
अभय मिश्र
अशोक कुमार की एक फिल्म का गाना याद आ रहा है। बोल थे- रेलगाड़ी रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक, बीच वाले स्टेशन बोले रुक रुक रुक रुक। बचपन में यह गाना गाते हुए भाई बहनों के साथ रेलगाड़ी का खेल खेलना हमारा प्रिय शगल होता था। खेलते वक्त बीच में गाड़ी रोक कर घर के अन्य सदस्य खुद को गाड़ी में बैठाने का आग्रह करते थे और हम उन्हें अपनी रेल में बिठा कर नानी के य़हां छोड़ देने का उपक्रम करते .
बचपन में खेले जाने वाले इस खेल की याद हाल में एक खबर से आई। एक चैनल ने दिखाया कि बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में लोग पटरियों पर खड़े बीस रुपये का नोट हाथ में लेकर हिलाते हैं। ट्रेन आती है और रुक जाती है. ड्राइवर बीस रुपये हाथ में लेता है और लोग आराम से ट्रेन में चढ़ जाते हैं। यह लोगों की रेल ड्राइवरों के साथ मिल कर बनाई हुई व्यवस्था है।
लोगों का कहना है कि रेल मंत्री भी तो यही चाहते हैं कि सबको रेलवे की सुविधा मिले। रेल आपकी अपनी संपत्ति है- इस सूत्र को पूरी तरह अपने में समाहित करने इन गांव वालों को स्टेशन जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. वे आराम से घर के पास ही सुविधा प्राप्त कर लेते हैं, बिना इस बात की चिंता किए कि ट्रेन के इस तरह बार-बार रोके जाने से दूसरे दूसरे लोगेों को कितनी असुविधा और रेलवे को राजस्व का कितना नुकसान होता होगा। उन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पडता कि उस ट्रेन में बैठा कोई बेटा शायद अपने बीमार बूढे मां-बाप को देखने जा रहा होगा और जितनी बार गाड़ी रुकती होगी उतनी बार उसके मन में हज़ार आशंकाएं उठ खड़ी होती होंगी. गाड़ी में जा रही किसी बारात को देर हो रही होगी या नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहे किसी बेरोज़गार को समय पर न पहुंच पाने का डर सता रहा होगा. यही नही, यह सुविधा उठाने वालों को यह अहसास ही नहीं रहता होगा कि उनकी वजह से कोई बीमार समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाया और समय पर कारखाने न पहुंच पाने के कारण किसी की आधे दिन की दिहाड़ी काट ली गई। ऐसे कितने अफसानों के साथ एक ट्रेन के भीतर हज़ारों लोग यात्रा करते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली हो या बघेलखंड के पिछड़े इलाके में बसा मेरा गांव, सार्वजनिक सुविधाओं का जितना दुरुपयोग हम करते हैं उसकी नज़ीर कही और देखने को नहीं मिलती । पिछले दिनों लंबे अंतराल के बाद गांव जाने का मौका मिला। रीवा से गांव की दूरी मात्र नब्बे किलोमीटर है। लेकिन यह सफर तय करने में सात या आठ घंटे तक का समय लगता है। क्योंकि हर मुसाफिर अपने घर के समाने बस रुकवाना चाहता है। थोड़ी थोड़ी दूरी पर खड़े रहते है, एक जगह खड़ा रहने में मानों उनका अहं आड़े आता हो। कोई ब्राह्मण या ठाकुर किसी दलित के साथ खड़े होकर कैसे बस का इंतज़ार कर सकता है ।
बहरहाल, बस धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी कि चुरहट पार करते ही फिर रुक गई। बारह झांक कर हक़ीकत जानने की कोशिश की, बस किसी नई-नवेली दुल्हन के लिए रुकवाई गई थी, और वह दूर से लंबा घूंघट और चमकीलीी गुलाबी साड़ी में लिपटी धीरे-धीरे बड़बड़ाता हुआ गाड़ी को रोके रहा और दुल्हन का इंतज़ार करता रहा. उसके पास कोई चारा नहीं था, क्योंकि उसे रोज़ इसी रास्ते निलना है और यहां बसों में तोड़-फोड़ मारपीट रोज़ की बात है।
इस तरह ट्रेन-बसों को रोकने की प्रवृत्ति सिर्फ बिहार में नहीं है। खंडवा-इंदौर रेल लाइन पर दूध वाले ड्राइवर को थोड़े से दूध के बदले में कहीं भी रुकने पर मजबूर कर देते हैं। नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर रेलवे का एक विज्ञापन आता था- हम बेहतर इसे बनाएं और इसका ळाभ उठाएँ, रेल रेल। हमने इसे बेहतर तो पता नहीं कितना बनाया, लेकिन इसका मनमुताबिक लाभ ज़रूर उठा रहे हैं।
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