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Thursday, April 25, 2024

पानी के अखाड़े में चुनाव


 दुनिया में यह दौर सांस्कृतिक चेतना के उभार का है। इतिहास को फिर से टटोलने और अपने पुरखों की काबिलियत पर अभिमान का भी है। अपने अतीत में हम झांकते हैं, तो हमें पानी की अद्भुत विरासत भी मिलती है, बेहतरीन वास्तु, कला और कौशल से बनाए जलाशय भी, जिनके देश के हर इलाके में अलग-अलग नाम हैं। कहीं बावड़ी, कहीं बाओली, तो कहीं बाव। पानी को सहेजने के सैकड़ों साल पुराने इतने अद्भुत और वैज्ञानिक तरीके हैं कि हम अपनी आधुनिक यांत्रिकी-अभियांत्रिकी का इस्तेमाल करके भी उनकी बराबरी नहीं कर पाते। बल्कि जब भी संकट से घिर जाते हैं, तो फिर पुरानी पद्धतियों की ओर देखते हैं, और उन्हें अपने मूल स्वरूप में लौटाने की योजनाएं बनाते हैं।

सच यह भी है कि देश की जल-विरासत को संभाले ये पारंपरिक संरचनाएं और जल-स्रोत, देहात की देखरेख में ही बाकी बची रही हैं। 2023 में भारत में पहली 'जल-गणना' में सवा 24 लाख जल स्रोतों की गिनती हो पाई, जिनमें से 23 लाख तो गांवों की हिफाजत में ही हैं जबकि आर्थिक समृद्धि से चमचमाते शहरों ने पानी का इतना शोषण किया है कि उनके अपने हिस्से का जो कुछ था वह भी बाकी नहीं रहा। बड़े शहरों में जो कुछ है सब आसपास के बांधों, नहरों या नदियों से उधार का है। या फिर है भी तो औद्योगिक कचरे से इतना गंदा कि वो प्यास बुझाने लायक हैं ही नहीं। और बात सिर्फ पानी मौजूद होने न होने भर की ही नहीं है, बल्कि उसके इर्दगिर्द के पूरे जल-जीवन से हमारे जुड़ाव की भी है। पानी को खोकर, दूषित कर, सुखा कर, जरूरत से ज्यादा खींच कर और उसकी अनदेखी कर, हमने अपने ही अस्तित्व को खतरे में डाला है। समाज पर इसका दोष मढ़ा जा सकता है, लेकिन प्रजातंत्र में प्रतिनिधियों का भी दायित्व कम नहीं है।

घोषणापत्रों में पानी

पिछले लोक सभा चुनावों में दोनों मुख्य पार्टियों ने अपने घोषणापत्रों में जलवायु संकट का मुद्दा शामिल किया था लेकिन जल-संकट को लेकर जाहिर तौर पर कुछ सुनने को नहीं मिला। जल वैसे भी राज्यों का मुद्दा है, इसलिए राष्ट्रीय पार्टियां विधानसभा चुनावों में ही पानी को बड़ा मुद्दा बनाती हैं। खास तौर पर किसानी क्षेत्रों में ये मसले वोट की राजनीति पर असर भी डालते रहे हैं। पानी को लेकर राज्यों के आपसी विवाद भी चुनावी दौर में बड़े जोर-शोर से उठते रहे हैं। हाल के कर्नाटक चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनता दल (एस) के मुखिया एचडी देवेगौड़ा ने वहां कावेरी और अरकावती नदी के संगम पर वन रहे मेकेदातु बांध को मुद्दा बनाया, जिस पर वग़ल के राज्य तमिलनाडु की डीएमके पार्टी के नेता स्टालिन ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, और घोषणा की कि यह बांध नहीं बनने देंगे। तमिलनाडु के भाजपा प्रमुख एम अन्नामलाई ने भी कर्नाटक में बांध का विरोध किया है। दोनों राज्यों के बीच यह पुराने विवाद का विषय है, जिस पर पहले भी सियासत होती रही है।
कर्नाटक में पिछले सालों में बारिश की कमी, उपभोग वाली जीवनशैली और आबादी के दबाव में पानी का संकट गहरा गया है। वहां के 236 में से 223 तालुका डार्क जोन में हैं यानी उनका पानी खाली है। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में कभी डेढ़ हजार से ज्यादा झीलें हुआ करती थीं, अब दो सौ भी नहीं बचीं। पिछले सालों में चेन्नई का अपना पानी खत्म होने की बात सुर्खियां बनी थीं और देखते-देखते 22 राज्यों का यही हाल हो गया। और अब बेंगलुरु में पानी की किल्लत ने सबका ध्यान खींचा है, जहां के 40% बोरवेल सूख चुके हैं। कर्नाटक सहित दक्षिण के राज्य उसी तरह के संकट से गुजर रहे हैं, जिसके लिए कभी मराठवाड़ा देश के नक्शे पर आया था। वहां के हालात भी कितने बदले हैं, इसका अंदाज इस वात से लगेगा कि महाराष्ट्र के इस इलाके के 8 जिलों में हाल में यानी 2023 में अनेक किसानों ने आत्महत्या की है।

पानी-खेती-कमाई के संकट को लेकर एनसीपी के नेता शरद पवार ने इस चुनाव में भाजपा को घेरा है, तो 10 पार्टियों के गठबंधन वाले महा विकास अघाड़ी ने भी जल-संकट के मुद्दे पर चुनावी सभाएं की हैं। महाराष्ट्र की 142 तहसीलें सूखे से जूझ रही हैं, सोलह जिलों में पानी का स्तर गिर गया है। लोकसभा में 48 सीटों की हिस्सेदारी वाले इस राज्य सहित सभी राज्यों में पानी की तकलीफें अलग-अलग हैं, लेकिन देशव्यापी चर्चाओं में यह अब भी पीछे ही धकेला हुआ मुद्दा है।

कुछ सुनी, कुछ अनसुनी 

राजस्थान के विधानसभा चुनावों में 13 जिलों पर असर डालने वाली पूर्वी नहर परियोजना ने सियासी रंग अपनाया और नई सरकार ने इसे लागू कर बरसों की छूटी हुई बात पर अमल किया। वर्षों से अटके यमुना जल समझौते पर भी राजस्थान ने हरियाणा से सहमति बना ली है। इस लोक सभा चुनाव में भी यहां कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां सिंचाई और पीने के पानी पर सियासत होगी। पार्टी के राष्ट्रीय घोषणापत्र के बजाय कुछ प्रत्याशी खुद पानी के संकट की बात जोर-शोर से कर रहे हैं। राजस्थान के जैसलमेर-वाड़मेर वाले पश्चिमी इलाके से लोक सभा चुनाव में दमखम दिखा रहे हाल ही चुने गए सबसे युवा विधायक रवींद्र सिंह भाटी पानी सहित मूलभूत सुविधाओं की बात शिद्दत से उठा रहे हैं। उनके अपने चुनावी उद्घोष में पाकिस्तान की सरहद से सटे गांवों के पिछड़ेपन को दूर करने की बात वार-वार सुनाई दे रही है। वो रेगिस्तान के बड़े भू-भाग को नेशनल पार्क कहे जाने और इस बहाने बड़ी इंसानी आबादी को पानी-बिजली-सड़क- स्कूल-अस्पताल-रोजगार से दूर रखने की नीतिगत गलतियों को दुरुस्त करने की बात कर रहे हैं।

अपनी संस्कृति-भाषा पर अभिमान करते हुए पानी पर्यावरण-आर्थिक समृद्धि के सामंजस्य की बात उठाने वाले अगर जीतकर देश की संसद में पहुंचते हैं, तो सैकड़ों गांवों की सुनवाई होने के साथ उनकी दुश्वारियों का सार्थक हल भी निकलेगा। जालोर लोक सभा के भाजपा प्रत्याशी लुंवाराम चौधरी खुलकर कह रहे हैं कि उनके इलाके में पानी की किल्लत दूर करना और किसानों को राहत दिलाना ही उनका चुनावी ध्येय है। यह इलाका ऐसा है जहां पर्यटकों की आवक खूब है और स्थानीय नेतृत्व में भाजपा का पलड़ा भारी होने के बावजूद पानी और पर्यावरण की हालत बद से बदतर ही हुई है। अब जमीन से जुड़े, इन जन-नेताओं के मैदान में उतरने से जाति और परिवार की राजनीति के बीच मुद्दों की जमीन मजबूत होती लग रही है।

संसद में उठाएं कड़े सवाल

अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास के इस गौरवकाल में हमें अपनी खामियों के बारे में और मुखर होना चाहिए। नदियों का पूजन और महिमामंडन तो हम करते हैं, लेकिन वो दूषित न हों, यह सख्ती समाज और कानून, दोनों ही नहीं कर पा रहे। एक तरफ मंदिर-ओरण-गोचर का बखान हम करते हैं, लेकिन वहीं कुछ राज्यों में पशु-पक्षियों-समुदाय के हक की जमीनें, वन विभाग को देने के फैसले पर सभी पर्यावरण-सांस्कृतिक प्रकल्प चुप्पी साधे हैं।

देश के 19 राज्यों के करीब ढाई सौ जिलों की 14 हजार बस्तियां हैं, जहां के पानी में घुले फ्लोराइड, नाइट्रेट और आर्सेनिक नई-पुरानी सभी पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बने हुए हैं। ऑस्टियोआर्थराइटिस और फ्लोरोसिस की चपेट में आए बच्चे-युवक-युवतियां और बुजुर्ग कभी आपसे टकराएंगे तो आप सोचेंगे जरूर कि बेहद आसान वैज्ञानिक समाधान होने के बाद भी हम बेबस क्यों हैं? 

राजस्थान और झारखंड के सांसदों ने खनन और उद्योग वाले इलाकों में पीने के पानी की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर उसके असर को लेकर सरकारी पहल पर सवाल पूछा तो कई जानकारियां सामने आईं। जनता भी बाकी के नेताओं से सवाल पूछती रही है कि हमने तो आपको चुना, अब आपने अपना धर्म निभाया कि नहीं? बिहार और असम की वाढ़ के स्थायी समाधान की बात कहीं सुनाई नहीं देती। कश्मीर घाटी की झीलों और दिल्ली की यमुना के प्रदूषण पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्तियों का जवाब किसी के पास नहीं?

परंपरागत जलस्रोतों को सहेजने के लिए समाज-सरकार और संगठन के समयबद्ध तालमेल से किसी को लेना देना नहीं? राज्यों के बीच जल- बंटवारे पर राजनीति-स्वार्थ से परे व्यावहारिक रवैया अपनाए जाने की मध्यस्थता करने वाला कौन है? इन सब सवालों के बीच औपनिवेशिक शासन की निशानियां रहे बड़े बांधों के बजाय, पर्यावरण-समाज हितैषी जल- प्रबंधन की ओर लौटने की वात नीतिगत पर्चों में आने लगी है। ऐसे में चिंतनशील और संवेदनशील नेताओं से ही उम्मीद है कि चुनाव और उसके बाद अपने पूरे कार्यकाल में, धरातल के मुद्दों को थामे रहें।

स्रोत : 06 अप्रैल 2024, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा


Tuesday, April 9, 2024

पर्यावरण क्यों नहीं बन सकता राजनीतिक मुद्दा?

 


लगभग हर राजनैतिक पार्टी ने आम चुनाव 2024 के लिए तैयारी शुरू कर दी है,भाग्य विधाता मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम मुद्दे उछालने भी शुरू कर दिए हैं, लेकिन आम चुनाव 2024  में  उठने वाले तमाम मुद्दों में पर्यावरण के मुद्दों को महत्व दिए जाने को लेकर मेरे मन में लगातार सवाल उठ रहा हैं कि क्या राजनीतिक दल इन मुद्दों को उचित महत्व दे रहे हैं। सच कहूं तो मेरे पास इसका कोई जवाव नहीं है । देश के सामने खड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों और राजनीतिक दलों के वादों के बीच इतनी बड़ी खाई है कि टिप्पणी करना आसान काम नहीं है। मैं इसे समझाता हूं।

भारत आज अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। हवा की गुणवत्ता इस हद तक खराब हो गई है कि इसके चलते देश में बड़ी तादात में लोग मर रहे हैं। विश्व के अन्य सभी देशों के मुकाबले भारत में जहरीली हवा के कारण शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। वायु प्रदूषण के कारण भारतीयों का जीवन पांच साल तक घट रहा है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) का लेटेस्ट एडिशन जारी किया है। यह सूचकांक 2020 के आंकड़ों पर आधारित है। इस अध्ययन में वायु प्रदूषण से संभावित जीवनकाल पर पड़ने वाले प्रभावों को बताया गया है। सूचकांक के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली ने एक बार फिर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शीर्ष स्थान पाया है। दिल्ली में वायु प्रदूषण धूम्रपान से ज्यादा खतरनाक हो चुका है। धूम्रपान से संभावित जीवन में 1.5 वर्ष की कमी आती है लेकिन दिल्ली मे वायु प्रदूषण से जिंदगी करीब 10 साल तक कम हो सकता है। इसी तरह, देश में शिशुओं की मौत का एक और बड़ा कारण जल प्रदूषण है और हमारे जल प्रदूषण का स्तर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।

2018 में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कुल 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की - तीन साल पहले 302 खंडों की वृद्धि हुई है। केवल गंगा ही प्रदूषित नदी नहीं है, सभी प्रमुख और छोटी नदियां पानी की निरंतर निकासी और अपशिष्टों के अप्रयुक्त निपटान के कारण प्रदूषण का शिकार हो रही हैं।

भूजल के मामले में संकट और भी विकट है। हम अभी पीने के पानी की आपूर्ति पर लगभग 80 फीसदी निर्भर हैं और हम भूजल प्रदूषण के अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुके हैं। देश में 640 जिलों में से 276 का भूजल फ्लोराइड के कारण प्रदूषित है, 387 में नाइट्रेट है, 113 जिलों में हैवी मेटल्स हैं और 61 जिलों में भूजल में यूरेनियम है।

हमारे जंगल, वन्यजीव और जैव विविधता पतन की ओर अग्रसर हैं। पिछले तीन दशकों में, हमने प्राकृतिक वनों को बगीचों में बदल दिया है। मनुष्य और पशुओं का संघर्ष बढ़ गया है और मरुस्थलीकरण अब हमारी उत्पादक कृषि भूमि को प्रभावित कर रहा है।

इसके अलावा, अब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन है, जो लोगों के जीवन और आजीविका के लिए खतरा है। अत्याधिक बारिश, चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसे चरम मौसम की घटनाएं अब नियमित रूप से देश के एक हिस्से या दूसरे हिस्से को तबाह कर देती हैं। 2013 में उत्तराखंड बाढ़ थी, 2014 में जम्मू और कश्मीर बाढ़, 2015 में चेन्नई बाढ़ और 2018 में केरल बाढ़। प्रति वर्ष औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जाने जाती हैं तथा बाढ़ के कारण फसलों व मकानों तथा जन-सुविधाओं को होने वाली क्षति 1805 करोड़ रुपए है। भयंकर  बाढ़ों की आवृति 5 वर्षों में एक बार से अधिक है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और भी बुरा होने वाला है क्योंकि निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान 1 डिग्री सेल्सियस से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।

ऐसी विकट स्थिति में, हमें  राजनीतिक दलों से अपेक्षा करनी चाहिये  कि वे एक गंभीर विचार के साथ सामने आए, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास और विकास की अनिवार्यताओं के संतुलन की बात हो, लेकिन अफसोस कि दो बड़े राजनीतिक दलों - कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी - ने  कभी भी अपने घोषणापत्र में पर्यावरण को एक मुख्य मुद्दे के रूप में नहीं रखा है। उन्होंने पर्यावरण को हमेशा एक परिधीय विषय के रूप में ही  पेश किया है।

देश में लगभग हर पार्टी विकास की बातें करती हैं, लेकिन उस विकास से पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों और देशवासियों के लिए लगातार ख़तरा बनते जा रहे पर्यावरण संबंधी मुद्दा का कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता है। देश में  होने वाले ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित कर रहा है सम्पूर्ण देशवासियों का अस्तित्व ही खतरे में डाल रहा है।

लेकिन अब समय आ गया है जब पर्यावरण का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के साथ हम सब के लिए सबसे ऊपर होना चाहिए क्योंकि अब भी अगर हमने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो आगे आने वाला समय इस से भी भयावह होगा। फिलहाल देश के सभी बड़े शहरों पर्यावरण संबंधित अलग अलग चुनौतियो का सामना कर रहे है।

चुनाव में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों नहीं है? मैं इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों को दोष नहीं दिया जा सकता है । राजनीतिक दल  के वादे अपने मतदाताओं की प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं और, अधिकांश मतदाताओं के लिए पर्यावरण प्राथमिकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण प्रदूषण और विनाश के कारण लोग पीड़ित नहीं हैं।  लेकिन उन्हें इस मुद्दे की पर्याप्त रूप से जानकारी नहीं है जिसके कारण भारत का मतदाता पर्यावरण को चुनाव में उठाये जाने वाला मत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा नहीं मानता और यह सिविल सोसायटी की विफलता है। हम सिविल सोसायटी में पर्यावरण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर अपने संदेश को ले जाने में विफल रहे हैं। यह समय है, जब हमें इस विफलता को पहचानें और मिलकर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को राजनैतिक और सामाजिक मुद्दा बनाये तथा उन समस्याओं को दूर करें।

Monday, October 16, 2017

मौत में भी आरक्षण ।

देश में आरक्षण पर बड़ी बहस छिड़ी हुई है
। आरक्षण जारी रखने और आरक्षण खत्म करने को लेकर हर वर्ग का अपना अलग-अलग तर्क दे रहा है। इस बीच होशंगाबाद जिले के मुक्तिधाम आश्रम से आरक्षण को लेकर बड़ी खबर है कि यहां भी अंतिम संस्कार के लिए जो लकड़ी मुहैया कराई जाती है, उसमें भी आरक्षण दिया जाता है।

Friday, October 13, 2017

काश आप भुखमरी को भी चुनावी मुद्दा बना पाते .....

मोदी जी कृप्या एक नज़र इधर भी ......... 
 
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक ख़बर के अनुसार, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति, उत्तर कोरिया, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश से भी ख़राब है.
दुनियाभर के विकासशील देशों में भुखमरी की समस्या पर इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की ओर से हर साल जारी की जाने वाली रिपोर्ट में 119 देशों में भारत 100वें पायदान पर है.
एशिया में वो सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से आगे है. पिछले साल वो 97वें पायदान पर था. रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल कुपोषण ने इस स्थिति को और बढ़ाया है.
हंगर इंडेक्स अलग-अलग देशों में लोगों को खाने की चीज़ें कैसी और कितनी मिलती हैं यह उसे दिखाने का साधन है.
'ग्लोबल हंगर इंडेक्स' का सूचकांक हर साल ताज़ा आंकड़ों के साथ जारी किया जाता है. इस सूचकांक के ज़रिए विश्व भर में भूख के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान की उपलब्धियों और नाकामियों को दर्शाया जाता है.

Saturday, February 5, 2011

जो सवाल पत्रकारीय कौशल में दफन हो गये


पुण्‍य प्रसून वाजपेयी

रेलगाड़ी पर हजारों की तादाद में चीटिंयो और चूहों की तरह अंदर बाहर समाये बेरोजगार नवयुवकों को देखकर आंखों के सामने पहले ढाका में मजदूरों से लदी ट्रेन रेंगने लगी जो हर बरस ईद के मौके पर नजर आती है। वहीं जब बेरोजगार युवकों से पटी ट्रेन पटरी पर रेंगने लगी और कुछ देर बाद ही 19 की मौत की खबर आयी तो 1947 में विभाजन की त्रासदी के दौर में खून से पटी रेलगाडियों की कहानी और द्दश्य ही जेहन में चलने लगा। कई राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के स्‍क्रीन पर भी यही दृश्य चलते हुये भी दिखायी दिये... और यूपी में देशभर के लाखों बेरोजगारों की बेबाकी सी चलती भी स्क्रीन पर रेंगती तस्वीरो के साथ ही दफन हो गयी।

यानी कोई सवाल पत्रकारीय माध्यमों में कहीं नहीं उठा कि सवा चार सौ धोबी-नाई-कर्मचारी की नियुक्ति के लिये बरेली पहुंचे सवाल चार लाख बेरोजगारों की जिन्दगी ऐसे मुहाने पर क्यों आकर खड़ी हुई है जहां ढाई से साढ़े तीन हजार की आईटीबीपी को नौकरी भी मंजूर है। ना अखबार ना ही न्यूज चैनलों ने बहस की कि जो बेरोजगार मारे गये वह सभी किसान परिवार से ही क्यों थे। किसी ने गांव को शहर बनाने की मनमोहनइक्नामिक्स की जिद पर सवाल खड़े कर यह नहीं पूछा कि सवा चार लाख बेरोजगारों में साढे़ तीन लाख से ज्यादा बेरोजगार किसान परिवार के ही क्यों थे। यह सवाल भी नहीं उठा कि कैसे विकास के नाम पर किसानी खत्म कर हर बरस किसान परिवार से इस तरह आठवीं पास बेरोजगारों में सत्तर लाख नवयुवक अगली रेलगाड़ी पर सवार होने के लिये तैयार हो रहे हैं।

बरेली में बेरोजगारों के इतने बडे़ समूह को देखकर पत्रकारीय समझ ने बिंबों के आसरे मिस्र के तहरीर चौक का अक्स तो दिखाया, मगर यह सवाल कहीं खड़ा नहीं हो पाया कि बाजार अर्थव्यवस्था से बड़ा तानाशाह हुस्नी मुबारक भी नहीं है। और बीते एक दशक में देश की 9 फीसदी खेती की जमीन विकास ने हड़पी है, जिसकी एवज में देश के साढ़े तीन करोड़ किसान परिवार के किसी बच्चे का पेट अब पीढि़यों से पेट भरती जमीन नहीं भरेगी, बल्कि इसी तरह रेलगाडि़यों की छतों पर सवार होकर नौकरी की तालाश में उसे शहर की ओर निकलना होगा। जहां उसकी मौत हो जाये तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। अगर यह सारे सवाल पत्रकारीय माध्यमों में नहीं उठे तो यह कहने में क्या हर्ज है कि अब पत्रकारीय समझ बदल चुकी है। उसकी जरूरत और उसका समाज भी बदल चुका है। लेकिन पत्रकारीय पाठ तो यही कहता है कि पत्रकारिता तात्कालिकता और समसामयिकता को साधने की कला है। तो क्या अब तात्कालिकता का मतलब महज वह दृश्य है जो परिणाम के तौर पर इतना असरकारक हो कि वह उसके अंदर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को भी अनदेखा कर दे।

अगर खबरों के मिजाज को इस दौर में देखे तो किसी भी खबर में आत्मा नहीं होती। यानी पढ़ने वाला अपने को खबर से जोड़ ले इसका कोई सरोकार नहीं होता। और हर खबर एक निर्णायक परिणाम खोजती है। चाहे वह बेरोजगारों की जिन्दगी के अनछुये पहलुओं का सच तस्वीर के साये में खोना हो या फिर ए राजा से लेकर सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, पीजे थॉमस सरीखे दर्जनों नेताओं-अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर सजा के निर्णय के ओर सत्ता को ढकेलना, ब्रेकिंग न्यूज और सजा का इंतजार, राजनीति संघर्ष यानी निर्णय जैसे ही हुआ कहानी खत्म हुई। कॉमनवेल्थ को सफल बनाने से जुड़े डेढ़ हजार से ज्यादा कर्मचारियों का कलमाड़ी की वजह से वेतन रुक गया यह खबर नहीं है। आदर्श सोसायटी बनाने में लगे तीन सौ 85 मजदूरों को पगार उनके ठेकेदार ने रोक दी, यह खबर नहीं है। असल में इस तरह हर चेहरे के पीछे समाज के ताने-बाने की जरुरत वाली जानकारी अगर खबर नहीं है तो फिर समझना यह भी होगा कि पत्रकारीय समझ चाहे अपने अपने माध्यमों में चेहरे गढ़ कर टीआरपी तो बटोर लेगी लेकिन पढ़ने वालों को साथ लेकर ना चल सकेगी। ना ही किसी भी मुद्दे पर सरकार का विरोध जनता कर पायेगी। और आज जैसे तमाम राजनेता एक सरीखे लगते हैं जिससे बदलाव या विकल्प की बयार संसद के हंगामे में गुम हो जाती है। ठीक इसी तरह अखबार या न्यूज चैनल या फिर संपादक या रिपोर्टर को लेकर भी सिर्फ यही सवाल खड़ा होगा। यानी अब वह वक्त इतिहास हो चुका है जब सवाल खड़ा हो कि साहित्य को पत्रकारिता में कितनी जगह दी जाये या दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं। या फिर पत्रकारिता या साहित्य की भाषा आवाम की हो या सत्ता की। जिससे मुद्दों की समझ सत्ता में विकसित हो या जनता सत्ता को समझ सके।

दरअसल यह मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी, तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। लेकिन अब पत्रकारिता धन और रोजी पर टिकी है क्योंकि वैकल्पिक समाज को बहुत तेजी से उस सत्ता ने खत्म किया, जिसे अपने विस्तार में ऐसे माध्यम रुकावट लगते हैं जो एकजुटता का बोध लिये जिन्दगी जीने पर भरोसा करते हैं। यह सत्ता सियासत भी है और कारपोरेट भी। यह शहरी मानसिकता भी है और एकाकी परिवार में एक अदद नौकरी की धुरी पर जीने का नजरिया भी। यह संसद में बैठे जनता की नुमाइन्दगी के नाम पर सत्ता में दोबारा पहुंचने के लिये नीतियों को जामा पहनाने वाले सांसद भी हैं और किसी अखबार या न्यूज चैनलों के कैबिन में दरवाजा बंद कर अपनी कोठरी से अपने संपादक होने के आतंक पर ठप्पा लगाने में माहिर पत्रकार भी। यह सवाल कोई दूर की गोटी नहीं है कि आखिर क्यों देश में कोई लीडर नहीं है, जिसके पीछे आवाम खड़ी हो या कोई ऐसा संपादक नहीं जिसके पीछे पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी हो। दरअसल इस दौर में जिस तरह सवा चार लाख बेरोजगार एक बडी तादाद होकर भी अपने आप में अकेले हैं। ठीक इसी तरह देश में किसी ट्रेन दुर्घटना में मरते सौ लोग भी अकेले हैं और देश में रोजगार दफ्तर में रजिस्‍टर्ड पौने तीन करोड़ बेरोजगार भी अकेले ही हैं। कहा यह भी जा सकता है कि पत्रकारीय समाज के बडे़ विस्तार के बावजूद संपादक भी निरा अकेला ही है। और साहित्यकर्म में लगा सहित्यकार भी अकेला है।

इसलिये पत्रकारिता से अगर सरोकार खत्म हुआ हो तो साहित्य से सामूहिकता का बोध लिये रचनाकर्म। इसलिये पहली बार मुद्दों की टीले पर बैठे देश का हर मुद्दा भी अपने आप में अकेला है। और उसके खिलाफ हर आक्रोश भी अकेला है। जो मिस्र, जार्डन, यूनान, ट्यूनेशिया को देखकर कुछ महसूस तो कर रहा है लेकिन खौफजदा है कि वह अकेला है। और पत्रकारीय समझ बिंबों के आसरे खुद को आईना दिखाने से आगे बढ़ नहीं पा रही है।

लेखक पुण्‍य प्रसून वाजपेयी वरिष्‍ठ पत्रकार तथा जी न्‍यूज के संपादक हैं. उनका यह लेख दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है

Wednesday, December 8, 2010

हम पत्रकारों को पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार दल्ला है


राडिया के टेप से निकलते शुभ संकेत : नया-नया पत्रकार बना था। दोस्त की शादी में गया था। दोस्त ने अपने एक ब्यूरोक्रेट रिश्तेदार से मिलवाया। अच्छा आप पत्रकार हैं? पत्रकार तो पचास रुपये में बिक जाते हैं। काटो तो खून नहीं। क्या कहता? पिछले दिनों जब राडिया का टेप सामने आया तो उन बुजुर्ग की याद हो आई। बुजुर्गवार एक छोटे शहर के बड़े अफसर थे। उनका रोजाना पत्रकारों से सामना होता था। अपने अनुभव से उन्होंने बोला था। जिला स्तर पर छोटे-छोटे अखबार निकालने वाले ढेरों ऐसे पत्रकार हैं जो वाकई में उगाही में लगे रहते हैं। ये कहने का मेरा मतलब बिलकुल नहीं है कि जिलों में ईमानदार पत्रकार नहीं होते। ढेरों हैं जो बहुत मुश्किल परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं। इनकी संख्या शायद उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिये। ऐसे में राडिया टेप आने पर कम से कम मैं बिलकुल नहीं चौंका।

हालांकि इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे?

हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी मे इसे 'दल्लागिरी' कहते हैं और ऐसा करने वालों को 'दल्ला'। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार 'दल्ला' है और कौन 'दल्लागिरी' कर रहा है। इसी दिल्ली में क्या हम नहीं जानते कि जो लोग पैदल टहला करते थे कैसे रातोंरात उनकी कोठियां हो गईं और बड़ी बड़ी गाडियों में घूमने लगे? टीवी की बदौलत पत्रकारिता में पैसा तो पिछले दस सालों से आया है। उसके पहले पत्रकार बेचारे की हैसियत ही क्या थी? झोलाछाप, टूटी चप्पल में घूमने वाला एक जंतु जो ऑफिस से घर जाने के लिये डीटीसी बस का इंतजार करता था। उस जमाने में भी कुछ लोग ऐसे थे जो चमचमाती गाड़ियों में सैर करते थे और हफ्ते में कई दिन हवाई जहाज का मजा लूटते थे। इनमें से कुछ तो खालिस रिपोर्टर थे और कुछ एडीटर। इनकी भी उतनी ही तनख्वाह हुआ करती थी जितनी की ड़ीटीसी की सवारी करने वाले की।

इनमे से कई ऐसे भी थे जिनकी सैलरी बस नौकरी का बहाना था। जब पत्रकारिता में आया तब दिल्ली में एक खास बिजनेस घराने के नुमाइंदे से मिलना राजधानी के सोशल सर्किट में स्टेटस सिम्बल हुआ करता था। और जिनकी पहुंच इन 'महाशय' तक नहीं होती थी वो अपने को हीन महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं था कि पाप सिर्फ बिजनेस घराने तक ही सिमटा हुआ था। राजनीति में भी पत्रकारों की एक जमात दो खांचों मे बंटी हुई थी। कुछ वो थे जो कांग्रेस से जुड़े थे और कुछ वो जो बीजेपी के करीबी थे। और दोनों ही जमकर सत्ता की मलाई काटा करते थे। जो लोग सीधे मंत्रियों तक नहीं पंहुच पाते थे उनके लिये ये पत्रकार पुल का काम किया करते थे। ट्रासफर पोस्टिंग के बहाने इनका भी काम चल जाया करता था। और जेब भी गरम हो जाती थी। सत्ता के इस जाल में ज्यादा पेच नहीं थे। बस पत्रकार को ये तय करना होता था कि वो सत्ता के इस खेल में किस हद तक मोहरा बनना चाहता था।

क्षेत्रीय पत्रकारिता में सत्ता का ये खेल और भी गहरा था। मुझे याद है भोपाल के कुछ पत्रकार जिन्हें इस बात का अफसोस था कि वो अर्जुन सिंह के जमाने में क्यों नहीं रिपोर्टर बने। लखनऊ में भी ढेरों ऐसे पत्रकार थे जो कई जमीन के टुकड़ों के मालिक थे। किसी को मुलायम ने उपकृत किया तो किसी को वीर बहादुर सिंह ने। और जब लखनऊ विकास प्राधिकरण के मामले में मुलायम पर छींटे पड़े तो पत्रकारों की पूरी लिस्ट बाहर आ गई। इसमें कुछ नाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। हालात आज भी नहीं बदले हैं। आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी में किसी रिपोर्टर या एडीटर के लिये राज्य सरकार के खिलाफ लिखने के लिये बड़ा जिगरा चाहिये। अब इस श्रेणी में नीतीश के बिहार का पटना भी शामिल हो गया है। फर्क सिर्फ इतना आया है अब मलाई सिर्फ रिपोर्टर और एडीटर ही नहीं काट रहे हैं। अखबार के मालिक भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं। अखबार मालिकों को लगने लगा है कि वो क्यों रिपोर्टर या एडीटर पर निर्भर रहें। अखबार उनका है तो सत्ता के खेल में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिये। तब नया रास्ता खुला। और फिर धीरे धीरे पेड न्यूज भी आ गया।

कुछ लोग ये कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण ने इस परंपरा को और पुख्ता किया है या यो कहें कि बाजार के दबाव और प्रॉफिट के लालच ने मीडिया मालिकों को सत्ता के और करीब ला दिया है। दोनों के बीच एक अघोषित समझौता है। और अब कोई भी गोयनका किसी भी बिजनेस हाउस और सत्ता संस्थान से दो-दो हाथ कर घर फूंक तमाशा देखने को तैयार नहीं है। क्योंकि ये घाटे का सौदा है। और इससे खबरों के बिजनेस को नुकसान होता है। क्योंकि खबरें अब समाज से सरोकार से नहीं तय होतीं बल्कि अखबार का सर्कुलेशन और न्यूज चैनल की टीआरपी ये तय करती है कि खबर क्या है? ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है।

ऐसे में सवाल ये है कि वो क्या करे जो ईमानदार है और जो सत्ता के किसी भी खेल में अपनी भूमिका नहीं देखते, जो खालिस खबर करना चाहते हैं? तो क्या ये मान लें कि ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं की जा सकती? मैं निराश नही हूं। एक, पिछले दिनों जिस तरह से मीडिया ने एक के बाद एक घोटालों को खुलासा किया है वो हिम्मत देता है। और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पत्रकारों की पोल खोलने वाले राडिया के टेप का खुलासा भी तो पत्रकारों ने ही किया है? दो, इसमे संदेह नहीं है कि बाजार ने पत्रकारिता को बदला है लेकिन बाजार का एक सच ये भी है कि प्रतिस्पर्धा और प्रोडक्ट की गुणवत्ता बाजार के नियम को तय करते हैं। और लोकतंत्र बाजारवादी आबादी को इतना समझदार तो बना ही देता है कि वो क्वॉलिटी को आसानी से पहचान सके। बाजार का यही चरित्र आखिरकार मीडिया की गंदी मछलियों को पानी से बाहर करने मे मदद करेगा। और जीतेगी अंत में ईमानदार पत्रकारिता ही, सत्ता की दलाली नहीं।

लेखक आशुतोष आईबीएन7 के मैनेजिंग एडिटर हैं. आईबीएन7 से जुड़ने से पहले आशुतोष खबरिया चैनल आजतक की टीम का हिस्सा थे. वह प्राइमटाइम के कुछ खास ऐंकर्स में से एक थे. ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है. वह भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग ब्रेक के बाद से साभार लिया गया है.

Thursday, November 18, 2010

हसरत

पंकज रामेन्दू

जिंदगी को बस इसलिए दोबारा रखना चाहूंगा
मैं फिर तुझे उतनी ही शिद्दत से तकना चाहूंगा ।

प्यार तेरा पा सकूं मेरी यही कोशिश नहीं,
बन के खुशब तेरी सांसो में बसना चाहूंगा।

तेरी सूरत मेरी आंखो में हो बस यही हसरत नहीं
मैं ख्वाब ओ ख्यालों में तुझको भी दिखना चाहूंगा ।

जिसकी संगत से हुस्न निखरे औऱ बढ़े रंगत
बन के वो श्रंगार तेरे अंग अंग पे सजना चाहूंगा

हो सकता है लगे तुझे ये बाते बहुत बड़ी बड़ी
इंच भर मुस्कान की खातिर, में बिकना चाहूंगा ।