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Monday, June 7, 2010

इस राजनीति को कैसे देखें और क्यों देखें?

Ravish kumar
naisadak.blogspot.com
राजनीति एक छोटी फिल्म है। छोटी इसलिए क्योंकि अच्छी फिल्म होने के बाद भी दिलचस्प और बेजोड़ की सीमा से आगे नहीं जा पाती। कोई धारणा नहीं तोड़ती न बनाती है। अभिनय और संवाद और बेहतरीन निर्देशन ने इस फिल्म को कामयाब बनाया है। कहानी राजनीति के बारे में नई समझ पैदा नहीं करती। नए यथार्थ को सामने नहीं लाती। लेकिन इतनी मुश्किल कहानी और किरदारों को सजा कर ही प्रकाश झा ने बाज़ी मारी है और एक अच्छी फिल्म दी है। मैं बस इसे एक अच्छी फिल्म मानता हूं। यादगार नहीं। जो कि हो सकती थी।

मनोज बाजपेयी और रणबीर कपूर के अभिनय में एक किस्म का रेस दिखता है। पुराना और नया टकराते हैं। अपने-अपने छोर पर दोनों का अभिनय ग़ज़ब का है। मनोज की संवाद अदायगी काफी बेहतरीन है। अभिनय से अपने किरदार में जान डाल दी है। गुस्सा और लाचारी और महत्वकांझा का मिक्स है। रणबीर के अभिनय का भाव अच्छा है। एक अच्छा मगर शातिर लड़का।

महाभारत का दर्शन एक खानदान के भीतरघातों की कहानियों में ऐसे फंसता है कि सबकी जान चली जाती है। कोई अर्जुन नहीं,कोई दुर्योधन नहीं और कोई युधिष्ठिर नहीं है। सब बिसात पर मोहरों को मारने वाले हत्यारे हैं। किसी की नैतिकता महान नहीं है। सब पतित हैं। इस पारिवारिक युद्ध का कथानक बेहद निजी प्रसंगों में कैद होकर रह जाता है। सब कुछ सिर्फ चाल है।

इतनी रोचक फिल्म महान होते होते रह गई,बस इसलिए क्योंकि तमाम हिंसा के बीच विचारधारा को ओट बनाने की कोशिश नहीं की गई है। कम से कम विचारधाराओं की नीलामी ही कसौटी पर रखते। वही चालबाज़ियां हैं जिन्हें हम जानते हैं और जिनके कई रुपों को अभिनय के ज़रिये दोबारा देखते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति विचारधारा की कमीज़ पहन कर घूमा करती है। उस ढोंग का पर्दाफाश नहीं दिखता जो खोखली और असली विचारधारा के बीच की जंग में पारिवारिक चालबाज़ियां छुप कर की जाती हैं। फिल्म में पूरी राजनीति प्रोपर्टी का झगड़ा बन कर रह जाती है। किसी का किरदार राजनेता का यादगार चरित्र नहीं बनाता। सब के सब मामूली मोहरे। हत्या और झगड़ा।

सूरज का किरदार ही है जो महाभारत से मिलता जुलता है। लेकिन नाम भर का। आज की दलित राजनीति के बाद भी यह दलित किरदार नाजायज़ निकला,मुझे काफी हैरानी हुई। बहुत उम्मीद थी कि सूरज बीच में आकर पारिवारिक खेल को बिगाड़ देगा लेकिन वो तो हिस्सा बन जाता है। आखिर तक पहुंचते पहुंचते दलित राजपूत का ख़ून निकल आता है। कुंती का नाजायज़ गर्भ दलित के घर में जाकर एक ऐसा लाचार कर्ण बनता है जो बाद में अपने राजपूती ख़ून को बचाने के लिए दोस्त दुर्योधन को ही दांव पर लगा देता है। ये वो वादागर कर्ण नहीं है जो सब कुछ त्याग देता है। फिल्म के आखिरी सीन में अजय देवगन समर प्रताप सिंह के रोल में रणबीर कपूर पर गोली नहीं चलाता। वीरेंद्र प्रताप सिंह मारा जाता है। कर्ण की दुविधा वीरेंद्र प्रताप सिंह के लिए जानलेवा बन जाती है। अगर सूरज समर पर गोली चला देता तो कहानी पलट जाती। लेकिन निर्देशक ने उसकी भी मौत तय कर रखी थी। समर प्रताप के ही हाथ। जिसे सूरज अपना खून समझ कर छोड़ देता है उसे समर प्रताप एक नाजायज़ ख़ून समझ कर मार देता है। बाद में फ्लाइट पकड़ कर अमेरिका चला जाता है पीएचडी जमा करने।


कैटरीना कैफ सोनिया गांधी की तरह लगती होगी लेकिन इसका किरदार सोनिया जैसा नहीं है। सारे किरदारों के कपड़े लाजवाब हैं। मनोज का कास्ट्यूम सबसे अच्छा है। चश्मा भी बेजोड़ है। लगता है प्रकाश झा बेतिया स्टेशन से खरीद कर लाये थे। कैरेक्टर को दुष्ट लुक देने के लिए चश्मा गज़ब रोल अदा करता है। अर्जुन रामपाल का अभिनय भी अच्छा है। धोती कुर्ता में नाना पाटेकर भी जंचते हैं। आरोप-प्रत्यारोपों की हकीकत सामने लाने के लिए महिला यूथ विंग की नेता का अच्छा इस्तमाल है। दलित बस्ती में मर्सेडिज़ की सवारी शानदार है। सबाल्टर्न का मामूली प्रतिरोध। नसीरूद्दीन शाह का किरदार कुछ खास नहीं है। कम्युनिस्ट नेता एक रात की ग़लती का प्रायश्चित लेकर कहीं खो जाता है। ये किरदार वैसा ही है जैसा जेएनयू जाएंगे तो सड़क छाप लड़के कहा करते हैं कि लड़की पटानी हो तो लेफ्ट में भर्ती हो जाया कीजिए। नसीर होते तो विचारधाराएं टकरातीं। विचारधाराओं की बिसात पर शह-मात के खेल होते तो कहानी यादगार बनती। लेकिन भाई ही लड़ते रह गए।

प्रकाश झा का कमाल यही है कि जो भी कहानी सामने थी उसके साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के बीच के झगड़े को बड़ा कैनवस दिया है। उसकी बारीकियों को खूबी से सामने लाया है। भीड़ की अच्छी शूटिंग की है। सहायक निर्देशकों ने भी खूब मेहनत की है। पहले हिस्से में फिल्म अच्छी लगती है लेकिन जब चाल चलने की संभावना खत्म हो जाती है और कहानी नतीजे की तरफ बढ़ती है तब निर्देशक सारे किरदारों को खत्म करने का ठेका ले लेता है। काश अगर इन्हीं दावेदारों में से कोई विजेता बन कर उभरता तो आखिर में ताली बजाने का मौका मिलता। एक सहानुभूति पैदा होती है। सिनेमा हाल से कुछ लेकर निकलते। फिर भी फिल्म देखते वक्त नहीं लगा कि टाइम खराब कर रहे हैं। यह फिल्म इसलिए भी अच्छी है क्योंकि सबने अच्छा काम किया है। कमजोरी कहानी की कल्पना में रह गई है। वर्ना दूसरा हिस्सा फालतू की मारामारी में बर्बाद नहीं होता। आप देख कर आइयेगा। मैं स्टारबाज़ी नहीं करता। इस फिल्म को देखना ही चाहिए।