किट में स्टेटस सिम्बल हुआ करता था। और जिनकी पहुंच इन 'महाशय' तक नहीं होती थी वो अपने को हीन महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं था कि पाप सिर्फ बिजनेस घराने तक ही सिमटा हुआ था। राजनीति में भी पत्रकारों की एक जमात दो खांचों मे बंटी हुई थी। कुछ वो थे जो कांग्रेस से जुड़े थे और कुछ वो जो बीजेपी के करीबी थे। और दोनों ही जमकर सत्ता की मलाई काटा करते थे। जो लोग सीधे मंत्रियों तक नहीं पंहुच पाते थे उनके लिये ये पत्रकार पुल का काम किया करते थे। ट्रासफर पोस्टिंग के बहाने इनका भी काम चल जाया करता था। और जेब भी गरम हो जाती थी। सत्ता के इस जाल में ज्यादा पेच नहीं थे। बस पत्रकार को ये तय करना होता था कि वो सत्ता के इस खेल में किस हद तक मोहरा बनना चाहता था।

क्षेत्रीय पत्रकारिता में सत्ता का ये खेल और भी गहरा था। मुझे याद है भोपाल के कुछ पत्रकार जिन्हें इस बात का अफसोस था कि वो अर्जुन सिंह के जमाने में क्यों नहीं रिपोर्टर बने। लखनऊ में भी ढेरों ऐसे पत्रकार थे जो कई जमीन के टुकड़ों के मालिक थे। किसी को मुलायम ने उपकृत किया तो किसी को वीर बहादुर सिंह ने। और जब लखनऊ विकास प्राधिकरण के मामले में मुलायम पर छींटे पड़े तो पत्रकारों की पूरी लिस्ट बाहर आ गई। इसमें कुछ नाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। हालात आज भी नहीं बदले हैं। आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी में किसी रिपोर्टर या एडीटर के लिये राज्य सरकार के खिलाफ लिखने के लिये बड़ा जिगरा चाहिये। अब इस श्रेणी में नीतीश के बिहार का पटना भी शामिल हो गया है। फर्क सिर्फ इतना आया है अब मलाई सिर्फ रिपोर्टर और एडीटर ही नहीं काट रहे हैं। अखबार के मालिक भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं। अखबार मालिकों को लगने लगा है कि वो क्यों रिपोर्टर या एडीटर पर निर्भर रहें। अखबार उनका है तो सत्ता के खेल में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिये। तब नया रास्ता खुला। और फिर धीरे धीरे पेड न्यूज भी आ गया।

कुछ लोग ये कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण ने इस परंपरा को और पुख्ता किया है या यो कहें कि बाजार के दबाव और प्रॉफिट के लालच ने मीडिया मालिकों को सत्ता के और करीब ला दिया है। दोनों के बीच एक अघोषित समझौता है। और अब कोई भी गोयनका किसी भी बिजनेस हाउस और सत्ता संस्थान से दो-दो हाथ कर घर फूंक तमाशा देखने को तैयार नहीं है। क्योंकि ये घाटे का सौदा है। और इससे खबरों के बिजनेस को नुकसान होता है। क्योंकि खबरें अब समाज से सरोकार से नहीं तय होतीं बल्कि अखबार का सर्कुलेशन और न्यूज चैनल की टीआरपी ये तय करती है कि खबर क्या है? ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है।

ऐसे में सवाल ये है कि वो क्या करे जो ईमानदार है और जो सत्ता के किसी भी खेल में अपनी भूमिका नहीं देखते, जो खालिस खबर करना चाहते हैं? तो क्या ये मान लें कि ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं की जा सकती? मैं निराश नही हूं। एक, पिछले दिनों जिस तरह से मीडिया ने एक के बाद एक घोटालों को खुलासा किया है वो हिम्मत देता है। और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पत्रकारों की पोल खोलने वाले राडिया के टेप का खुलासा भी तो पत्रकारों ने ही किया है? दो, इसमे संदेह नहीं है कि बाजार ने पत्रकारिता को बदला है लेकिन बाजार का एक सच ये भी है कि प्रतिस्पर्धा और प्रोडक्ट की गुणवत्ता बाजार के नियम को तय करते हैं। और लोकतंत्र बाजारवादी आबादी को इतना समझदार तो बना ही देता है कि वो क्वॉलिटी को आसानी से पहचान सके। बाजार का यही चरित्र आखिरकार मीडिया की गंदी मछलियों को पानी से बाहर करने मे मदद करेगा। और जीतेगी अंत में ईमानदार पत्रकारिता ही, सत्ता की दलाली नहीं।

लेखक आशुतोष आईबीएन7 के मैनेजिंग एडिटर हैं. आईबीएन7 से जुड़ने से पहले आशुतोष खबरिया चैनल आजतक की टीम का हिस्सा थे. वह प्राइमटाइम के कुछ खास ऐंकर्स में से एक थे. ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है. वह भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग ब्रेक के बाद से साभार लिया गया है.

Thursday, November 18, 2010

हसरत

पंकज रामेन्दू

जिंदगी को बस इसलिए दोबारा रखना चाहूंगा
मैं फिर तुझे उतनी ही शिद्दत से तकना चाहूंगा ।

प्यार तेरा पा सकूं मेरी यही कोशिश नहीं,
बन के खुशब तेरी सांसो में बसना चाहूंगा।

तेरी सूरत मेरी आंखो में हो बस यही हसरत नहीं
मैं ख्वाब ओ ख्यालों में तुझको भी दिखना चाहूंगा ।

जिसकी संगत से हुस्न निखरे औऱ बढ़े रंगत
बन के वो श्रंगार तेरे अंग अंग पे सजना चाहूंगा

हो सकता है लगे तुझे ये बाते बहुत बड़ी बड़ी
इंच भर मुस्कान की खातिर, में बिकना चाहूंगा ।

Saturday, October 9, 2010

बिहार चुनाव की खामोशी


पुण्य प्रसून बाजपेयी

जहां राजनीति का ककहरा अक्षर ज्ञान से पहले बच्चे सीख लेते हों, वहां चुनाव का मतलब सिर्फ लोकतंत्र को ढोना भर नहीं होता। उसका अर्थ सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत का एहसास करना भी होता है। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है तो मतलब साफ है राजनीति की हैसियत अब चुनाव से खिसक कर कहीं और जा रही है। चुनाव के ऐलान के बाद से बिहार में जिस तरह की खामोशी चुनाव को लेकर है, उसने पहली बार वाकई यह संकेत दिये हैं कि राजनीतिक तौर पर सत्ता की महत्ता का पुराना मिजाज बदल रहा है। लालू यादव के दौर तक चुनाव का मतलब सत्ता की दबंगई का नशा था। यानी जो चुनाव की प्रक्रिया से जुड़ा उसकी हैसियत कहीं न कहीं सत्ताधारी सरीखी हो गयी। और सत्ता का मतलब चुनाव जीतना भर नहीं था, बल्कि कहीं भी किसी भी पक्ष में खड़े होकर अपनी दबंगई का एहसास कराना भी होता है।

लालू 15 बरस तक बिहार में इसीलिये राज करते रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता के इस एहसास को दिमागी दबंगई से जोड़ा। लालू जब सत्ता में आये तो 1989-90 में सबसे पहले यही किस्से निकले की कैसे उंची जाति के चीफ सेक्रेट्ररी से अपनी चप्पल उठवा दी। या फिर उंची जाति के डीजीपी को पिछड़ी जाति के थानेदार के सामने ही माफी मंगवा दी। यानी राजनीतिक तौर पर लालू यादव ने नेताओ को नहीं बल्कि जातियों की मानसिकता में ही दबंगई के जरीये समूचे समाज के भीतर सत्ता की राजनीति के उस मिजाज को जगाया, जिसमें चुनाव में जीत का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं बल्कि अपने अपने समाज में अपनो को सत्ता की चाबी सौंपना भी था। सत्ता की कई चाबी का मतलब है लोकतंत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत। यानी पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था बनाये रखने वाले किसी भी संस्थान की हैसियत चाहे मायने रखे लेकिन चुनौती देने और अपने पक्ष में हर निर्णय को कराने की क्षमता दबंगई वाले सत्ताधारी की ही है।

चूंकि जातीय समीकरण के आसरे चुनाव जीतने की मंशा चाहे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार में हो, लेकिन लालू के दौर में जातीय समीकरण का मतलब हारी हुई जातियों के भीतर भी दबंगई करता एक नेता हमेशा रहता था। फिर यह सत्ता आर्थिक तौर पर अपने घेरे में यानी अपने समाज में रोजगार पैदा करने का मंत्र भी होता है। इसलिये चुनाव का मतलब बिहार में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित करने वाला भी है। लेकिन नीतीश कुमार के दौर में यह परिस्थितियां न सिर्फ बदली बल्कि नीतीश की राजनीति और इस दौर की आर्थिक परिस्थितियो ने दबंगई सत्ता के तौर तरीको को ही बदल दिया। 1990 से 1995 तक सत्ता की जो दबंगई कानून व्यवस्था को खारिज कर रही थी, बीते पांच बरस में नीतीश ने समाज के भीतर जातियों के उस दबंग मिजाज को ही झटका दिया और राजनीतिक बाहुबली इसी दौर में कानून के शिकंजे में आये।

सवाल यह नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में करीब 45 हजार अपराधियों को पकड़ा गया या कहें कानून के तहत कार्रवाई की गई। असल में अपराधियो पर कार्रवाई के दौरान वह राजनीति भी खारिज हुई जिसमें सत्ता की खुमारी सत्ताधारी जातीय दबंगई को हमेशा बचा लेती थी। यानी पहली बार मानसिक तौर पर जातीय सत्ता के पीछे आपराधिक समझ कत्म हुई। यह कहना ठीक नहीं होगा कि बिहार में जातीय समिकरण की राजनीति ही खत्म हो गई। हकीकत तो यह है कि राजद या जेडीयू में जिस तरह टिकटों की मांग को लेकर हंगामा हो रहा है, वह जातीय समीकरण के दुबारा खड़े होने को ही जतला रहा है। यानी अपराध पर नकेल कसने या बाहुबलियों को सलाखों के पीछे अगर बीते पांच साल में नीतीश सरकार ने भेजा है तो भी जातीय समीकरण को वह भी नहीं तोड़ पाये हैं। वहीं नीतीश के दौर में एक बडा परिवर्तन बाजार अर्थव्यवस्था के फैलने का भी है। सिर्फ सड़कें बनना ही नहीं बल्कि उनपर दौडती गाड़ियों की खरीद फरोख्त में बीत पांच साल में करीब तीन सौ फिसदी की वृद्धि लालू यादव के 15 साल के शासन की तुलना में बढ़ी। और रियल इस्टेट में भी बिहार के शहरी लोगों ने जितनी पूंजी चार साल में लगायी, उतनी पूंजी 1990 से 2005 के दौरान भी नहीं लगी।

यह परिवर्तन सिर्फ बिहारियो के अंटी में छुपे पैसे के बाहर आने भर का नहीं है बल्कि पुरानी मानसिकता तोड़ कर उपभोक्ता मानसिकता में ढलने का भी है। इस मानसिकता में बदलाव की वजह ग्रामीण क्षेत्रों या कहें खेती पर टिकी अर्थव्यवस्था को लेकर नीतीश सरकार की उदासी भी है। नीतीश कुमार ने चाहे मनमोहन इक्नामिक्स को बिहार में अभी तक नहीं अपनाया है, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में जिस तरह बाजार और पूंजी को महत्ता दी जा रही है, नीतीश कुमार उससे बचे भी नहीं है। इसका असर भी यही हुआ है कि खेती अर्थव्यस्था को लेकर अभी भी बिहार में कोई सुधार कार्यक्रम शुरु नहीं हो पाया है। जमीन उपजाऊ है और बाजार तक पहुंचने वाले रास्ते ठीक हो चले हैं, इसके अलावे कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बनाया गया। बल्कि नीतीश कुमार की विश्वास यात्रा पर गौर करें तो 31 जिलों में 12416 योजनाओं का उद्घाटन नीतिश कुमार ने किया। सभी योजनाओ की राशि को अगर मिला दिया जाये तो वह 35 अरब 51 करोड 95 लाख के करीब बैठती है। इसमें सीधे कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली योजनायें 18 फीसदी ही हैं। जबकि नीतीश कुमार ने 25 दिसंबर 2009 से 25 जून 2010 के दौरान जो भी प्रवास यात्रा की उसमें ज्यादातर जगहों पर उनके टेंट गांवों में ही लगे। यानी जो ग्रामीण समाज सत्ता की दबंगई लालू यादव के दौर में देखकर खुद उस मिजाज में शरिक होने के लिये चुनाव को अपना हथियार मानता और बनाता था...वही मिजाज नीतीश के दौर में दोधारी तलवार हो गया। यानी चुनाव के जरीये सत्ता की महत्ता विकास की ऐसी महीन लकीर को खींचना है, जिसमें खेती या ग्रामीण जीवन कितना मायने रखेगा यह दूर की गोटी हो गई। यानी देश में मनमोहन इक्नामिक्स में बजट तैयार करते वक्त अब वित्त मंत्री को कृषि से जुड़े समाज की जरुरत नहीं पड़ती और बिहार में नीतिश की इक्नामिक्स लालू के दौर की जर्जरता की नब्ज पकड कर विकास को शहरी-ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनाकर राजनीति भी साधती है और मनमोहन के विकास की त्रासदी में बिहार का सम्मान भी चाहती है।

यानी चुनाव को लेकर बिहार में बदले बदले से माहौल का एक सच यह भी है कि राजनीति अब रोजगार नहीं रही। रोजगार का मतलब सिर्फ रोजी-रोटी की व्यवस्था भर नहीं है बल्कि राजनीतिक कैडर बनाने की थ्योरी भी है और सत्ता को समानांतर तरीके से चुनौती देना भी है। दरअसल, नीतीश के सुशासन का एक सच यह भी है कि समूची सत्ता ही नीतीश कुमार ने अपने में सिमटा ली है और खुद नीतीश कुमार सत्ताधारी होकर भी दबगंई की लालू सोच से हटकर खुद को पेश कर रहे हैं, जिनके वक्त सत्ता का मतलब जाति या समाज पर धाक होती थी। बिहार में राजनीतिक विकास का चेहरा इस मायने में भी पारपंरिक राजनीति से हटकर है, क्योकि नीतीश कुमार की करोड़ों-अरबो की योजनाएं बिहारियों को सरकार की नीतियों के भरोसे ही जीवन दे रही हैं। जो कि पहले जातीय आधार पर जीवन देती थी। मसलन राज्यभर के शिक्षको के वेतन की व्यवस्था कराने का ऐलान हो या फिर दो लाख से ज्यादा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति या फिर 20 हजार से ज्यादा रिटायर सौनिकों को काम में लगाना। और इसी तरह कमोवेश हर क्षेत्र के लिये बजट की व्यवस्था कर सभी तबके को राहत देने की बात। लेकिन यह पूरी पहल मनरेगा सरीखी ही है। जिसमें लोगो को एकमुश्त वेतन तो मिल रहा है लेकिन इसका असर राज्य के विकास पर क्या पड़ रहा है, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है। क्योंकि सारे बजट लक्ष्यविहिन है। एक लिहाज से कहें तो वेतन या रोजगार के साधन खड़ा न कर पाने की एवज में यह धन का बंटवारा है। लेकिन इसका असर भी राजनीति की पारंपरिक धार को कम करता है और राजनीति को किसी कारपोरेट की तर्ज पर देखने से भी नहीं कतराता। कहा यह भी जा सकता है कि बिहार में भी पहली बार चुनाव के वक्त यह धारणा ही प्रबल हो रही है कि जिसके पास पूंजी है, वह सबसे बडी सत्ता का प्रतीक है। और सत्ता के जरीये पूंजी बनाना अब मुश्किल है।

कहा यह भी जा सकता है कि विकास के जिस ढांचे की बिहार में जरुरत है, उसमें मनमोहन सिंह का विकास फिट बैठता नहीं और नीतीश कुमार के पास उसका विकल्प नहीं है। और लालू यादव की पारंपरिक छवि नितीश के अक्स से भी छोटी पड़ रही है। इसका चुनावी असर परिवर्तन के तौर पर यही उभरा है कि जातियों के समीकरण में पांच बरस पहले जो अगड़ी जातियां नीतिश के साथ थीं, अब उनके लिये कोई खास दल मायने नहीं रख रहा। जो कांग्रेस पांच बरस पहले अछूत थी, अब उसे मान्यता मिलने लगी है। और विकास पहली बार एक मुद्दा रहा है। लेकिन यह तीनों परिवर्तन भी बिहार की राजनीतिक नब्ज से दूर हैं, जहां जमीन और खेती का सवाल अब भी सबसे बड़ा है। यानी भूमि सुधार से लेकर खेती को विकास के बाजार मॉडल के विकल्प के तौर पर जो नेता खड़ा करेगा, भविष्य का नेता वहीं होगा। नीतीश कुमार ने तीन साल पहले भू-अर्जन पुनस्थार्पन एंव पुनर्वास नीति के जरीये पहल करने की कोशिश जरुर की लेकिन महज कोशिश ही रही क्योकि बिहार की पारंपरिक राजनीति की आखिरी सांसें अभी भी चल रही हैं। शायद इसीलिये इसबार चुनाव में जेपी की राह से निकले नीतीश-लालू आमने-सामने खड़े हैं। जबकि बिहार की राह जेपी से आगे की है और संयोग से यह रास्ता कांग्रेस के युवराज भी समझ पा रहे हैं, इसलिये वह युवा राजनीति को उस बिहार में खोज रहे हैं, जहां राजनीति का ककहरा बचपन में ही पढ़ा जाता है।

Friday, October 1, 2010

संघर्षों का दौर

. मेरे संघर्षों का दौर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो

इस रात की भोर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो



तू ले ले और इम्तेहान जिन्दगी, में भी तैयार हूं

मेरी किस्मत में ज़ोर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो



जानता हूं इस तपिश भरी ज़मीन पर बूंदे गिरी हैं चंद

बरसना बादलों का घनघोर अभी बाकी है ज़रा ठहरो



यह दुनिया कभी कि गर्त में चली गई होती

यहाँ ईमान कुछ और अभी बाकी है ज़रा ठहरो



स्वाती तुम न घबराना वक्त के बदलावों से

तेरी आस वाला चकोर अभी बाकी है ज़रा ठहरो



इतनी जल्दी हार ना मानना "मानव"

कुछ पल ओर अभी बाकी है, ज़रा ठहरो

पंकज रामेंदु मानव

Monday, August 30, 2010

याद रहे हिंदी की बोलियाँ ही उसकी ताकत हैं



याद हो तो...आज से करीब साठ साल पहले हमने एक जंग जीती है...आज़ादी की, उससे भी पहले गर याद हो तो..उससे सौ साल पहले एक बड़ी जंगी शिकस्त भी खाई है.ये बात हमें याद हो तो ये भी याद होगा उस शिकस्त की वजह क्या थी ? हार के तमाम कारणों में एक बड़ी वजह विभिन्न राज्यों और सेनाओं के बीच सुचारू रूप से संवाद ना हो पाना भी था.इसकी एक वजह जहान संवाद के लिए जरुरी माध्यम का ना होना था वहीं एक वजह भाषागत दूरियां भी थी.इसके सौ साल बाद जब हमें बाजी पलटने का मौका हाथ लगा तो हमने आज़ादी के आलावें भी बहुत कुछ हासिल किया.जिसमें भारत की एकता के साथ -साथ सुन्दर भारत का एक खुबसूरत ख़्वाब भी पाया और साथ ही पाई एक प्यारी सी भाषा हिंदी.जिसे विभिन्न बोलियों को मिलकर खड़ा किया गया था.जिसके जरिये हम पूरे देश के लोगों से आसानी से बातें कर सकते थे.एक ऐसी भाषा जिसमें भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति,धर्म और संस्कृति की भी झलक दिखती है.लेकिन जैसा की होता है हर खुबसूरत ख्वाब कभी ना कभी टूटते ही हैं. वैसे ही भारत के सुन्दर भविष्य का ख़्वाब भी टुटा और साथ में ख़तम होती गई हिंदी की एकता और अखंडता भी. इस अखंडता पर ये संकट वाहरी ही नहीं बल्किं भीतरी भी है.इस संकट से निकले के लिए,अपनी भाषा को बचाने के लिए कोल्कता के संगठन 'अपनी भाषा' के प्रोफेसर अमरनाथ और डॉ. ऋषिकेश राय देश भर के बुद्धिजीवियों से संवाद कर रहे हैं.और इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुवे वे एक गोष्ठी '' हिंदी उसकी बोलियाँ और संविधान की आठवीं अनुसूची '' दिल्ली में ''गाँधी शांति प्रतिष्ठान'' में 22 अगस्त को आयोजित किये मिलते हैं.जहाँ वे हिंदी पर छाए संकट की लोगों को याद दिलाते हैं...

संगोष्ठी दो सत्रों में आयोजित होती है.प्रथम सत्र का संचालन डॉ. ऋषिकेश राय करते हैं और अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी करते हैं.विषय प्रस्तावना में प्रोफेसर अमरनाथ अपनी चिंता लोगों के सामने रखते हैं.किस तरह कुछ दिनों पहले हिंदी की एक बोली मैथली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर हिंदी के समनांतर दर्जा दे दिया गया.उसके बाद हिंदी पट्टी के लोग अपनी अपनी बोली को संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल करने को लेकर आये दिन आन्दोलन कर रहे हैं.खतरे की तरफ वे इशारा करते हुवे कहते हैं - दरअसल बात सिर्फ इतनी नहीं है की किसी बोली को हिंदी के बराबर दर्जा दिया जा रहा है दरअसल बात ये है की बोली और भाषा के नाम पर कुछ लोग अपनी राजनितिक महत्वकांक्षा साध रहे हैं.आज यदि किसी बोली को भाषा का दर्जा दे दिया जाता है तो कल उस भाषा के आधार पर एक अलग प्रदेश की मांग उठ खड़ी होती है.इसके समर्थक उस बोली के तमाम साहित्यकार भी है क्योंकि आज उन्हें किसी वजह से आकादमिक पुरस्कार नहीं मिल पता तो. जब-तब वे अलग प्रदेश और अलग भाषा की बात उठाने लगते हैं.,जाहिर है प्रदेश बनने के बाद अलग से उस भाषा की एक आकादमी बनेगी और इन लेखकों को सम्मान मिलने में आसानी होगी. आगे कहते हैं खतरा सिर्फ यही नहीं है- हिंदी को राष्ट्रिय भाषा का दर्जा इस वजह से नहीं मिला की इसका साहित्य बहुत समृद्ध और विशाल है, बल्किं इस वजह से मिला की हिंदी क्षेत्र में बोले जानी वाली बोलियों के लोगों के संख्या बल को देखते हुवे ही इसे राष्ट्रिय भाषा होने का अवसर मिला.मगर अब ये अखंडता खतरे में है.क्योंकि मैथली के बाद छत्तीसगढ़ी,बुन्देली, राजस्थानी,भोजपुरी के इलाकों से इन्हें अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की मांग उठने लगी है.यदि इन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाता है तो जाहिर है हिंदी का रास्ट्रीय स्वरूप खतरे में पड़ जायेगा क्योंकि संख्या बल की वजह से ही तो हिंदी रास्ट्रीय भाषा है.ये एक साम्राज्यवादी शाजिस है ताकि भारत की अखंडता और एकता को तोडा जा सके..एक और गृह युद्ध में इसे धकेला जा सके.वे बताते हैं जहाँ जातिय चेतना मजबूत नहीं होती वहां समय समय पर विघटनकारी शक्तियां अपना सर उठती हैं.दुर्भाग्य से हिंदी जाति की जातिय चेतना मजबूत नहीं है.बोलियाँ ही हिंदी की शक्ति हैं. अपनी बोलियों से अलग होकर हिंदी कमजोर होगी ही, बोलियाँ भी अलग थलग हो कर कमजोर हो जाएँगी.बोलियों का विकास हिंदी के साथ जुड़कर रहने और उसमें रचनाकर्म के जरिये ही संभव है.हाँ यदि कोई समस्या है .बोलियों के लेखक और उनकी रचनाओं को यदि कोर्स की किताबों में पर्याप्त जगह नहीं मिलती तो वे इसके लिए अपनी आवाज उठा सकते हैं.लेकिन हिंदी से अलग होकर वे हिंदी को तो तोड़ेंगे ही साथ ही ये बोलियों के लिए भी खतरनाक स्थिति होगी..
पहले वक्ता के रूप में वरिष्ठ समीक्षक कमाल किशोर गोयल एक निबंध पढ़ते हैं .दरअसल अपनी अपनी बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले लोग .अपने लिए और अपने लोगों के लिए सत्ता की मांग कर रहे हैं.हिंदी का संसार छिन्न-भिन्न करना हमारी राष्ट्रिय एकता और अखंडता के लिए घातक होगा.हिंदी और उसकी बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं.प्रभाकर क्षोत्रिय हिंदी को एक नदी के समान बताते हैं जो अपनी राह में आने वाले हर छोटे बड़े तालाबों को अपने अन्दर जब्त कर लेती है.बोलियों की मांग पर वे कहते हैं अभी तो ये शुरुवात है हमने अपने आपको खंडो में बाटना तयं कर लिया है.वहीं प्रभाकर जी के वक्तव्य में से ये चीज भी निकाल कर आती है की किस तरह हम तकनीक से पुर्वाहग्रसित हैं,उनकी ये चिंता है की आज कल हिंदी रोमन में लिखी जा रही है.शायद ये बात उन्हें नहीं मालूम की इसी वजह से कितने सारे लोग अपने आपको हिंदी में व्यक्त कर पा रहे हैं.लिखने दीजिये उन्हें रोमन में एक ना एक दिन वे देवनागरी में भी लिखने ही लगेंगे.हाँ जबरदस्ती आपने लोगों पर देवनागरी में लिखने का दबाव डाला तो शायद ये लोग कभी भी हिंदी में ना लिख पायें.क्योंकि ये वे लोग हैं जो अपना हर काम इंग्लिश में ही करने के आदि हैं लेकिन ये मातृभाषा से जुड़ाव ही है जो उन्हें हिंदी में लिखने को प्रेरित करती है. अनन्त राम त्रिपाठी हमें संविधान निर्माण की बैठक में ले जाते हैं.जहाँ डॉ. भीमराव आंबेडकर लोगों संविधान सभा में सभी से दरख्वास्त कर रहे हैं - मैं आप सबसे निवेदन करता हूँ.कि हिंदी राष्ट्र भाषा होने के साथ साथ प्रान्तों कि भाषा भी हिंदी होनी चाहिए...कहते हैं वे यदि उस वक़्त आंबेडकर का ये निवेदन स्वीकार कर लिया जाता तो आज हमें ये चिंतन मनन करने कि जरुरत नहीं होती.
बोलियों कि समस्याओं पर देवेन्द्र चौबे प्रकाश डालते हैं.आखिर क्यों बोलियों के लोग अपनी बोली को संविधान के आठवीं अन्सुची में शामिल करने कि मांग ना करें जब भोजपुरी के बड़े कवि 'भिखारी ठाकुर '' को रामचंद्र शुक्ल अपनी किताब 'हिंदी साहित्य के इतिहास में जगह नहीं देते तो जाहिर भोजपुरी के लोग अपने कवि और बोली के लिए संविधान कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने कि मांग करेंगे ही. .हिंदी अकेड्मियों को लताड़ लगते हैं-जाहिर है अकेडमिक हिंदी के सवालों को हाल करने में नाकाम रही.हिंदी को बचाए रखना है तो बोलियों को हिंदी के ढांचे में पर्याप्त स्पेश दे नहीं तो वे अपने स्पेश के लिए लड़ेंगे. हम सिर्फ अच्छा सुनना चाहते हैं अपनी गलतियों कि तरफ ध्यान नहीं देना चाहते. आयोजन कि एक सबसे बड़ी कमी मुझे ये दिखी कि यहाँ बोलियों कि समस्याओं पर देवेन्द्र चौबे के बाद कोई बोलने वाला नहीं था जबकि उनकी समस्याओं पर भी प्रकाश डालने वाले और वक्ता होने चाहिए थे.इसके बाद मृदुला सिन्हा अपनी चिंता में ये जाहिर करती हैं कि मैथली के अलग होने के बाद विद्यापति को यदि कोर्स से हटाया जाता है तो हिंदी का ये दुर्भाग्य होगा कि इतना अच्छा वर्णन पढने से वे वंचित हो जायेंगे.अध्यक्षीय उद्बोधन से पहले अपनी भाषा कि कि पत्रिका '' भाषा विमर्श'' का लोकार्पण प्रभाकर क्षोत्रिय,चित्र मुगदल और हिमांशु जोशी करते हैं.अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में हिमांशु जोशी इस देश को विडम्बनाओं का देश बताते हैं.एक तरफ हम जहाँ चीजों को स्थापित करते हैं दूसरी तरफ उसे हमीं विखंडित भी करते हैं.रचनाकर्म की आवश्यकता पर वे बल देते हैं साथ ही बताते हैं हिंदी गानों की मिठास भोजपुरी से ही आई है.जब हम गाते हैं तो कभी नहीं लगता की ये हिंदी नहीं बल्किं कोई और बोली ,कोई और भाषा है.भोजपुरी का ही स्वरूप है हिंदी और हिंदी का ही स्वरूप है भोजपुरी ये अलग नहीं हो सकते.ये जो हमें अलग अलग करने की शाजिसें चल रही हैं इनके पीछे पश्चिमी दुनिया का हाथ है.वे साफ शब्दों में बताते हैं - ''हिंदी का होना होने के लिए भोजपुरी, मैथली,अवधी, वर्ज ,राजस्थानी और हरियाणवी का होना भी जरुरी है''..
इसके बाद भोजन आवकाश के बाद दूसरे सत्र की कार्यवाही शुरू होती है.जिसमें मंच का संचालन श्री भगवान सिंह करते हैं और अध्यक्षता डॉ.कैलाश पन्त करते हैं.तमाम वक्ता अपने -अपने वक्तव्य में हिंदी पर छाए संकट पर चिंता जाहिर करते हैं.लेकिन उबाल तब आता है जब वेद प्रताप वैदिक मुद्दे पर बात ना कर मंच का इस्तेमाल अपने अजेंडे का प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए करते हैं.किसी के ये कहने पर सर आप सब्जेक्ट से हट कर बोल रहे हैं.पर वे अपने आपे से बाहर हो जाते हैं यहाँ तक की वे मंच की गरिमा और लोकतान्त्रिक मूल्यों की भी तिलांजली देते हुवे मंच से नीचे आकर शायद असहमति वाली आवाज का कलर पकड़ना चाहते हैं.किसी तरह उन्हें मंच के संचालक श्री भगवान सिंह रोकते हैं.आज कल हर सेमिनार का नजारा है ये जहाँ वक्ता अपने से असहमति रखने वाली आवाज को अपने आक्रामक रुख के जरिये दबाना चाहता है.इसके बाद प्रोफेसर चमनलाल आते हैं वे अभी बोलना शुरू ही करते हैं की उनके लिए वक़्त समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है.लगता है जैसे आयोजक ये पहले से ही मान बैठे हैं कि फलां वक्ता सही बोलते हैं और फ़ला सही नहीं बोलेंगे.वैदिक जी को जहाँ बोलने का निश्चित समय से आधिक समय दिया जाता है.जबकि वे सब्जेक्ट से हट कर बोलते हैं .बोलते क्या हैं कुछ कुछ प्रवचन से करते हैं.उनके लिए कोई समय सीमा नहीं है .जब प्रोफ़ेसर चमनलाल जिन्हें स्टुडेंट्स सुनना चाहते हैं उन्हें बोलने का पूरा मौका नहीं दिया जाता जबकि वे मुद्दे पर ही बातें कर रहे होते हैं.इस गरमा गर्मी के बाद कई वक्ता अपनी बात रखते हैं जिनमें अजय तिवारी ,चित्र मुगदल,कृस्नदत्त पालीवाल,परमानद पंचाल आदि .मगर दूसरे सत्र की महफ़िल लुटते हैं इंदौर से आये प्रभु जोशी माहौल में आई गर्मीं को उनकी शांत और गंभीर आवाज़ धीरे धीरे ठंडा करती है वे बताते हैं कैसे कैसे साम्राज्यवादी ताकतें हमारी भाषा और एकता पर हमला कर रही हैं.उनकी आवाज़ उनके टीवी से जुड़ाव की भी कहानी कहती है.आखिर में कैलाश पन्त चीजों को समेटे हुवे कहते हैं -दरअसल हिंदी के खिलाफ शाजिस का माहौल तभी पैदा कर दिया गया जब संविधान में ''इंडिया दैट इज भारत '' कहा गया ...वे सवाल करते हैं क्या कभी किसी प्रापर नउन का ट्रांसलेशन होता है?
पूरी संगोष्ठी को देखें तो ये कह सकते हैं ये एक सफल गोष्ठी रही ''अपनी भाषा ''के लोग जिस उद्देश्य से आये थे उसमें वे सफल होते हैं.वे ये याद दिलाने में कामयाब जरुर होते हैं- '' याद रहे हिंदी की बोलियाँ ही उसकी ताकत हैं''..हिंदी और उसकी बोलियों को अलग थलग होने की चिंता से वे दिल्ली के बुद्धिजीवियों को चिन्तित जरुर करते हैं.लेकिन वहीं जरा व्यापक दृष्टीकोण से देखें तो ये संगोष्ठी आगे की लड़ाई कैसे हो? उसका तरीका क्या हो ?इस बारे में कोई दिशा दिखने में असफल दिखती है..
-अंजुले श्याम मौर्य
anjuleshyam@gmail.com

Wednesday, June 30, 2010

बनियों की गली





सैयद जैगम इमाम (दोस्तों, नवोदित साहित्यकार सैयद जैगम इमाम की 30 नवम्बर 2009 को लोकार्पित इंकलाबी किताब “दोज़ख़” को मशहूर प्रकाशक राजकमल प्रकाशन ने बैस्ट सेलर की श्रेणी में शुमा...र किया है )

गली में बनियों का राज था। ढेर सारी दुकानें, आढतें और न जाने कितने गोदाम। सब के सब इसी गली में थे। बनिए और उनके नौजवान लडके दिन भर दुकान पर बैठे ग्राहकों से हिसाब किताब में मसरुफ रहते। शुरु -शुरु में वो इस गली से गुजरने में डरती थी, न जाने कब किसकी गंदी फब्‍ती कानों को छलनी कर दे। फ‍िर क्‍या पता किसी का हाथ उसके बुरके तक भी पहुंच जाए। डरते सहमते जब वो इस गली को पार कर लेती तब उसकी जान में जान आती। मगर डर का यह सिलसिला ज्‍यादा दिनों तक नहीं चला। उसने गौर किया ग्राहकों से उलझे बनिए उसकी तरफ ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देते। हां इक्‍का दुक्‍का लडके उसकी तरफ जरुर देखते मगर उनकी जिज्ञासा उसके शरीर में न होकर के उस काले बुर्के में थी जिससे वो अपने को छुपाए रखती थी।
वो पढती नहीं थी, छोटी क्‍लास के बच्‍चों को पढाती थी। तमाम शहर में मकान तलाशने के बावजूद जब उसके अब्‍बा को मकान नहीं मिला तो हारकर इस बस्‍ती का रुख करना पडा। अब्‍बा ने मशविरा दिया था ''बेटी घर से बाहर न निकलो'' मगर उनकी आवाज में ज्‍यादा दम नहीं था। घर में कमाने वाला कोई न था फ‍िर वो कुछ रुपयों का इंतजाम कर रही थी तो इसमें बुरा क्‍या था। दिन गुजर रहे थे उसके स्‍कूल जाने का सिलसिला जारी था। उसने नोट किया इधर बीच बनियों की गली के ठीक बाद पडने वाले चौराहे पर पास के मदरसे के तीन चार लडके रोज खडे रहते हैं। उसने ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया। दिल में एकबारगी आवाज उठी , भला इनसे क्‍या डरना। एक दिन अजीबो गरीब बात हुई। चौराहे पर एक लडका उसके ठीक सामने आ गया। हाथ उठाकर बडी अदा से कहा अस्‍सलाम आलेकुम। वो चौंक गई। उसके लडकों से इस तरह की उम्‍मीद कतई नहीं थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। कलेजा थर थर कांप रहा था। वापसी में भी वही लडके उसके सामने खडे थे। उसने घबरा कर तेज तेज चलना शुरु कर दिया। लडके उसकी तरफ बढे मगर वो फटाक से बनियों की गली में घुस गई। लंबी -लंबी दाढी, सफाचट मूंछ ओर सिर पर गोल टोपी रखने वाले लडकों के इरादे उसे वहशतनाक लगे। रात को वो सो नहीं सकी। रात भर जहन में यही ख्‍याल आता रहा कि कल क्‍या होगा। उसने ख्‍वाब भी देखा , बडी दाढी वाले एक लडके ने उसका दुपट्टा खींच लिया है।
स्‍कूल जाने का वक्‍त हो गया था। वो दरवाजे तक गई मगर फ‍िर लौट आई। आज फ‍िर बदतमीजी का सामना करना पडा तो.....। उसने अब्‍बा से दरख्‍वास्‍त की, उसके साथ स्‍कूल तक चलें। उसने खुलकर कुछ नहीं कहा। अब्‍बा ने भी कुछ नहीं पूछा। मगर उन्‍हें बनियों पर बेतहाशा गुस्‍सा आया। दांत किचकिचाते हुए उन्‍होंने अंदाजा लगा लिया कि बनिये के किसी लडके ने उनकी बेटी को छेडा है। बेटी को गली के पार पहुंचाने के बाद वो वापस लौटने लगे। चौराहे पर अभी भी वो लडके खडे थे। उसने अब्‍बा से स्‍कूल तक चलने की बात कही। आज लडके कुछ नहीं बोले। वापसी में उसका दिल जोर जोर से धडक रहा था। मगर नहीं चौराहे पर लडके नदारद थे। उसने खुदा का शुक्र अदा किया। घर पहुंची तो अम्‍मा उसकी परेशानी का सबब पूछ रहीं थीं। अम्‍मा बार बार बनियों को गाली भी दे रहीं थीं। उन्‍होंने उसे गली छोडने की सलाह भी दी। मगर वो कुछ नहीं बोली।
आज अब्‍बा घर नहीं थे। उसे पहले की तरह अकेले स्‍कूल जाना था। गली से चौराहे पर पहुंचते वक्‍त उसका कलेजा धाड धाड बज रहा था। चौराहे पर लडके हमेशा की तरह उसके इंतजार में खडे थे। वो हिम्‍मत बांधकर आगे बढी मगर फ‍िर एक लडका उसके सामने आ गया। उसके बढने के अंदाज ने उसकी रीढ में सिहरन पैदा कर दी। उसके मुंह से चीख निकल गई। वो वापस बनियों की गली की तरफ दौड पडी। गली के बनिये सारा तमाशा देख रहे थे। शरीफ लडकी से छेडछाड उन्‍हें रास नहीं आई। गली के नौजवान मदरसों के इन लुच्‍चों की तरफ दौड पडे। जरा सी देर में पूरी गली के बनिये शोहदों की धुनाई कर रहे थे। भीड लडकों को पीट रही थी और वो चुपचाप किनारे से स्‍कूल निकल गई। वापस में चौराहा खामोश था। लडके नदारद थे। गली से गुजरते वक्‍त उसे ऐसा लगा कि हर कोई उसे देख रहा है। मगर ये आंखें उसे निहारने के लिए नहीं उठी थीं। ये सहानूभूति और गर्व से उठी नजरें थीं जो उसे बता रहीं थीं कि चिंता मत करो हम अपनी बहू बेटियों के साथ छेडछाड करने वालों का यही हश्र करते हैं।
घर पहुंची तो देखा अब्‍बा एक मौलवी से गूफ्तगू कर रहे हैं। ये उस मदरसे के प्रिंसिपल थे जहां मार खाने वाले लडके तालीम हासिल कर रहे थे। अब्‍बा ने उसे हिकारत की नजर से देखा। उसे कुछ समझ नहीं आया। कमरे में गई अम्‍मा से मसला पूछने। जबान खोली ही थी कि एक थप्‍पड मुंह पर रसीद हो गया।
उसे समझ नहीं आया कि आखिर माजरा क्‍या है। अम्‍मा सिर पटक रहीं थीं, उसने खानदान के मुंह पर कालिख पोत दी। अम्‍मा बयान कर करके रोए जा रहीं थीं। उनकी बुदबुदाती आवाज में उसे सिर्फ इतना समझ आया, बनिए के लडकों से उसकी यारी थी जिन्‍होंने उन शरीफ तालिबे इल्‍मों को पीट दिया। उसका कलेजा मुंह को आ गया, आंखों में आंसू की बूंद छलक आई। अगली सुबह घर में खाना नहीं पका। उसके स्‍कूल जाना छोड दिया।

नक्सलबाड़ी आंदोलन

-- नक्सलबाड़ी आंदोलन --

संक्षिप्त इतिहास

नक्सलवाद का जन्म पिछली सदी के साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन की कोख से हुआ। नक्सलबाड़ी गांव के कुछ छोटे किसानों ने स्थानीय सामंतों के शोषण के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया और उन्हें सजा दी। नक्सलबाड़ी आंदोलन को बौद्धिक वर्ग का जबरदस्त समर्थन मिला, तो इसके पीछे वक्त का तकाजा और व्यवस्था से मोहभंग के कारण उपजी रिक्तता को भरने की आक्षंका भी थी। चारु मजूमदार और कानू सान्याल जैसे नेताओं के नेतृत्व में इसका विस्तार पूरे पश्चिम बंगाल में हुआ। लेकिन सत्तर के दशक के दमन और राज्य में वामपंथी पार्टी के सत्तारुढ़ होने के बाद भूमि सुधार कार्यक्रम के लागू होने के साथ यह आंदोलन पड़ोसी राज्यों की ओर कूच कर गया। पिछले करीब तीन दशक में नक्सली आंदोलन में आई विकृतियों ने उसे बौद्धिक समर्थन से भले ही महरूम किया हो, पर समाज के दबे-कुचले वर्गों, आदिवासियों में उसने काफी पैठ बना ली है। यही कारण है कि आज देश के दर्जन भर से अधिक राज्यों के लिए नक्सलवाद सिरदर्द बन गया है।

-- प्रमुख नक्सली गुट --

नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े तीन मुख्य संगठन हैं

नक्सली आंदोलन से जुड़े तीन संगठन मुख्य रूप से सक्रिय रहे हैं- एमसीसी (माउस्टि कम्युनिस्ट सेंटर)- वर्ष १९८४ में इस गुट को बिहार में ठोस पहचान मिली। बाद में इसने अनेक बर्बर नरसंहारें को अंजाम दिया। इसका प्रभाव बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहा है। पीडीब्ल्यू (पीपुल्स वार ग्रुप)- वर्ष १९८० में कोंडपल्ली सीतारमैया ने तेलंगाना में इस उग्रवादी संगठन की नींव रखी। आंध्र प्रदेश में इसका व्यापक प्रभाव है। जनशक्ति- यह गुट भी आंध्र प्रदेश में ही सक्रिय रहा है। लेकिन बाद में ये तीनों संगठन सीपीआई (माओस्ट) नामक संगठन की छतरी के नीचे एकत्रित हो गए।

(साभार अमर उजाला)

Friday, June 25, 2010

फ्लाईओवर।



यह लेख उस छात्र की कॉपी से लिया गया है, जिसे निबंध लेखन प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला है। निबध का विषय था - फ्लाईओवर।

फ्लाईओवर का जीवन में बहुत महत्व है, खास तौर पर इंजीनियरों और ठेकेदारों के जीवन में तो घणा ही महत्व है। एक फ्लाईओवर से न जाने कितनी कोठियां निकल आती हैं। पश्चिम जगत के इंजीनियर भले ही इसे न समझें कि भारत में यह कमाल होता है कि पुल से कोठियां निकल आती हैं और फ्लाईओवर से फार्महाउस।

खैर, फ्लाईओवर से हमें जीवन के कई पाठ मिलते हैं, जैसे बंदा कई बार घुमावदार फ्लाईओवर पर चले, तो पता चलता है कि जहां से शुरुआत की थी, वहीं पर पहुंच गए हैं। उदाहरण के लिए ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के पास के फ्लाईओवर में बंदा कई बार जहां से शुरू करे, वहीं पहुंच जाता है। वैसे, यह लाइफ का सत्य है, कई बार बरसों चलते -चलते यह पता चलता है कि कहीं पहुंचे ही नहीं।

फ्लाईओवर जब नए-नए बनते हैं, तो एकाध महीने ट्रैफिक स्मूद रहता है, फिर वही हाल हो लेता है। जैसे आश्रम में अब फ्लाईओवर पर जाम लगता है, यानी अब फ्लाईओवर पर फ्लाईओवर की जरूरत है। फिर उस फ्लाईओवर के फ्लाईओवर के फ्लाईओवर पर भी फ्लाईओवर चाहिए होगा। हो सकता है कि कुछ समय बाद फ्लाईओवर अथॉरिटी ऑफ इंडिया ही बन जाए। इसमें कुछ और अफसरों की पोस्टिंग का जुगाड़ हो जाएगा। तब हम कह सकेंगे कि फ्लाईओवरों का अफसरों के जीवन में भी घणा महत्व है।

दिल्ली में इन दिनों फ्लाईओवरों की धूम है। इधर से फ्लाईओवर, उधर से फ्लाईओवर। फ्लाईओवर बनने के चक्कर में विकट जाम हो रहे हैं। दिल्ली गाजियाबाद अप्सरा बॉर्डर के जाम में फंसकर धैर्य और संयम जैसे गुणों का विकास हो जाता है, ऑटोमैटिक। व्यग्र और उग्र लोगों का एक ट्रीटमेंट यह है कि उन्हें अप्सरा बॉर्डर के जाम में छोड़ दिया जाए।

फ्लाईओवर बनने से पहले जाम फ्लाईओवर के नीचे लगते हैं, फिर फ्लाईओवर बनने के बाद जाम ऊपर लगने शुरू हो जाते हैं। इससे हमें भौतिकी के उस नियम का पता चलता है कि कहीं कुछ नहीं बदलता, फ्लाईओवर का उद्देश्य इतना भर रहता है कि वह जाम को नीचे से ऊपर की ओर ले आता है, ताकि नीचे वाले जाम के लिए रास्ता प्रशस्त किया जा सके।

फ्लाईओवरों का भविष्य उज्जवल है। कुछ समय बाद यह सीन होगा कि जैसे डबल डेकर बस होती है, वैसे डबल डेकर फ्लाईओवर भी होंगे। डबल ही क्यों, ट्रिपल, फाइव डेकर फ्लाईओवर भी हो सकते हैं। दिल्ली वाले तब अपना एड्रेस यूं बताएंगे - आश्रम के पांचवें लेवल के फ्लाईओवर के ठीक सामने जो फ्लैट पड़ता है, वो मेरा है। कभी जाम में फंस जाएं, तो कॉल कर देना, डोरी में टांग कर चाय लटका दूंगा। संवाद कुछ इस तरह के होंगे - अबे कहां रहता है आजकल रोज अपने फ्लैट से पांचवें लेवल का जाम देखता हूं, तेरी कार नहीं दिखती। सामने वाला बताएगा - आजकल मैं चौथे लेवल के फ्लाईओवर में फंसता हूं। अबे पांचवें लेवल के जाम में फंसा कर, वहां हवा अच्छी लगती है। अबे, ले मैं तेरे ऊपर ही था, पांचवें वाले लेवल पर और तू चौथे लेवल पर, कॉल कर देता, तो झांककर बात कर लेता। आने वाले टाइम में दिल्ली वाले अपने मेहमानों को फाइव डेकर जाम दिखाने लाएंगे।

Thursday, June 17, 2010

देश में प्रमुख आतंकी घटनाएं


प्रमुख ब्लास्ट-- पुणे में आतंकी हमला, ९ की मौत –
-- मुंबई हमला – ( सशस्त्र आतंकियों ने आठ जगहों पर गोलीबारी की )
-- दिल्ली ब्लास्ट – ( ३० मिनट के भीतर पांच विस्फोट)

-- अहमदाबाद ब्लास्ट -- ( ७० मिनट में १६ ब्लास्ट से थर्राया शहर)
-- जयपुर ब्लास्ट – (७० से ज्यादा की मौत, २०० घायल, देश भर में सुरक्षा अलर्ट)
-- मुंबई बम ब्लास्ट (१२ मार्च १९९३) – (२५० लोगों की मौत, ७०० घायल)
-- कोयंबटूर बम ब्लास्ट (१४ फरवरी १९९८) – (५८ लोगों की मौत, २०० घायल)
-- बैंगलौर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर हमला (२००५) – (एक व्यक्ति की मौत, चार घायल)
-- दिल्ली बम ब्लास्ट (२९ अक्टूबर २००५) – (५९ की मौत, २०० घायल)

-- घाटकोपर बम ब्लास्ट (२ दिसंबर २००२) – (२ लोगों की मौत, ५० घायल)




ट्रेन हादसे

-- बैंगलोर एक्सप्रेस ट्रेन हादसा (२१ दिसंबर २००२) – (२० लोगों की मौत, ८० घायल)
-- जौनपुर ट्रेन हादसा (२८ जुलाई २००५) – (१३ लोगों की मौत, ५० घायल)
-- समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट हादसा (१९ फरवरी २००७) – (६८ लोगों की मौत, ५० घायल)
-- मुंबई ट्रेन हादसा (११ जुलाई २००६) – (२०९ लोगों की मौत, ७१४ घायल)
-- ब्रह्म्पुत्र ट्रेन हादसा (३० दिसंबर १९९६) – (३३ लोगों की मौत)

मंदिरों पर हमला

-- राम जन्म भूमि पर हमला (५ जुलाई २००५) – (५ आतंकियों समेत १ नागरिक की मौत)
-- वाराणसी केसंकट मोचन मंदिर पर हमला ( ७ मार्च २००६ ) – (२८ लोगों की मौत, १०१ घायल)
-- अक्षरधाम मंदिर पर हमला (२५ सितंबर २००२) – (२९ लोगों की मौत, ७९ घायल)
-- रघुनाथ मंदिर पर हमला (३० मार्च २००२) – (७ लोगों की मौत, २० घायल)



मसजिदों पर हमला

-- मालेगांव ब्लास्ट (८ सितंबर २००६) –(३७ लोगों की मौत, १२५ घायल)
-- हैदराबाद मक्का मसजिद ब्लास्ट (१८ मई २००७) – (१६ लोगों की मौत, १०० घायल)


अन्य हमले

-- सीआरपीएफ सेंटर पर हमला (१ जनवरी २००८) – (सात जवानों समेत आठ की मौत)

-- अब्दुल गनी की मीटिंग में हमला – (मई २००२ में आतंकका शिकार बने लोन)




(साभार अमर उजाला)

Wednesday, June 16, 2010

देश में प्रमुख आतंकी संगठन

इंडियन मुजाहिद्दीन का परिचय
कई संगठनों का मिलाजुला रूप इंडियन मुजाहिद्दीन देश में जड़ें जमाए कई संगठनों का मिलाजुला रूप है। इन संगठनों में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट्स ऑफ इंडिया (सिमी), पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और बांग्लादेश स्थित हरकत उल जिहाद-ए-इस्लामी (हूजी) से जुड़े आतंकी शामिल हैं।

लश्कर-ए-तैयबा का परिचय
दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन
लश्कर-ए-तैयबा दक्षिण एशिया का अति सक्रिय व बहुत बड़ा आतंकवादी संगठन है। इस संगठन की स्थापना मोहम्मइ सईद ने अफगानिस्तान के कुनर प्रांत में की थी। वर्तमान में लश्कर-ए-तैयबा लाहौर और पाकिस्तान में स्थित है और पाक अधिकृत कश्मीर में इसके बहुत सारे मिलिटेंट कैंप हैं। लश्कर-ए-तैयबा ने भारत के खिलाफ बहुत सारी आतंकी वारदातों को अंजाम दिया है। इस संगठन का लक्ष्य कश्मीर से भारत का आधिपत्य समाप्त करना है। लश्कर के कुछ सदस्यों पर मुशर्रफ की नीतियों के खिलाफ, विशेषकर करांची में हमले करने के आरोप भी लगे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया, भारत और पाकिस्तान ने इस संगठन को प्रतिबंधित किया हुआ है। कुछ खुफिया एजेंसियों के अनुसार पाकिस्तान द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से बचने के लिए लश्कर-ए-तैयबा ने २००२ में अपना नाम बदलकर जमात-अल-दवात रख लिया है।

इसलामिक हुजी का परिचय
१९८० में हुई थी स्थापना
आतंकी संगठन हरकत-उल-जिहाद-ए-इसलामी की स्थापना १९८० में की गई। दो पाकिस्तानी संग्ठन जमात-उल-उलेमा-ए-इसलामी (जुल) और तबलीग-ए-जमात(तीज) को मिलाकर हुजी का गठन हुआ।

हिजबुल मुजाहिद्दीन का परिचय
खूखांर आतंकी संगठन है हिजबुल
आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन की स्थापना १९८९ में पाकिस्तान में हुई थी। वर्तमान में यह पाकिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर से आतंवादी गतिविधियों को संचालित करता है और भारत प्रशासित कश्मीर में अति सक्रिय है। संगठन अपने आप को स्वतंत्रता सेनानी मानता है जबकि भारव व दूसरे मुल्कों की नजरों में यह एक खूंखार आतंकवादी संगठन है। हिजबुल मुजाहिद्दीन का मुख्यालय पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में है। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तानी खूफिया एजेंसी आईएसआई के उकसाने पर आतंकवादी संगठन अल-बदर से अलग होकर कुछ आतंकवादियों ने पृथक हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन की नींव रखी थी। वर्तमान समय में इस संगठन का मुखिया सईद सलाउद्दीन है। ३० नवंबर २००५ को यूरोपीय यूनियन की आतंकवादी संगठनों की सूची में हिजबुल मुजाहिद्दीन को भी शामिल किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने भी आतंकवादी संगठन के रूप में इसकी घोषणा कर चुका है। यूरोपीय यूनियन के सदस्यों ने इस संगठन को आर्थिक मदद और दूसरे अन्य सामान मुहैया कराने पर पाबंदी लगाई हुई है। वर्तमान में हिजबुल मुजाहिद्दीन कश्मीर से संचालित सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन है। इसके साथ ही दोनों ओर के कश्मीर से इसे जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। यही कारण है कि हिजबुल मुजाहिद्दीन कश्मीर का सबसे सक्रिय आतंकवादी संगठन बन गया है। संगठन का नाम- हिजबुल मुजाहिद्दीन संक्षिप्त नाम- एचएम स्थापना वर्ष- १९८९ मुख्यालय- मुजफ्फराबाद सदस्य संख्या- १५०० मुखिया- सईद सलाउद्दीन इलियास पीर साहिब प्रभावी क्षेत्र- पुंछ, रजौरी और डोडा जिले। दूसरे नेता- मास्टर अहसान धर, गुलाम रसूल शाह इलियास इमरान राही, अब्दुल हमीद बट्ट इलियास बॉम्बर खान, मुस्तफा खान। संगठन स्वरूप- जिहादी

लश्कर-ए-कहर का परिचय
आतंक की दुनिया में सबसे नया नाम
लश्कर-ए-कहर से दुनिया उस समय रू-ब-रू हुई जब इस आतंकवादी संगठन ने ११ जुलाई २००६ में मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए सात बम विस्फोटों की जिम्मेदारी ली। हालांकि यह संगठन बहुत ही छोटा है और आतंकवादी संगठनों में सबसे नया नाम है। लेकिन इस संगठन के तार अल-कायदा और लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े हुए हैं। भारतीय खूफिया एजेंसी का मानना है कि लश्कर-ए-कहर एक फर्जी संगठन है और इसका कोई अस्तित्व है।

जैश ए मोहम्मद का परिचय
२००० में हुई थी स्थापना
जम्मू-कश्मीर में सक्रिय तमात आतंकवादी संगठनों में सबसे नया आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद सबसे नया है। इसकी स्थापना फरवरी २००० में की गई। जैश-ए-मोहम्मद का मुखिया मसूद अजहर है जिसे दिसंबर १९९९ में इंडियन एयरलाइंस के अपहरण के बाद भारत सरकार ने दो दूसरे चरमपंथियों के साथ रिहा कर दिया। इस संगठन में हरकत-उल-मुजाहिद्दीन और हरकत-उल-अंसार के कई चरमपंथी शामिल हैं। खुद मौलाना मसूद अजहर हरकत-उल-अंसार का महासचिव रह चुका है और उसके हरकत-उल-मुजाहिद्दीन से भी संपर्क रहे हैं। उसे १९९४ में श्रीनगर में गिरफ्तार किया गया था। लेकिन १९९९ में अफगानिस्तान के कंधार में उसकी रिहाई के बाद वो पाकिस्तान में नजर आया। तभी से उसने मृतप्रायः हरकत-उल-अंसार में जान फूंकने की कोशिश की। हालांकि पाकिस्तान में रहकर मौलाना मसूद अजहर के अपने संगठन में जैश-ए-मोहम्मद के गतिविधियां चलाने से अंतरराष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है क्योंकि विमान अपहरण की घटना से मौलाना अजहर पहले से ही काफी सुर्खियों में आ गया था।

इंडियन मुजाहिद्दीन का परिचय
कई संगठनों का मिलाजुला रूप
इंडियन मुजाहिद्दीन देश में जड़ें जमाए कई संगठनों का मिलाजुला रूप है। इन संगठनों में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट्स ऑफ इंडिया (सिमी), पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और बांग्लादेश स्थित हरकत उल जिहाद-ए-इस्लामी (हूजी) से जुड़े आतंकी शामिल हैं।

अहले हदीज का परिचय
पाक में लश्कर की स्थापना करने वाला संगठन
अहले हदीज चरमपंथी इस्लामी संगठन है। यह इस्लाम के बहावी मत को मानता है। ऐसा माना जाता है कि अहले हदीज ने ही दहशत और खौफ का पर्याय बन चुके आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा की पाकिस्तान में स्थापना की थी। गौरतलब है कि लश्कर भारत में हुई कई बड़ी आतंकी वारदातों की जिम्मेदारी ले चुका है। अहले हदीज के कई कार्यकर्ता ‘सिमी’ के कैडर माने जाते हैं। वहीं, अहले हदीज से जुड़े लोगों ने भी कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया

‘सिमी’ का परिचय
१९७७ में ‘सिमी’ की स्थापना
सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया)भारत में प्रतिबंधित संगठन है। केंद्र सरकार ने इसे आतंकवादी संगठन मानते हुए वर्ष २००१ से प्रतिबंधित कर रखा है। सिमी की स्थापना अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने १९७७ में की थी। इसका घोषित उद्देश्य भारत को इस्लामिक राष्ट्र में बदलना है। इस काम के लिए यह संगठन हिंसा या जोर-जबरदस्ती को गलत नहीं मानता।

(साभार अमर उजाला)

Monday, June 7, 2010

इस राजनीति को कैसे देखें और क्यों देखें?

Ravish kumar
naisadak.blogspot.com
राजनीति एक छोटी फिल्म है। छोटी इसलिए क्योंकि अच्छी फिल्म होने के बाद भी दिलचस्प और बेजोड़ की सीमा से आगे नहीं जा पाती। कोई धारणा नहीं तोड़ती न बनाती है। अभिनय और संवाद और बेहतरीन निर्देशन ने इस फिल्म को कामयाब बनाया है। कहानी राजनीति के बारे में नई समझ पैदा नहीं करती। नए यथार्थ को सामने नहीं लाती। लेकिन इतनी मुश्किल कहानी और किरदारों को सजा कर ही प्रकाश झा ने बाज़ी मारी है और एक अच्छी फिल्म दी है। मैं बस इसे एक अच्छी फिल्म मानता हूं। यादगार नहीं। जो कि हो सकती थी।

मनोज बाजपेयी और रणबीर कपूर के अभिनय में एक किस्म का रेस दिखता है। पुराना और नया टकराते हैं। अपने-अपने छोर पर दोनों का अभिनय ग़ज़ब का है। मनोज की संवाद अदायगी काफी बेहतरीन है। अभिनय से अपने किरदार में जान डाल दी है। गुस्सा और लाचारी और महत्वकांझा का मिक्स है। रणबीर के अभिनय का भाव अच्छा है। एक अच्छा मगर शातिर लड़का।

महाभारत का दर्शन एक खानदान के भीतरघातों की कहानियों में ऐसे फंसता है कि सबकी जान चली जाती है। कोई अर्जुन नहीं,कोई दुर्योधन नहीं और कोई युधिष्ठिर नहीं है। सब बिसात पर मोहरों को मारने वाले हत्यारे हैं। किसी की नैतिकता महान नहीं है। सब पतित हैं। इस पारिवारिक युद्ध का कथानक बेहद निजी प्रसंगों में कैद होकर रह जाता है। सब कुछ सिर्फ चाल है।

इतनी रोचक फिल्म महान होते होते रह गई,बस इसलिए क्योंकि तमाम हिंसा के बीच विचारधारा को ओट बनाने की कोशिश नहीं की गई है। कम से कम विचारधाराओं की नीलामी ही कसौटी पर रखते। वही चालबाज़ियां हैं जिन्हें हम जानते हैं और जिनके कई रुपों को अभिनय के ज़रिये दोबारा देखते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति विचारधारा की कमीज़ पहन कर घूमा करती है। उस ढोंग का पर्दाफाश नहीं दिखता जो खोखली और असली विचारधारा के बीच की जंग में पारिवारिक चालबाज़ियां छुप कर की जाती हैं। फिल्म में पूरी राजनीति प्रोपर्टी का झगड़ा बन कर रह जाती है। किसी का किरदार राजनेता का यादगार चरित्र नहीं बनाता। सब के सब मामूली मोहरे। हत्या और झगड़ा।

सूरज का किरदार ही है जो महाभारत से मिलता जुलता है। लेकिन नाम भर का। आज की दलित राजनीति के बाद भी यह दलित किरदार नाजायज़ निकला,मुझे काफी हैरानी हुई। बहुत उम्मीद थी कि सूरज बीच में आकर पारिवारिक खेल को बिगाड़ देगा लेकिन वो तो हिस्सा बन जाता है। आखिर तक पहुंचते पहुंचते दलित राजपूत का ख़ून निकल आता है। कुंती का नाजायज़ गर्भ दलित के घर में जाकर एक ऐसा लाचार कर्ण बनता है जो बाद में अपने राजपूती ख़ून को बचाने के लिए दोस्त दुर्योधन को ही दांव पर लगा देता है। ये वो वादागर कर्ण नहीं है जो सब कुछ त्याग देता है। फिल्म के आखिरी सीन में अजय देवगन समर प्रताप सिंह के रोल में रणबीर कपूर पर गोली नहीं चलाता। वीरेंद्र प्रताप सिंह मारा जाता है। कर्ण की दुविधा वीरेंद्र प्रताप सिंह के लिए जानलेवा बन जाती है। अगर सूरज समर पर गोली चला देता तो कहानी पलट जाती। लेकिन निर्देशक ने उसकी भी मौत तय कर रखी थी। समर प्रताप के ही हाथ। जिसे सूरज अपना खून समझ कर छोड़ देता है उसे समर प्रताप एक नाजायज़ ख़ून समझ कर मार देता है। बाद में फ्लाइट पकड़ कर अमेरिका चला जाता है पीएचडी जमा करने।


कैटरीना कैफ सोनिया गांधी की तरह लगती होगी लेकिन इसका किरदार सोनिया जैसा नहीं है। सारे किरदारों के कपड़े लाजवाब हैं। मनोज का कास्ट्यूम सबसे अच्छा है। चश्मा भी बेजोड़ है। लगता है प्रकाश झा बेतिया स्टेशन से खरीद कर लाये थे। कैरेक्टर को दुष्ट लुक देने के लिए चश्मा गज़ब रोल अदा करता है। अर्जुन रामपाल का अभिनय भी अच्छा है। धोती कुर्ता में नाना पाटेकर भी जंचते हैं। आरोप-प्रत्यारोपों की हकीकत सामने लाने के लिए महिला यूथ विंग की नेता का अच्छा इस्तमाल है। दलित बस्ती में मर्सेडिज़ की सवारी शानदार है। सबाल्टर्न का मामूली प्रतिरोध। नसीरूद्दीन शाह का किरदार कुछ खास नहीं है। कम्युनिस्ट नेता एक रात की ग़लती का प्रायश्चित लेकर कहीं खो जाता है। ये किरदार वैसा ही है जैसा जेएनयू जाएंगे तो सड़क छाप लड़के कहा करते हैं कि लड़की पटानी हो तो लेफ्ट में भर्ती हो जाया कीजिए। नसीर होते तो विचारधाराएं टकरातीं। विचारधाराओं की बिसात पर शह-मात के खेल होते तो कहानी यादगार बनती। लेकिन भाई ही लड़ते रह गए।

प्रकाश झा का कमाल यही है कि जो भी कहानी सामने थी उसके साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के बीच के झगड़े को बड़ा कैनवस दिया है। उसकी बारीकियों को खूबी से सामने लाया है। भीड़ की अच्छी शूटिंग की है। सहायक निर्देशकों ने भी खूब मेहनत की है। पहले हिस्से में फिल्म अच्छी लगती है लेकिन जब चाल चलने की संभावना खत्म हो जाती है और कहानी नतीजे की तरफ बढ़ती है तब निर्देशक सारे किरदारों को खत्म करने का ठेका ले लेता है। काश अगर इन्हीं दावेदारों में से कोई विजेता बन कर उभरता तो आखिर में ताली बजाने का मौका मिलता। एक सहानुभूति पैदा होती है। सिनेमा हाल से कुछ लेकर निकलते। फिर भी फिल्म देखते वक्त नहीं लगा कि टाइम खराब कर रहे हैं। यह फिल्म इसलिए भी अच्छी है क्योंकि सबने अच्छा काम किया है। कमजोरी कहानी की कल्पना में रह गई है। वर्ना दूसरा हिस्सा फालतू की मारामारी में बर्बाद नहीं होता। आप देख कर आइयेगा। मैं स्टारबाज़ी नहीं करता। इस फिल्म को देखना ही चाहिए।

Friday, June 4, 2010

वे अच्छे नागरिक है

अंजुले

वे अच्छे नागरिक है,वे आदर्श आदमीं हैं क्योंकि वे चुप हैं,वे
बुरे हो भी नहीं सकते क्योंकि वे किसी के फटे में टांग नहीं अड़ाते,वे
अच्छे आदमीं है,वे बुरे कभी हो ही नहीं सकते,वे जंग हार गए हैं और ये बात
उन्होंने लड़ने से पहले ही मान ली है,इसलिए वे अच्छे और आदर्श नागरिक
हैं.....

देश के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान

आजादी के बाद पहली बार है देश के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान मैन्यूफैक्चरिंग सेकम है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2009-10 के जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग योगदान7,19,975करोड़ रुपए(16.1%)है,
जबकि कृषि,वानिकी वफिशिंग का योगदान 6,51,901करोड़ रुपए (14.6%) है। लेकिन उद्योग के बढ़ने
के बावजूद वहां रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं। कृषि पर न...िर्भर आबादी70करोड़ होगी,उद्योग पर बमुश्किल 15 करोड़।सरकार रोजगार के आंकड़े नहीं देती-अर्थकाम

Wednesday, June 2, 2010

प्रोफेसनल कोर्स या सामान्य कोर्स


हाल ही में सभी बोर्ड के परिणाम घोषित हो चुके हैं। सर्वप्रथम सभी सफल अभ्यर्थियों को हार्दिक बधाई!

परिणाम घोषित होते ही हर अभ्यर्थी और उसके पिता कॉलेज में एडमिशन के भागदौड़ में शामिल हो चुके हैं।
संजय हाल ही में बारहवीं पास किया है। उसके पिता श्याम सुंदर चाहते हैं कि उसका पुत्र साइंस से ग्रेजुएशन करे, लेकिन संजय कंप्यूटर या मीडिया में अपना कॅरियर संवारना चाहता है। संजय का सोचना सही है। सामान्य कोर्स करने के बाद कोई प्रोफेशनल कोर्स करने में समय अधिाक लगता है। इसलिए बारहवीं के बाद ही प्रोफेशनल कोर्स करने पर समय की बचत हो सकती है।
वर्तमान समय में प्रोफेशनल कोर्स की डिमांड है। सामान्य स्नातक को नौकरी में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट का भी यही मानना है कि भारत में 90 प्रतिशत ग्रेजुएट नौकरी के लायक नहीं हैं। उदारीकरण के बाद भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पध्र्दा करने के लिए कुशल कामगारों की मांग बढ़ी। रोजगार तो बढ़ा लेकिन कुशल लोगों की कमी बनी रही। यही वजह है कि हॉस्पिटेलिटी, टूरिज्म, रिटेल, प्रबंधान, बीमा, टेलीकॉम जैसे क्षेत्रों में जितने कुशल लोगों की डिमांड है उतना मिल नहीं पा रहा है। इन सभी क्षेत्रों की वर्तमान जरूरतों के हिसाब से सामान्य शिक्षा ग्रहण करना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए आवश्यक है प्रोफेशनल कोर्स की। भविष्य में प्रोफेशनल्स की कमी की आशंका को देखकर ही सरकार ने शिक्षित युवाओं को कुशल पेशेवर बनाने का निर्णय लिया है जिसके तहत स्किल डेवलपमेंट सेंटर खोले जाएंगे।
असमंजस का शिकार
लंबे समय से स्कूल के अहाते से बाहर निकलकर छात्र कॉलेज-विश्वविद्यालय जैसे बृहद संसार में प्रवेश करते हैं। बारहवीं के बाद ऐसे चौराहे पर खड़े होते हैं, जहां से एक खास रास्ते का चुनाव करना होता है। ऐसा रास्ता चुनना होता है जो उनकी मनपसंद कॅरियर के मुकाम तक पहुंचाता है। पहले की अपेक्षा अब विकल्पों की कमी नहीं है। अधिाक विकल्प होने की वजह से विद्यार्थी में असमंजस की भी स्थिति भी उतनी होती है। इसी समय विद्यार्थी को तय करना होता है- प्रोफेशनल कोर्स या फिर सामान्य कोर्स।
कमी नहीं विकल्प की
वर्तमान में परंपरागत विषयों के साथ-साथ सैकड़ों नये विकल्प सामने उपलब्धा हैं। इन विकल्पों में से कई ऐसे विकल्प हैं जो विगत कुछ वर्षों में अपनी उपस्थिति बहुत ही प्रभावशाली ढंग से दर्ज किया है। आइए, ऐसे ही क्षेत्रों के बारे में जानते हैं:
एनीमेशन: विगत वर्ष हनुमान और रोडसाइड रोमियो जैसे एनीमेशन फिल्मों के साथ भारतीय कंपनियां और स्टूडियो इस ओर कदम बढ़ाया है। भारत में कम कीमत पर फिल्म तैयार हो जाने के कारण भी कई विदेशी प्रोडक्शन कंपनियां यहां फिल्म बनाने के लिए समझौता किया है। इसी कड़ी में यशराज फिल्म्स ने वाल्ट डिजनी के साथ समझौता किया है। फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में यह उद्योग लगभग 0.31 बिलियन डॉलर का था जो वर्ष 2012 तक 24 प्रतिशत की वृध्दि दर्ज कर 0.94 बिलियन डॉलर का हो जायेगा।
मीडिया-एंटरटेनमेंट: मंदी के कारण मीडिया एवं एंटरटेनमेंट उद्योग पर असर पड़ा, लेकिन छात्रों का इस क्षेत्र कोर्स के प्रति रूझान कम नहीं हुआ है। फिक्की के एक रिपोर्ट के अनुसार यह उद्योग वर्ष 2011 तक एक लाख करोड़ रुपये तक का हो जायेगा। इस क्षेत्र में फिल्म प्रोडक्शन से लेकर टीवी चैनलों में काफी अवसर उपलब्ध हैं।
टेलीकॉम: सरकार कई नयी टेलीकॉम कंपनियों को लाइसेंस प्रदान कर रही है और भारत में एक नयी पीढ़ी (थ्री जी) की मोबाइल सेवा लांच किया गया है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में नये तकनीक का विस्तार होगा जिसके लिए लगभग डेढ़ लाख प्रोफेशनल्स की जरूरत होगी। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2010 तक भारत में 500 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता हो जायेंगे। इस क्षेत्र में टेलीकॉम सॉफ्टवेयर इंजीनियर, टेलीकॉम सिस्टम सॉल्यूशन इंजीनियर, कस्टमर सर्विस एक्जीक्यूटिव और टावर कनेक्शन जैसे में बेहतर संभावनाएं हैं।
लॉ: विगत कुछ वर्षों से परंपरागत कॅरियर के अलावा इस क्षेत्र में एक नया कॅरियर उभर कर सामने आया है लॉ प्रोसेसिंग आउटसोर्सिंग (एलपीओ)। एलपीओ काफी तेजी से विकास कर रहा है। नैस्कॉम मार्केट इंटेलिजेंस रिपोर्ट के अनुसार भारत में एलपीओ कारोबार 2010 तक छह अरब डॉलर को पार कर जायेगा। इसके अलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लीगल एडवाइजर और कंसल्टेंट जैसे पद के लिए काफी डिमांड बढ़ा है।
बीमा: बीमा क्षेत्र हमेशा से ही आसानी से उपलब्धा हो जाने वाला कॅरियर रहा है। इस क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोल दिये जाने के बाद इसमें काफी रोजगार सृजन हुए। इतने के बावजूद भारत की लगभग मात्र 22 प्रतिशत लोग ही बीमा करवा पाये हैं, जबकि अमेरिका और यूरोपीय देशों में लगभग शत-प्रतिशत लोग अपना बीमा करवाए होते हैं। देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने निजी कंपनियों से मिल रही चुनौतियों का सामना करने के लिए वर्ष 2011 तक 11 लाख एजेंट भर्ती करने की योजना है। इसके अलावा रिलायंस लाइफ 90 हजार, मेटलाइफ इंडिया 32 हजार और टाटा एआईजी लगभग 27 हजार लोगों को भर्ती करने की योजना है।
बैंकिंग: वैश्विक मंदी के बावजूद भी भारतीय बैंक इन दिनों काफी विकास कर रहा है। साथ ही अपने विस्तार के लिए नयी भर्तियां भी कर रहे हैं। हाल ही में देश की सबसे बड़ी बैंक भारतीय स्टेट बैंक ने 25 हजार लोगों को भर्ती करने की घोषणा की है। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अमूमन हर हफ्ते नये भर्ती की घोषणा होती रहती हैं। निजी क्षेत्र के भी कई बैंकों में नयी भर्तियां हो रहे हैं। आने वाले दो वर्षों में निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी बैंक आईसीआईसीआई बैंक एक लाख लोगों को रोजगार प्रदान करेगी।
मैनेजमेंट: मंदी के बावजूद कैंपस प्लेसमेंट कम नहीं हुआ है। मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए छात्रों का रूझान भी कम नहीं हुआ है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कैट परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों में निरंतर बढ़ोतरी हुई है। बी-स्कूलों में दाखिला के लिए देश में कई एंट्रेंस टेस्ट आयोजित किये जाते हैं। इनमें से किसी परीक्षा में शामिल होकर बेहतर अंक प्रतिशत के साथ पसंदीदा बी-स्कूल में दाखिला लिया जा सकता है।
हेल्थ सेक्टर: प्राइसवाटरहाउसकुपर्स के अनुसार, हेल्थ सेक्टर 2012 तक 40 बिलियन डॉलर का हो जायेगा। इस क्षेत्र में आगामी कुछ वर्षों में लगभग 60 अरब डॉलर निवेश की संभावना है। जापान की कंपनी दाइची सैंक्यो ने भारत की सबसे बड़ी फार्मा कंपनी रैनबैक्सी का अधिाग्रहण किया है। इसके अलावा कई विदेशी कंपनियां अपनी इकाई भारत में खोल रहा है। साथ ही भारत में मैनपावर की कम कीमत होने की वजह से अपने शोधा कार्य भी भारत में करवा रहे हैं। इसके लिए काफी प्रोफेशनल्स की मांग होगी।
टूरिज्म: नवंबर माह में मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद भारत में विदेशी सैलानियों के आने में कमी दर्ज की गयी थी लेकिन विगत कुछ माह में सुधारे हालात के बाद सैलानियों के आने की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। वर्ल्ड ट्रेवल एंड टूरिज्म के मुताबिक भारत ने वर्ष 2008 में टूरिज्म से लगभग 100 बिलियन डॉलर की कमाई अर्जित की है जो वर्ष 2018 तक 9.4 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़कर 275.5 बिलियन डॉलर का हो जायेगा। हाल के वर्षों में भारत ने मेडिकल टूरिज्म से भी काफी घन किया है।

क्या करें, क्या न करें

कोर्स चुनने से पहले अपनी रुचि, क्षमता व कॅरियर विकल्प पर विचार अवश्य करें।
दूसरों की देखा-देखी में कोर्स का चयन न करें। पारंपरिक कोर्स के बजाय नये विकल्पों पर भी विचार करें।
अनिर्णय की स्थिति में काउंसलर की सलाह लें।
लक्ष्यहीन या दिशाहीन पढ़ाई न करें।
जिस संस्थान से कोर्स करना चाहते हैं, उसकी मान्यता के बारे में पता जरूर कर लें।
कोर्स चुनते समय कॅरियर से संबंधिात विकल्प संभावनाओं का भी धयान रखना चाहिए।

Tuesday, May 25, 2010

क्या ग़लत है, क्या सही है?

क्या ग़लत है, क्या सही है दरअसल ये सवाल ही नहीं है। नज़र बदले तो अच्छा बदतर हो जाता है, बदतर कई बार बेहतर बन जाता है, दूध जब रूप बदले तो बनता दही है, दूध का रूप बदलना ग़लत है या दही का जमना सही है। क्या ग़लत है, क्या सही है दरअसल ये सवाल ही नहीं है।जगह बदले तो अक्सर बातें बदल जाती हैं लोग बदलते हैं, चाहतें बदल जाती हैं, कहीं दिन तो कहीं रातें बदल जाती हैं, क्या दिन का ढलना ग़लत है या रातों का आना सही है । क्या ग़लत है, क्या सही है दरअसल ये सवाल ही नहीं है।

Wednesday, April 28, 2010

एक सवाल

पंकज रामेन्दू

एक सवाल हर बार सोचता हूं कि जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,तो बारह आने खर्च कर डालूंगा औऱ चाराने बचा लूंगा, कभी ज़रूरत पड़े,तो इन चारानों से बारानों का मज़ा ले सकूं,लेकिन जब भी वक्त की मुट्ठी खुलती है तो हथेली पर चाराने ही नज़र आते हैं पूरी जिंदगी चाराने को बाराने बनाने में होम हो जाती है, कई बार लगता है कि जब ये रुपया हो जायेगी तो क्या जिंदगी, जिंदगी रह जाएगी ?

Saturday, April 17, 2010

जवान देश बूढ़े लोग


जवान देश बूढ़े लोग

-उन दोस्तों के लिए जो समय से पहले बूढ़े हो चले हैं ।

मेरे कुछ दोस्त हैं । पैदाईश की उम्र को पैमाना मानें तो माशाअल्लाह गबरू-जवान कहलाने लायक हैं । पर जवानी उन्ामें झलकती नहीं । जोश नहीं मारती । पतला वाला तीस के करीब पहुंच चुका है । मोटा दो साल पीछे है। ढलती शाम के साथ ही दोनों के कंधे झुक जाते हैं । चेहरे पर पीलापन हावी होने लगता है । बुझा-बुझा सा दिखता चेहरा चिल्ला चिल्ला कर बुढ़ापे से उनकी बढ़ती नजदीकी को बयान करते हैं ।

बात महज जवानी से दूर होते बॉडी-लैंग्वेज तक रूकी रहती तो खैर था । क्यां बताएं इन दिनों उनकी बातचीत का लहजा भी खतरनाक हो चला है । महज चार-पांच साल पुरानी नौकरी में पचास साल का अनुभव पा चुके इन दोस्तों के तर्क भी अजब गजब है । हर ओर छाई उदासी और खतरे को खुद से सबसे पहले जोड़ने लेत हैं । मुझे बहुत फिक्र है मेरे भाईयों । क्या होगा तुम दोनों का ।

उनको देख ऐसा लगता है जैसे छत के उपर मुंडेर पर काला लिहाफ ओढ़े खतरनाक बुढ़ापे का साया उन्हें लगातार पास बुला रहा है । झूलते चेहरों वाले, सफेद बालों और थकी हुई आंखों पर चश्मा लगाने वाला वह चेहरा डरा रहा है । और जवानी । जैसे दूर किसी छत पर खड़ी अलमस्त जवान औरत की तरह बन गई है। पास आने को तरसा रही है । लगातार बढ़ती दूरी का नशतर चुभा रही है ।

वैसे यह इन दो दोस्तों की बात नहीं है । ऑफिस में जुटे कामकाजी सहयोगियों पर भी ढलती हुई उम्र का असर दिखता नजर आ रहा है । मिला-जुलाकर एक बेचारगी सी झलकती है सबके चेहरे पर । लड़ने को कोई जज्बा नहीं बचा है किसी में । पैदा हो गए थें । सो किसी तरह समय काटने के लिए खा पका रहे हैं ।

सच कहूं तो गहरे अर्थों में यह मुल्क भी बूढ़ा हो चला है । समय से पहले रिटायरमेंट प्राप्त कर चुका बुजूआü मुल्क । विश्वास नहीं होता हो , अपने करीब मौजूद किसी छोटे बच्चे से सवाल पूछीए । जिंदगी और मौत के बारे में उसके विचार जानने की कोशिश कीजिए । उससे तीन गुणे ज्यादा उम्र का पढ़ा लिखा विदेशी भी उतना नहीं बता पाएगा । जितना हमारे देश का छोटा बच्चा जिंदगी और मौत के बारे में अधिकार भाव से बोलता नजर आएगा ।
आप शायद इसे संस्कारों की संज्ञा देंगे । पर मैं इसमें खो गए बचपन की बालपन को देखता हूं । खेलने कूदने की उम्र में ही गंभीर हो चला है । तत्व ज्ञान जैसी बातें करता है। और हम मुग्ध हैं । वाह! इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया ।

मैने सुना था कि आबादी के उम्र के लिहाज से भारत एक युवा देश है । देश की साठ फीसदी आबादी जवान कहलाने लायक है । हां उम्र के पैमाने पर सही है । पर दिमागी तौर पर सब के सब मौत का इंतजार करती हुई एक बेचारी भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं है । मामला चाहे कोई भी हो । कोई लहर पैदा नहीं होती । संसद में पैसे लेकर सरकार गिराने की बात हो । बंगलुरु या अहमदाबाद में बम Žलॉस्ट की बात हो । सड़क खराब हो जाने की बात हो । या सरेशाम किसी युवति की इज्जत के साथ होने वाले खिलवाड़ की बात हो । हम पर कोई असर नहीं पड़ता । जब तक हम सुरक्षित हैं । हमें परवाह ही नहीं । आखिर हम जवान जो ठहरे ! इंडिया इज यंग ! ! ! !

जानता हूं अभी भी यकिन नहीं आता होगा । मान ही नहीं सकते । विश्व गुरू रह चुके हैं हम । ऐसे कैसे मान लेंगे । मैंने कहा और मान लें । अरे मैं कौन हूं । एक छोटा प्रयोग करके देखीए । देश और दुनिया में जुड़ी बातों पर लोगों के विचार सुनिए । खाट पर पड़े चर चर करने वाले बुढ़ापा राग और निंदा रस में डूबी व्या�याओं के अलावा कुछ और नहीं दिखेगा । एक भी आदमी ऐसा नहीं दिखता या बोलता कि हम नया क्या कर सकते हैं। पता नहीं क्यों उम्र से जवान लोग भी जवानी की भाषा भूल गए हैंं ।

हर मोड़ पर । हर चेहरे पर एक लाचारी दिखती है । बस यूं ही घीसटते रहने की लाचारी । कोई रिस्क लेने को तैयार नहीं है । यही नहीं कोई आगे बढ़े तो एक दो नहीं चालीस लोग उसे रोकने को आगे आ जाते हैं । मां-बाप रोकते हैं । भाई बहन लगाम लगा देतेे हैं । दोस्त समाज सब जुट जाते हैं । अरे रोको इसे । यह पागल है जवानी की बात करता है । अरे कुछ नहीं होगा । बहुत आए और बहुत गए ।

बसों में सफर करते वक्त आस पास लोगों के चेहरे देखीएगा । एक बेचारगी सी दिखेगी । सबके चेहरे पर सम भाव बेचारगी । साथ साथ लटके रहने का भाव । उ�मीद बस दो ही है । किसी तरह पास वाली सीट पर बैठने का अवसर मिल जाए । या जल्दी बस स्टॉप आ जाए ।

बूढ़ा मुल्क और सोच भी क्या सकता है । मजेदार बात यह है कि लोग तर्क खोज लेते हैं । तर्क के रंग से बाल काले करने का प्रयास करते हैं । कहते हैं कि देखों जिंदगी ऐसे ही चलती है भाई । देखो बाल काले हैं हमारे । जवानी बची है यार । थोथे तर्क । पर कमजोर हाथों में भारी तलवार कितनी देर टिकती है । खुद ही सर या पांव पर दे मारते हैं हम सारे ।

अपने एक बुढ़ाते दोस्त के छोटे भाई की कहानी सुनाऊं आपको । जिंदगी और मौत के बारे में अधिकार भाव से बोलते नजर आते हैं । नौकरी जो करते हैं उसकी फिक्र कम है । जज्बा नहीं पेट भरने का रूटीन है । बेहतर तरीके से कैसे काम करते हैं यह पूछते ही चुप हो जाते हैं । पर जिंदगी और मौत पर चर्चा छेड़ीए कि उनका व्या�यान शुरू हो जाता है । मेरी एक महिला मित्र हैं। हां, वाकई हैं । उनकी छोटी बहन भी है । एक दिन शुरू हो गइंü । जिंदगी और जिंदगी के बाद की जिंदगी पर । उनकी रूचि देखकर मैं भी दंग रह गया । पूछा, जिंदगी को कौन सी दिशा देना चाहती है । बोलीं , होय वही जो राम रची राखा। अब ऐसे लोगों से हम जवानी की उ�मीद क्या करें । होय वहीं , जो राम रची राखा। हां अधूरा छोड़कर लिखना बंद कर रहा हूं । बाकी जल्द ही । किस्तों में । यहीं ।