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Friday, March 7, 2008

"अपना क्या जाता है "।

आजकल मैं रिसर्च कर रहा हूं। रिसर्च का मतलब तो आप सभी लोग जानते होंगे। जब किसी विषय पर दोबारा खोज की जाती है तो वह रिसर्च कहलाती है। जैसे आप रास्ते से गु़ज़र रहे हों, कोई सुन्दर कन्या आप को दिख जाती है, आप को दोबारा से उसकी सुंदरता को आंकना ही रिसर्च हो। लेकिन मेरा उद्देश्य आप को शोध के विषय में जानकारी देना नहीं है, वो तो बात निकली तो दूर तलक जा पहुंची। तो मै क्या कह रहा था, हां रिसर्च, मैं आजकल एक रिसर्च कर रहा हूं औऱ इस शोध से मुझे जो बोध हुआ है उससे मैं काफी हैरत में हूं औऱ मेरी दिली तमन्ना थी कि आप भी मेरी हैरानी में शामिल हों। दरअसल मैं काफी दिनों से सोच रहा था कि इस दुनिया ने जितनी तरक्की की क्या उतनी काफी थी या उससे भी बेहतर कुछ हो सकता था औऱ अगर हो सकता था तो क्यों नही हुआ।
फिर भारत को लेकर भी एक सवाल उभरा, अब भाई मैं भारत का रहने वाला हूं तो मेरा अपने देश के लिए भी तो कोई दायित्व बनता है कि नहीं, जिस देश में जन्म लिया उसके लिए कुछ कर तो पाते नहीं हैं तो कम से कम सोच तो सकते हैं, वैसे भी भारत में ज्यादातर लोगों का अधिकतर समय दो ही बातों में व्यतीत होता है- सोच औऱ शौच। खैर हम विषय से ना भटके, हां तो भारत को लेकर प्रश्न यह उभरा कि, क्या कारण हैं कि हम विकास को लेकर इतने शील बने हूए हैं ?
अब दिमाग में सवाल रूपी खुजली उठी है तो खुजाने के लिए जवाब रूपी नाखून की आवश्यकता भी होगी, यही सोचकर मैं शोध करने पर मजबूर हुआ और इस नतीजे पर पहुंचा कि दुनिया की तमाम बड़ी घटनाओं औऱ विकास में बाधक महज़ एक वाक्य की मानसिकता है। जिसके कारण समस्याएं खड़ी हुई हैं। यह एक वाक्य कई प्रकार की परेशानियों की मूल जड़ है। यह वाक्य है "अपना क्या जाता है "।
आप खुद ही देखिए, बिजली का एक तार गया हुआ है औऱ नज़र दौड़ाओ तो उस तार में उलझे हुए कई तार दिख जाएंगे। अरे व्यवस्था है भई, मुफ्त बिजली घर पहुंचाने के लिए। बैठे ड्राइंगरूम में हैं लेकिन बाथरूम का बल्ब औऱ बेडरूम का पंखा भी अपनी कर्तव्यपरायणता निभाता रहता है औऱ क्यों न निभाए मालिक उसके लिए पैसे देते हैं, (कब देते हैं, कहां देते हैं. किसे देते हैं, औऱ कितना देते हैं, यह मेरा विषय नहीं है)। फिर देश पर बिजली संकट गहराए तो गहराए, अपना क्या जाता है।
पानी नल में आ रहा है नाली में जा रहा है, हम क्यों उसे नाली में जाने से रोकें ? हमारे यहां तो कहा भी गया है,रमता जोगी, बहता पानी इनके मन की किसने जाती। अब भाई पानी की नाली में जाने की उमंग है तो जाए, अपना क्या जाता है।
सड़क पर जा रहे हैं रास्ते में प्रेशर बन गया तो क्या करें, नहीं कर सकते बर्दाश्त फिर खुले वातावरण का मजा ही कुछ औऱ है। पान खा रहे हैं, अब क्या मुंह में थूक भरे घुमते रहें आखिर मुंह की भी कुछ महिमा है तो भैया मुंह की महिमा को बनाए रखने के लिए दीवारों, सड़कों को रंगना भी ज़रूरी है बाद में सफाई विभाग जाने उनका काम जाने आखिर हमारे पैसों पर पल रहे हैं वो सोचें इस विषय में अपना क्या जाता है।
दोस्त का फोन आया लगे है बतियाने,एक घंटे या इससे ऊपर बात हुई,जिसमें बीच बीच में कम से कम 30 बार, और सुनाओ, औऱ बताओ जैसे वाक्यांश का उच्चारण करके तल्लीनता का प्रदर्शन भी हुआ। अरे यार ऐसे ही तो बात आगे बढ़ेगी, बिल भी तो मित्र का ही बढ़ेगा अपना क्या जाता है।
कई बार तो मैं सोचता हूं कि हिटलर ने हज़ारों लोगों को गैस चैंबर में ठूंस दिया था, उसके पीछे भी हिटलर की यही मानसिकता रही होगी, मरे तो मरे, अपना क्या जाता है।
मुगलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो जयचंद ने सोचा होगा मैं क्यों किसी का साथ दूं जिसको लड़ना हो लड़े मरे अपना क्या जाता है।
अंग्रेज दो सौ सालों तक राज कर गए, हमारे राजा धीरे धीरे गुलाम बनते गए, सबने यही सोचा होगा कि बगल वाला जान वो बनेगा गुलाम अपना क्या जाता है।
देश आज़ाद हो गया, टुकड़ों में बंट भी गया हम इंसान से हिंदू-मुस्लिम बन बनकर मरे जा रहे हैं। एक कौम और है, वो है सियासतदारों की कौम, वो सोचती है कि और लड़े अच्छा है मरे, अपना क्या जाता है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान पर दादागिरी की और फिर ईराक पहुंच गया, सबको निपटा रहा है, सब तमाशा देख रहे हैं और सभी सोच रहे हैं कि भैया अपना क्या जाता है।
आजकल एक शब्द बहुत चलन में है एनकाउंटर, हिंदी मे इसे मुठभेड़ कहते हैं, वैसे पुलिसवाले जब इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो एक हाथ में बंदूक की मुठ होती है और सामने एक भेड़ होती है। एक आदमी के मरने की खबर छपती है, मरनेवाला आतंकवादी या वगैरह-वगैरह बताया जाता है, पड़ौसी सोचते हैं कि बरसों से बगल में रह रहा था तब तो कभी महसूस नहीं हुआ, अब पुलिसवाले कहते हैं तो..... पुलिस सोचती है कि भई आतंक के साये में जीने वाले को आतंकवादी बनाने में समय कितना लगता है और फिर सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें आखिर अपना क्या जाता है।
क्रिकेटर से लेकर रूलिंग पार्टी को चलायमान रखने वाले सपोर्टर तक सभी की यही सोच बन चुकी है, चाहे देश मैच हारे या सत्ता की तलवार से जनता का सर कलम हो हमें कुछ नहीं सोचना है,हमें कुछ नहीं करना है आखिर अपना क्या जाता है।
आपको क्या लगता है ? मेरी शोध के बारे में आपके क्या विचार हैं ? अब आप विचार बनाएं या ना बनाएं मुझे जो कहना था सो कह दिया, सुन ले तो अच्छी बात नहीं तो अपना क्या जाता है।

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