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Saturday, March 1, 2008

ब्लाग में होती नंगाई

पंकज रामेन्दू


कहावत बहुत पुरानी है मगर कभी इसका असर कम नहीे हुआ है, हमाम में सभी नंगे होते हैं, और जब सब नंगे हों तो दूसरे को कम या ज़्यादा नहीं आंका जा सकता है। आज कल ब्लागों के बीच जो वाक् और युद्ध और शक्ति प्रदर्शन चल रहा है। वो हमाम में बैठे एक नंगे के दूसरे के नंगत्व पर हंसने जैसा हो रहा है। हिंदी लेखकों और कवियों हमेशा से बेचारे रहे, हर बार लिखी हुई रचना का वापस आ जाना, उसमें सुधार की सलाह मिलना, और कलम घिसते-घिसते हाथों से तक़दीर की लकीर का मिट जाना एक हिंदी रचनाकार के लिए नियति रही है। हिंदी रचनाकार जब महान होता है तो हर महान की तरह उसकी ज़बान में भी यह दर्द आ ही जाता है कि फलां प्रकाशक ने मुझे भगाया था, फलां पत्रिका औऱ अखबार में मेरी रचनांए नहीं छपी। हर रचनाकार की रचना को अच्छा ना बताकर वापस करने की प्रथा रही है, लेकिन जब वो बड़ा हो जाता है तो उसकी वो ही लौटी हुई रचना बड़े मजे से छापी जाती है और चाव से साथ पड़ी जाती है। पहल हर समय यह प्रश्न बना रहता था कि ऐसा क्यों. क्या कारण है कि जो रचना पहले वापस आ गई वो दोबारा बेहतर से बेहतरीन हो जाती है। दरअसल हिंदी साहित्य में केकड़े पलते हैं, जो किसी भी दूसरे केकड़े को आगे बढ़ता हुआ देख उसकी टांग खींच लेते हैं।
हिंदी साहित्य में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी रचनाकार को आसानी से मिल गया हो, सभी साहित्यकारों ने उसकी मदद की है, यही कारण है कि हिंदी के विकास की दुहाई देने वाले तमाम लोग खुद की इसकी रेड़ मारते रहते हैं। गिद्ध के समान हमेशा सब कुछ झपट लेने की मानसिकता हमारे तथाकथित साहित्यकारों की एक विधा रही है।
अब इस काम को आग बढ़ाने का बीढ़ा उठाया है, इन ब्लागरों ने, यह भी वही हरकत कर रहे हैं जो हिंदी साहित्यकार करते हैं, जिसके कारण हिंदी साहित्य और तमाम खूबसूरत कृतियां लोगों तक आने से पहले ही मर जाती हैं। लगे हुए हैं एक दूसरे की जूतमपैजार करने में। सब एक दूसरे को गरिया कर अपनी लकीर बड़ी करने में लगे हुए हैं, इन सभी लोगों का एक ही सिद्दांत हो चुका है, मेरी साड़ी से तेरी साड़ी सफेद कैसे।
लेकिन इन तमाम पहलुओं में एक बात पर गौर करना सभी लोग भूल रहे हैं, या यूं कहे कि गुस्से में सभी का ध्यान इस ओर नहीं गया है कि यह प्रचार का एक बाज़ारु तरीका भी हो सकता है। अभी कुछ दिनों पहले सराय में ब्लागरों की मीटिंग हुई थी, मैं भी वहां पहुंचा था, वहां कोई सज्जन थे( नाम मुझे याद नहीं आ रहा है क्योंकि मैें उनसे पहली बार ही मिला था और चेहरे और नाम याद रखने में मेरी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर है) उन्होने कहा था कि हमें ब्लाग में सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना होगा कि इसकी पाठक संख्या कैसे बढ़ती है, मीडिया वाले जहां भी अपनी नाक घुसेड़ेंगे वहां वो टी आर पी की ही गंध चाहते हैं, इसे कहा जाता है, बिल्ली की नज़र में छींछडे। तो वो ब्लागरों की संख्या बढ़ाने को लेकर काफी चिंतित थे, इस चिंता के पीछे का सच तो वो ज़्यादा बेहतर बता सकते हैं। इसके अलावा एक चीज़ और देखने को मिली थी कि जिस प्रकार किसी कविता गोष्ठी में अगर कोई नया कवि बगैर किसी का हाथ थामे पहुंच जाए , तो उसके साथ जैसा बर्ताव वरिष्ठ कवियों द्वारा किया जाता है, यानि जैसे ही वो अपनी कोई रचना प्रस्तुत करेगा तो कई वरिष्ठ चेहरों पर संतो वाली मुस्कान लहर जाती है, ऐसे ही कुछ लोग थे जिनके चेहरे पर वो संतो वाली मुस्कान थी। अविनाश जी को तो हमेशा से बहस में मज़ा आया है, उनकी कम्युनिस्ट विचार धारा उन्हे हमेशा से ऐसा करने पर मजबूर करती रहती है, तो वो तो बहस का भरपूर आनंद उठा रहे थे।
यह पूरी बात बताने के पीछे मंतव्य यही था कि अभी जो ब्लाग पर मारकुटाई चल रही है, वो महज एक प्रचार का तरीका भी हो सकता है, जिसे देशी भाषा में कह सकते हैं . तू मेरी खुजा,में तेरी खुजाता हूं।

लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अपने को होशियार और दूसरे को बेवकूफ समझना बुरे वक्त की निशानी होती है।

1 comment:

Babita Asthana said...

Mahoday ji agar subhi ek dusre ki tang kheechenge to bhala isse kuch ho sakega kiya????????????? nahi kabhi nahi.
To kiyo na kuch posative socha jaye............
BABITA ASTHANA