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Tuesday, March 4, 2008

कौन चले इस मार्ग पर



पंकज रामेन्दू

भारत में हर क्रांतिकारी और समाज सुधारक के नाम से एक मार्ग बना दिया जाता है, फिर यह मार्ग बस वालों के लिए एक स्टॉप, आम जनात के लिए एक रास्ता और हज़ारों लाखों के लिए गुज़रने का एक ज़रिया बन कर रह जाता है। महज़ एक रास्ता जिसे, जिसके नाम पर रखा गया है ना उसे किसी को वास्ता होता है ना हमारी राजनीति चाहती हबै कि कोई उससे वास्ता रखे ।
हल्ला बोल.. फिल्म में एक नुक्कड़ नाटक के माद्यम से अवाम को जगाने की कोशिश को दिखाया गया। मैं यह फिल्म देख कर निकला, गाड़ी मैं बैठा, गाड़ी कई रास्तों से गुज़रती हुई सफदर हाशमी मार्ग से निकली, सफदर हाशमी मार्ग मंडी हाउस के पास से निकलता हुआ एक रास्ता है। रास्ता इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां से सभी गुज़रते हैं, कुछ को अपना काम रहता है, कुछ यूंही तफरीह करते रहते हैं. फिल्म की स्क्रिप्ट दिमाग में चल रही थी जैसे ही इस मार्ग से निकला तो एकदम से सफदर हाशमी की याद ताजा हो गई। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं कभी उनसे मिल नहीं सका, उनके बारे में जो भी मालूम चला वो लिखे-पढ़े से ही जान पाया था। नुक्कड़ नाटक के माध्यम से सफदर ने जो क्रांति पैदा की थी, उसकी वो लपट इतनी तेज थी कि वो तात्कालीन राजनीति को झुलसाने लगी थी और यही कारण रहा कि सफदर राजनीतिक गोली का शिकार बन गए। उनकी मौत के पश्चात उनके नाम से एक मार्ग बना दिया गया। अब यह मार्ग एक सार्वजनिक मार्ग है जिस पर से गुजरने वालों में से अधिकांश को यह भी नहीं मालूम कि सफदर आखिर थे कौन ?
सफदर की जलाई हुई आग काफी तीखी थी इसलिए उसे बुझाने के लिए सांत्वना का मार्ग बना दिया गया है। लेकिन कई ऐसे भी लोग है जो लगातार ऐसा काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हे भरोसे के शब्द भी नहीं मिलते हैं । स्कूल दिनों में भोपाल में नुक्कड़ नाटक हमारा मुख्य शगल हुआ करता था, इस नाटक की सर्वेसर्वा पाखी दीदी हुआ करती थी। वो कहां से आती थी हम नही जानते थे, बस वो जब भी आती तो हमेशा हमारे मोहल्ले से लगी झुग्गी बस्ती के बच्चों को इकट्ठा करती थी और नुक्कड़ नाटक करवाया करती थी। उनके नाटकों का कई बार मुहल्ले में विरोध होता था, मोहल्लेवाले का विरोध इस बात को लेकर रहता था कि पाखी दीदी झुग्गी वाले बच्चों और मोहल्ले के दूसरे बच्चों को नाटक में हिस्सा दिलवाती हैं और उन्हें इस बात का डर रहता था कि इससे बमारे बच्चे बिगड़ जाएंगे। बाद में पता नहीं दीदी कहां चली गई मैं भी बड़ा हो गया और रोज़ी रोटी ने दिल्ली धकेल दिया। लेकिन आज सोचता हूं कि पाखी दीदी का क्या स्वार्थ था ? वो तो एक अच्छा ही काम कर रही थी। यह सोचते सोचते बचपन में दिमाग में पैदा हुई एक उलझन ताज़ा हो जाती है, बचपन में जब हमें ऐसे तथाकथित बच्चों के साथ खेलने से रोका जाता था तो हमेशा सोचता रहता था कि आखिर यह बिगड़ा होता क्या है ?
खैर पाखी दीदी का पता नही है लेकिन सफदर हाशमी मार्ग से गुज़रना हो जाता है, सफदर हाशमी मार्ग जैसे ही भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में एक प्रचलित रोड ज़रूर होती है, इस रोड का नाम है एम.जी रोड। महात्मा गांधी को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है, जो नहीं भी जानता ता उसे मुन्ना भाई की गाधीगिरी ने बता दिया था कि गांधी जी क्या चीज़ थे। लेकिन इन जानने वालों में बहुत से लोग यह नही जानते कि यह एम.जी रोड दरअसल महात्मा गांधी मार्ग है। दिल्ली में ऐसे ही एक रोड और है जी.बी रोड, वैसे तो दिल्ली में रहने वाले और यहां घूमने आने वाले इस रोड को दिल्ली के रेड लाइट एरिये के नाम से जानते हैं। मेरी पहचान वालों में से कई ऐसे भी है जो जब में दिल्ली से जाता हूं तो यह ज़रूर पूछते हैं कि जी.बी रोड घूमा कि नहीं। इस पूछ के साथ उनके चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान भी दौड़ जाती है।
एक दिन मैं भीपाल के अपने एक मित्र जो कि इश रोड के मेरे अनुभव जानने के लिए काफी आतुर थे, से पूछ बैठा, यार तुम्हे मालूम है कि जीबी रोड का क्या मतलब है ? मेरे मित्र ने काफी दार्शनिक अंदाज़ में मुझसे कहा था कि रेज लाईट एरियों का क्या नाम ? जब मैंने उनसे कहा कि इस रोड का नाम गोविन्द बल्लभ मार्ग है तो वो नाम को लेकर बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं हुए, अलबत्ता वो मुझसे यह ज़रूर पूछ बैठे, तो क्या हुआ ? मुझे चुप रहने के अलावा कोई और जवाब नहीं सूझा ।
महात्मा गांधी का एम.जी रोड में, गोविन्द बल्लभ मार्म का जीबी रोड में तब्दीलल होना हमें यह बता देता है कि चाहे सफदर हाशमी हो या सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह हो या गौतम बुद्ध यह सिर्फ एक मार्ग के नाम है.. भोपाल में दुष्यंत कुमार मार्ग से गुज़रता हूं तो यह बात ध्यान आती है.. हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.. मेरे सीने में नही. तेरे सीने में सही... हो कहीं भी आग जलनी चाहिए। दरअसल दूसरे के सीने में आग जलने की अपेक्षा रखने वाले इस मार्ग से गुज़र तो सकते हैं ... लेकिन इस पर चल नहीं सकते हैं

1 comment:

Babita Asthana said...

Pankaj ji mai aapki baat ko bilkul sahi manti hun.Hamare desh mai shaheedon ke naam ko zinda rakhne ki to pratha hai par sirph kuch murti laga kar ya margon ke naam un shaheedon k naam par rakh kar par wastav me logo k dilo mai unke liye jagha nahi hai.Ab to lagta hai ki peer k parwat si pighalne se bhi kuch nahi hone wala kiyoki aag kisi k seene mai nahi lagegi kiyonki yaha ab logo ke dil patathar k ho chuke hai.
BABITA ASTHANA