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Sunday, March 30, 2008

गुरुजी, आपके शिष्य जोड़-घटाना नहीं जानते




संजीव मिश्र]

यह खबर शिक्षकों के लिए एक आइना है। बच्चों के विद्या-बुद्धि के विकास में गुरुजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बच्चे के प्रतिभा विकास का श्रेय उनको जाता है, तो उनके अल्प विकास की जिम्मेदारी से भी वे नहीं बच सकते। अगर पांचवीं कक्षा के बच्चे जोड़-घटाना नहीं जानते, हिंदी नहीं पढ़ पाते; तो यह पूरी शिक्षण प्रक्रिया और उससे जुड़ी सरकारी कवायद पर एक सवाल है। उत्तर प्रदेश में एक हद तक ऐसी हालत दिख रही है। प्रदेश में अगर सर्व शिक्षा अभियान अपेक्षा पर खरा नहीं उतर रहा है, तो जिम्मा मास्टर साहब का भी है। यहां हर वर्ष इस अभियान पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं, इसके बावजूद वह प्रभावी नहीं हो सका है। अभियान के मूल्यांकन के लिए योजना आयोग की पहल पर संस्था 'प्रथम' द्वारा देश भर में किए गए सर्वेक्षण में चौंकाने वाले तथ्य मिले हैं। 'ऐनुअल स्टेटस आफ एजूकेशन रिपोर्ट' [असर-2007] के मुताबिक प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश खासा पिछड़ा है। रिपोर्ट योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को सौंप दी गई है।

अध्ययन के मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर जहां कक्षा तीन के 49 फीसदी बच्चे शुरुआती स्तर की हिंदी पढ़ लेते हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या महज 40 फीसदी है। इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा पांच के 59 फीसदी बच्चे कक्षा दो की हिंदी पढ़ सकते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसी कक्षा के सिर्फ 48 फीसदी बच्चे कक्षा दो के स्तर की हिंदी पढ़ सकते हैं। जोड़-घटाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश फिसड्डी है। राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा तीन से पांच के 42 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना एवं गुणा-भाग जानते हैं, पर उप्र में कक्षा तीन से पांच के महज 34 फीसदी बच्चे प्रारंभिक गणित समझते हैं। कक्षा पांच के महज 42.8 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना ठीक से कर पाते हैं। मतलब यह कि आधे से अधिक [57.2 प्रतिशत] बच्चे तो बिना जोड़-घटाना सीखे ही कक्षा पांच तक पहुंच जाते हैं। आंगनबाड़ी केंद्रों में भी छात्र-छात्राएं पर्याप्त संख्या में नहीं पहुंच पा रहे हैं।

जिलावार छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के स्तर व उनके स्कूल पहुंचने में अंतर है। तमाम कोशिश के बावजूद बदायूं के 12.5 फीसदी व बाराबंकी के 10.3 फीसदी बच्चे स्कूलों से दूर हैं। सबसे बुरा हाल कानपुर देहात का है, जहां कक्षा तीन से पांच में पढ़ने वाले 72.3 फीसदी बच्चे हिंदी तक नहीं पढ़ पाते। रामपुर दूसरे व चित्रकूट तीसरे स्थान पर है, जहां तीसरी से पांचवीं कक्षा के क्रमश: 71.1 व 69.9 फीसदी बच्चे हिंदी नहीं पढ़ पाते। श्रावस्ती 80.3 फीसदी बच्चों के हिंदी पढ़ने की क्षमता के साथ अव्वल है। हिंदी पढ़ने के मामले में 78.8 फीसदी बच्चों के साथ मेरठ व 75.2 फीसदी बच्चों के साथ ज्योतिबाफुले नगर तीसरे स्थान पर है। कानपुर देहात के बच्चे गणित में भी फिसड्डी हैं। वहां कक्षा तीन से पांच के 77.4 फीसदी बच्चे सामान्य जोड़-घटाने के सवाल भी नहीं हल कर पाते। इस दृष्टि से 77.1 प्रतिशत बच्चों के साथ चित्रकूट दूसरे व 75.3 प्रतिशत बच्चों के साथ प्रतापगढ़ तीसरे स्थान पर है। गणित में श्रावस्ती अव्वल रहा, जहां 75.1 फीसदी बच्चे जोड़-घटाना ही नहीं, गुणा-भाग भी कर लेते हैं। गणित में 65.9 फीसदी बच्चों के साथ औरैया दूसरे व 65.3 फीसदी बच्चों के साथ ज्योतिबाफुले नगर तीसरे स्थान पर है।
(साभार याहू)

Sunday, March 23, 2008

सबसे खर्चीले पीएम थे नेहरू


क्या देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू दुनिया के सबसे अधिक खर्चीले प्रधानमंत्री थे।

इस सवाल पर पचास के दशक में देश में करीब पांच साल तक संसद, मीडिया और सार्वजनिक जीवन में यह बहस चली थी। पंडित नेहरू के सबसे खर्चीले प्रधानमंत्री होने का आरोप प्रख्यात समाजवादी चिंतक डा. राम मनोहर लोहिया ने लगाया था। उनका कहना था कि नेहरू ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति से भी ज्यादा खर्चीले हैं।

डा. लोहिया ने सरकारी आंकड़ों से यह सिद्ध किया था कि पंडित नेहरू पर प्रतिदिन 25 हजार रुपये खर्च होते हैं और वह दुनिया के सबसे अधिक खर्चीले प्रधानमंत्री हैं। इतना खर्च तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकमिलन और अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी पर भी नहीं होता। लोहिया ने इस पूरी बहस पर प्रतिदिन पच्चीस हजार रुपये नामक एक पुस्तक भी लिखी थी जो तब बिहार के दरभंगा से कौटिल्य प्रकाशन से हुई थी।

डा. लोहिया की 98वीं जयंती के मौके पर अनामिका प्रकाशन द्वारा नौ खंडों में प्रकाशित लोहिया रचनावली में यह अनुपलब्ध पुस्तक दोबारा प्रकाशित हुई थी। रचनावली का संपादन प्रख्यात समाजवादी पत्रकार, लेखक एवं विचारक मस्तराम कपूर ने किया है। 82 वर्षीय कपूर ने यूनीवार्ता को बताया कि लोहिया के निधन के 40 वर्ष बाद बड़ी मुश्किल से लोहिया की रचनाएं एकत्र हो पाई हैं, क्योंकि उनकी बहुत-सी सामग्री अनुपलब्ध है ओर लोगों को इसकी जानकारी भी नहीं है। पंडित नेहरू को सबसे अधिक खर्चीला प्रधानमंत्री बताने वाली पुस्तक प्रतिदिन पच्चीस हजार रुपये के बारे में भी आज कइयों को जानकारी नहीं है। यह बहस तब संसद में भी चली थी और किशन पटनायक जैसे समाजवादी नेता का पंडित नेहरू से इस बारे में लंबा पत्राचार भी हुआ था।

डा. लोहिया का कहना था कि उन्होंने पंडित नेहरू के सरकारी खर्च की बात व्यक्तिगत द्वेष के कारण नहीं कहीं थी। उन्होंने बजट के आंकड़ों को पेश कर अपने आरोप की पुष्टि की थी। पंडित नेहरू इससे तिलमिला गए थे, उन्होंने बार-बार इस आरोप का खंडन किया और अंत में किशन पटनायक से इस संबंध में पत्राचार ही बंद कर दिया।

रचनावली के अनुसार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पर 500 रुपये प्रतिदिन और अमेरिका के राष्ट्रपति पर करीब पांच हजार रुपये प्रतिदिन खर्च होते थे। किशन पटनायक ने डा. लोहिया के इस आरोप की जांच कराने की भी संसद में मांग की थी, लेकिन सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया था।

डा. कपूर का कहना है कि अब तो सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों पर अनाप-शनाप सरकारी खर्च हो रहे हैं पर यह अब संसद में बहस का विषय नहीं है। डा. लोहिया सार्वजनिक जीवन में सादगी और नैतिकता के पक्षधर थे। जब वह सांसद बने तो उनके पास मात्र दो जोड़ी कपड़े थे।

डा. लोहिया पहले नेहरू से प्रभावित थे, पर धीरे-धीरे उनकी नीतियों से उनका मोहभंग हो गया और वे नेहरू के कटु आलोचक होते चले गए। वह हर तरह के अन्याय, दमन, गुलामी, शोषण और असमानता के विरोधी थे। वह समतामूलक समाज का सपना देखते थे। इसके लिए उन्होंने काफी संघर्ष भी किया। अभी सात आठ खंडों में उनकी और सामग्री आएगी। इस रचनावली से भविष्य में डा. लोहिया का समग्र मूल्यांकन हो सकेगा। दो साल बाद जब उनकी जन्मशती पड़ेगी तो नई पीढ़ी नए सिरे से लोहिया को जानेगी और उनकी समग्र रचनाओं के आधार पर इतिहास में उनको सही जगह मिलेगी।
(साभार याहू)

Wednesday, March 19, 2008

होली

जिस दिन जिसकी लालसा ने
मनवांछित तृप्ति पा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

भूख से भैराते भिखमंगे ने
जिस दिन भरपेट रोटी खा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

विरह वेदना से व्याकुल विरही ने
जिस दिन प्रिय की झलक पा ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली .

वर्षों से कलम घिसते कवि ने
जिस दिन संपादक की कृपा हथिया ली
वह दिन उसके लिए
बस समझो हो गया होली

Saturday, March 15, 2008

ऐसे तो उच्च शिक्षा में मिल चुकी मंजिल

राजकेश्वर सिंह

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम आने वाले वर्षो में उच्च शिक्षा की तस्वीर बदल देने के जो भी सब्जबाग दिखा रहे हों, लेकिन जमीनी तौर पर चीजें उतनी ठोस दिखती नहीं हैं। दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले हमारे पास तो पीएचडीधारकों तक की बहुत बड़ी कमी है। वैज्ञानिक शोध के मामले में हम कहीं ठहरते ही नहीं। बावजूद इसके शोध की जरूरत के हिसाब से सरकार धन नहीं दे पा रही। संसद की एक समिति भी हैरान है कि आखिर सुधारों पर अमल होगा तो कैसे?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबंधित मानव संसाधन विकास मंत्रालय की प्राक्कलन समिति की बीते दिनों संसद में पेश रिपोर्ट काबिलेगौर है। जान सकते हैं कि आजादी के 60 साल बाद भी सालभर में हमारे यहां सिर्फ पांच हजार लोग पीएचडी करके तैयार होते हैं। जबकि भारत से बाद में आजाद हुए पड़ोसी देश चीन में सालाना 35 हजार और अमेरिका में हर साल 25 हजार लोग पीएचडी करते हैं। इसी तरह 2005 में भारत के पास कुल 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452, अमेरिका के पास 45,111 और जापान के पास 25,145 पेटेंट थे।

बात इतनी ही नहीं है। अकेले अमेरिका पूरे विश्व के 32 प्रतिशत शोधपत्र प्रकाशित करता है। इस मामले में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.5 प्रतिशत है। शोध को बढ़ावा देने के उपाय सुझाने के लिए सरकार की ओर से गठित प्रो. एमएम शर्मा समिति ने चालू वित्तीय वर्ष में 600 करोड़ रुपये के प्रावधान की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने दिए हैं सिर्फ 205 करोड़। यह स्थिति तब है, जब यूजीसी ने प्रो. शर्मा की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वह यह समझ पाने में नाकाम है कि बुनियादी ढांचे और मानव संसाधनों के अभाव में यूजीसी वैज्ञानिक अनुसंधानों में कैसे सुधार ला पाएगा? समिति ने यूजीसी से वित्तपोषित विश्वविद्यालयों में शोध की बहुत कम संख्या और उसकी गुणवत्ता को लेकर भी गहरा दुख जताया है।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही समिति ने वैज्ञानिक अनुसंधानों में सुधार के लिए सरकार से अगले वित्तीय वर्ष में हर स्थिति में 600 करोड़ रुपये का प्रावधान करने की ठोस सिफारिश की है। यह भी कहा है कि जरूरी हो तो लागत वृद्धि के मद्देनजर आवंटन को और भी बढ़ाया जाए।

यूजीसी बोर्ड में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के अलावा दस सदस्य होते हैं। इनमें सचिव (शिक्षा) व सचिव (व्यय) भी शामिल हैं। समिति तब दंग रह गई, जब उसे पता चला कि सचिव (व्यय) ने 2005 से 2007 के बीच आयोग की एक भी बैठक में शिरकत ही नहीं की।

(साभार याहू)

Wednesday, March 12, 2008

कब्ज़

कभी आपने सुना है ,
कब्ज़ के बारे में,
कुछ लोग इसे बीमारी कहते हैं,
यह भी कहा जाता है कि यह बीमारी
अमीरों की बीमारी है,
जी हां अमीरों की भीमारी
बीमारी भी अमीर और ग़रीब दोनों होती हैं,
यह भी भेद करती हैं,
ग़रीबों को कभी कब्ज़ नहीं होता,
गरीबों को दस्त लगते हैं।
कब्ज़ में कुछ खा नहीं सकते हैं,
पेट हमेशा भरा सा लगता है,
सोचिए अगर ग़रीब को कब्ज़ हो जाए
तो क्या मज़ा आए,
उसे हमेशा पेट भरा लगेगा,
कुछ खाने का दिल नहीं करेगा,
इससे यह फायदा होगा
कि वो आसानी से दो तीन दिन
भूखा रह सकता है,
उसे उपवास नहीं करना पड़ेगा,
क्योंकि पेट तो भरा हुआ रहेगा,
मगर अफसोस
ग़रीबों को कब्ज़ नहीं होता
ग़रीबों को तो दस्त लगते हैं।

पंकज रामेन्दू मानव

Friday, March 7, 2008

हे नारी !




प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
मीठी सी झिड़की हो, प्यार हो,
भावनाओं में लिपटी फटकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

प्रसव वेदना सहती ममता हो
विरह वेदना सहती ब्याहता हो,
सरस्वती, लक्ष्मी भी तुम हो
तुम ही काली का अवतार हो,
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

कैकयी हो, कौशल्या हो,
मंथरा भी तुम, तुम ही अहिल्या हो.
वृक्षों से लिपटी बेल हो,
कहीं सख़्त, सघन देवदार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

सति तुम ही, सावित्री तुम हो
जीवन लिखने वाली कवियत्री हो,
दोहा, छंद , अलंकार तुम ही
तुम ही मंगल सुविचार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

नदी हो तुम कलकल बहती,
धरती हो तुम हरियाली देती,
जल भी तुम हो, हल भी तुम हो,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जीवन का पर्याय हो तुम
आंगन, कुटी, छबाय हो तुम
यत्र तुम ही, तत्र तुम ही,
तुम ही सर्वत्र हो
ईश्वर की पवित्र पुकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

गेंहू तुम हो, धानी तुम ही
तुम मीठा सा पानी हो,
जब भी सुनते अच्छी लगती
ऐसी एक कहानी हो,
कविता में शब्दों सी गिरती
एक अविरल धार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जन्म दिया तुम ही ने सबको
तुम ही ने तो पाला है
पहला सबक लेते हैं जिससे
वो तेरी ही पाठशाला है
एक पंक्ति में,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

पंकज रामेन्दू मानव

"अपना क्या जाता है "।

आजकल मैं रिसर्च कर रहा हूं। रिसर्च का मतलब तो आप सभी लोग जानते होंगे। जब किसी विषय पर दोबारा खोज की जाती है तो वह रिसर्च कहलाती है। जैसे आप रास्ते से गु़ज़र रहे हों, कोई सुन्दर कन्या आप को दिख जाती है, आप को दोबारा से उसकी सुंदरता को आंकना ही रिसर्च हो। लेकिन मेरा उद्देश्य आप को शोध के विषय में जानकारी देना नहीं है, वो तो बात निकली तो दूर तलक जा पहुंची। तो मै क्या कह रहा था, हां रिसर्च, मैं आजकल एक रिसर्च कर रहा हूं औऱ इस शोध से मुझे जो बोध हुआ है उससे मैं काफी हैरत में हूं औऱ मेरी दिली तमन्ना थी कि आप भी मेरी हैरानी में शामिल हों। दरअसल मैं काफी दिनों से सोच रहा था कि इस दुनिया ने जितनी तरक्की की क्या उतनी काफी थी या उससे भी बेहतर कुछ हो सकता था औऱ अगर हो सकता था तो क्यों नही हुआ।
फिर भारत को लेकर भी एक सवाल उभरा, अब भाई मैं भारत का रहने वाला हूं तो मेरा अपने देश के लिए भी तो कोई दायित्व बनता है कि नहीं, जिस देश में जन्म लिया उसके लिए कुछ कर तो पाते नहीं हैं तो कम से कम सोच तो सकते हैं, वैसे भी भारत में ज्यादातर लोगों का अधिकतर समय दो ही बातों में व्यतीत होता है- सोच औऱ शौच। खैर हम विषय से ना भटके, हां तो भारत को लेकर प्रश्न यह उभरा कि, क्या कारण हैं कि हम विकास को लेकर इतने शील बने हूए हैं ?
अब दिमाग में सवाल रूपी खुजली उठी है तो खुजाने के लिए जवाब रूपी नाखून की आवश्यकता भी होगी, यही सोचकर मैं शोध करने पर मजबूर हुआ और इस नतीजे पर पहुंचा कि दुनिया की तमाम बड़ी घटनाओं औऱ विकास में बाधक महज़ एक वाक्य की मानसिकता है। जिसके कारण समस्याएं खड़ी हुई हैं। यह एक वाक्य कई प्रकार की परेशानियों की मूल जड़ है। यह वाक्य है "अपना क्या जाता है "।
आप खुद ही देखिए, बिजली का एक तार गया हुआ है औऱ नज़र दौड़ाओ तो उस तार में उलझे हुए कई तार दिख जाएंगे। अरे व्यवस्था है भई, मुफ्त बिजली घर पहुंचाने के लिए। बैठे ड्राइंगरूम में हैं लेकिन बाथरूम का बल्ब औऱ बेडरूम का पंखा भी अपनी कर्तव्यपरायणता निभाता रहता है औऱ क्यों न निभाए मालिक उसके लिए पैसे देते हैं, (कब देते हैं, कहां देते हैं. किसे देते हैं, औऱ कितना देते हैं, यह मेरा विषय नहीं है)। फिर देश पर बिजली संकट गहराए तो गहराए, अपना क्या जाता है।
पानी नल में आ रहा है नाली में जा रहा है, हम क्यों उसे नाली में जाने से रोकें ? हमारे यहां तो कहा भी गया है,रमता जोगी, बहता पानी इनके मन की किसने जाती। अब भाई पानी की नाली में जाने की उमंग है तो जाए, अपना क्या जाता है।
सड़क पर जा रहे हैं रास्ते में प्रेशर बन गया तो क्या करें, नहीं कर सकते बर्दाश्त फिर खुले वातावरण का मजा ही कुछ औऱ है। पान खा रहे हैं, अब क्या मुंह में थूक भरे घुमते रहें आखिर मुंह की भी कुछ महिमा है तो भैया मुंह की महिमा को बनाए रखने के लिए दीवारों, सड़कों को रंगना भी ज़रूरी है बाद में सफाई विभाग जाने उनका काम जाने आखिर हमारे पैसों पर पल रहे हैं वो सोचें इस विषय में अपना क्या जाता है।
दोस्त का फोन आया लगे है बतियाने,एक घंटे या इससे ऊपर बात हुई,जिसमें बीच बीच में कम से कम 30 बार, और सुनाओ, औऱ बताओ जैसे वाक्यांश का उच्चारण करके तल्लीनता का प्रदर्शन भी हुआ। अरे यार ऐसे ही तो बात आगे बढ़ेगी, बिल भी तो मित्र का ही बढ़ेगा अपना क्या जाता है।
कई बार तो मैं सोचता हूं कि हिटलर ने हज़ारों लोगों को गैस चैंबर में ठूंस दिया था, उसके पीछे भी हिटलर की यही मानसिकता रही होगी, मरे तो मरे, अपना क्या जाता है।
मुगलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो जयचंद ने सोचा होगा मैं क्यों किसी का साथ दूं जिसको लड़ना हो लड़े मरे अपना क्या जाता है।
अंग्रेज दो सौ सालों तक राज कर गए, हमारे राजा धीरे धीरे गुलाम बनते गए, सबने यही सोचा होगा कि बगल वाला जान वो बनेगा गुलाम अपना क्या जाता है।
देश आज़ाद हो गया, टुकड़ों में बंट भी गया हम इंसान से हिंदू-मुस्लिम बन बनकर मरे जा रहे हैं। एक कौम और है, वो है सियासतदारों की कौम, वो सोचती है कि और लड़े अच्छा है मरे, अपना क्या जाता है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान पर दादागिरी की और फिर ईराक पहुंच गया, सबको निपटा रहा है, सब तमाशा देख रहे हैं और सभी सोच रहे हैं कि भैया अपना क्या जाता है।
आजकल एक शब्द बहुत चलन में है एनकाउंटर, हिंदी मे इसे मुठभेड़ कहते हैं, वैसे पुलिसवाले जब इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो एक हाथ में बंदूक की मुठ होती है और सामने एक भेड़ होती है। एक आदमी के मरने की खबर छपती है, मरनेवाला आतंकवादी या वगैरह-वगैरह बताया जाता है, पड़ौसी सोचते हैं कि बरसों से बगल में रह रहा था तब तो कभी महसूस नहीं हुआ, अब पुलिसवाले कहते हैं तो..... पुलिस सोचती है कि भई आतंक के साये में जीने वाले को आतंकवादी बनाने में समय कितना लगता है और फिर सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें आखिर अपना क्या जाता है।
क्रिकेटर से लेकर रूलिंग पार्टी को चलायमान रखने वाले सपोर्टर तक सभी की यही सोच बन चुकी है, चाहे देश मैच हारे या सत्ता की तलवार से जनता का सर कलम हो हमें कुछ नहीं सोचना है,हमें कुछ नहीं करना है आखिर अपना क्या जाता है।
आपको क्या लगता है ? मेरी शोध के बारे में आपके क्या विचार हैं ? अब आप विचार बनाएं या ना बनाएं मुझे जो कहना था सो कह दिया, सुन ले तो अच्छी बात नहीं तो अपना क्या जाता है।

Tuesday, March 4, 2008

कौन चले इस मार्ग पर



पंकज रामेन्दू

भारत में हर क्रांतिकारी और समाज सुधारक के नाम से एक मार्ग बना दिया जाता है, फिर यह मार्ग बस वालों के लिए एक स्टॉप, आम जनात के लिए एक रास्ता और हज़ारों लाखों के लिए गुज़रने का एक ज़रिया बन कर रह जाता है। महज़ एक रास्ता जिसे, जिसके नाम पर रखा गया है ना उसे किसी को वास्ता होता है ना हमारी राजनीति चाहती हबै कि कोई उससे वास्ता रखे ।
हल्ला बोल.. फिल्म में एक नुक्कड़ नाटक के माद्यम से अवाम को जगाने की कोशिश को दिखाया गया। मैं यह फिल्म देख कर निकला, गाड़ी मैं बैठा, गाड़ी कई रास्तों से गुज़रती हुई सफदर हाशमी मार्ग से निकली, सफदर हाशमी मार्ग मंडी हाउस के पास से निकलता हुआ एक रास्ता है। रास्ता इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां से सभी गुज़रते हैं, कुछ को अपना काम रहता है, कुछ यूंही तफरीह करते रहते हैं. फिल्म की स्क्रिप्ट दिमाग में चल रही थी जैसे ही इस मार्ग से निकला तो एकदम से सफदर हाशमी की याद ताजा हो गई। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं कभी उनसे मिल नहीं सका, उनके बारे में जो भी मालूम चला वो लिखे-पढ़े से ही जान पाया था। नुक्कड़ नाटक के माध्यम से सफदर ने जो क्रांति पैदा की थी, उसकी वो लपट इतनी तेज थी कि वो तात्कालीन राजनीति को झुलसाने लगी थी और यही कारण रहा कि सफदर राजनीतिक गोली का शिकार बन गए। उनकी मौत के पश्चात उनके नाम से एक मार्ग बना दिया गया। अब यह मार्ग एक सार्वजनिक मार्ग है जिस पर से गुजरने वालों में से अधिकांश को यह भी नहीं मालूम कि सफदर आखिर थे कौन ?
सफदर की जलाई हुई आग काफी तीखी थी इसलिए उसे बुझाने के लिए सांत्वना का मार्ग बना दिया गया है। लेकिन कई ऐसे भी लोग है जो लगातार ऐसा काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हे भरोसे के शब्द भी नहीं मिलते हैं । स्कूल दिनों में भोपाल में नुक्कड़ नाटक हमारा मुख्य शगल हुआ करता था, इस नाटक की सर्वेसर्वा पाखी दीदी हुआ करती थी। वो कहां से आती थी हम नही जानते थे, बस वो जब भी आती तो हमेशा हमारे मोहल्ले से लगी झुग्गी बस्ती के बच्चों को इकट्ठा करती थी और नुक्कड़ नाटक करवाया करती थी। उनके नाटकों का कई बार मुहल्ले में विरोध होता था, मोहल्लेवाले का विरोध इस बात को लेकर रहता था कि पाखी दीदी झुग्गी वाले बच्चों और मोहल्ले के दूसरे बच्चों को नाटक में हिस्सा दिलवाती हैं और उन्हें इस बात का डर रहता था कि इससे बमारे बच्चे बिगड़ जाएंगे। बाद में पता नहीं दीदी कहां चली गई मैं भी बड़ा हो गया और रोज़ी रोटी ने दिल्ली धकेल दिया। लेकिन आज सोचता हूं कि पाखी दीदी का क्या स्वार्थ था ? वो तो एक अच्छा ही काम कर रही थी। यह सोचते सोचते बचपन में दिमाग में पैदा हुई एक उलझन ताज़ा हो जाती है, बचपन में जब हमें ऐसे तथाकथित बच्चों के साथ खेलने से रोका जाता था तो हमेशा सोचता रहता था कि आखिर यह बिगड़ा होता क्या है ?
खैर पाखी दीदी का पता नही है लेकिन सफदर हाशमी मार्ग से गुज़रना हो जाता है, सफदर हाशमी मार्ग जैसे ही भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में एक प्रचलित रोड ज़रूर होती है, इस रोड का नाम है एम.जी रोड। महात्मा गांधी को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है, जो नहीं भी जानता ता उसे मुन्ना भाई की गाधीगिरी ने बता दिया था कि गांधी जी क्या चीज़ थे। लेकिन इन जानने वालों में बहुत से लोग यह नही जानते कि यह एम.जी रोड दरअसल महात्मा गांधी मार्ग है। दिल्ली में ऐसे ही एक रोड और है जी.बी रोड, वैसे तो दिल्ली में रहने वाले और यहां घूमने आने वाले इस रोड को दिल्ली के रेड लाइट एरिये के नाम से जानते हैं। मेरी पहचान वालों में से कई ऐसे भी है जो जब में दिल्ली से जाता हूं तो यह ज़रूर पूछते हैं कि जी.बी रोड घूमा कि नहीं। इस पूछ के साथ उनके चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान भी दौड़ जाती है।
एक दिन मैं भीपाल के अपने एक मित्र जो कि इश रोड के मेरे अनुभव जानने के लिए काफी आतुर थे, से पूछ बैठा, यार तुम्हे मालूम है कि जीबी रोड का क्या मतलब है ? मेरे मित्र ने काफी दार्शनिक अंदाज़ में मुझसे कहा था कि रेज लाईट एरियों का क्या नाम ? जब मैंने उनसे कहा कि इस रोड का नाम गोविन्द बल्लभ मार्ग है तो वो नाम को लेकर बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं हुए, अलबत्ता वो मुझसे यह ज़रूर पूछ बैठे, तो क्या हुआ ? मुझे चुप रहने के अलावा कोई और जवाब नहीं सूझा ।
महात्मा गांधी का एम.जी रोड में, गोविन्द बल्लभ मार्म का जीबी रोड में तब्दीलल होना हमें यह बता देता है कि चाहे सफदर हाशमी हो या सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह हो या गौतम बुद्ध यह सिर्फ एक मार्ग के नाम है.. भोपाल में दुष्यंत कुमार मार्ग से गुज़रता हूं तो यह बात ध्यान आती है.. हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.. मेरे सीने में नही. तेरे सीने में सही... हो कहीं भी आग जलनी चाहिए। दरअसल दूसरे के सीने में आग जलने की अपेक्षा रखने वाले इस मार्ग से गुज़र तो सकते हैं ... लेकिन इस पर चल नहीं सकते हैं

Saturday, March 1, 2008

ब्लाग में होती नंगाई

पंकज रामेन्दू


कहावत बहुत पुरानी है मगर कभी इसका असर कम नहीे हुआ है, हमाम में सभी नंगे होते हैं, और जब सब नंगे हों तो दूसरे को कम या ज़्यादा नहीं आंका जा सकता है। आज कल ब्लागों के बीच जो वाक् और युद्ध और शक्ति प्रदर्शन चल रहा है। वो हमाम में बैठे एक नंगे के दूसरे के नंगत्व पर हंसने जैसा हो रहा है। हिंदी लेखकों और कवियों हमेशा से बेचारे रहे, हर बार लिखी हुई रचना का वापस आ जाना, उसमें सुधार की सलाह मिलना, और कलम घिसते-घिसते हाथों से तक़दीर की लकीर का मिट जाना एक हिंदी रचनाकार के लिए नियति रही है। हिंदी रचनाकार जब महान होता है तो हर महान की तरह उसकी ज़बान में भी यह दर्द आ ही जाता है कि फलां प्रकाशक ने मुझे भगाया था, फलां पत्रिका औऱ अखबार में मेरी रचनांए नहीं छपी। हर रचनाकार की रचना को अच्छा ना बताकर वापस करने की प्रथा रही है, लेकिन जब वो बड़ा हो जाता है तो उसकी वो ही लौटी हुई रचना बड़े मजे से छापी जाती है और चाव से साथ पड़ी जाती है। पहल हर समय यह प्रश्न बना रहता था कि ऐसा क्यों. क्या कारण है कि जो रचना पहले वापस आ गई वो दोबारा बेहतर से बेहतरीन हो जाती है। दरअसल हिंदी साहित्य में केकड़े पलते हैं, जो किसी भी दूसरे केकड़े को आगे बढ़ता हुआ देख उसकी टांग खींच लेते हैं।
हिंदी साहित्य में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी रचनाकार को आसानी से मिल गया हो, सभी साहित्यकारों ने उसकी मदद की है, यही कारण है कि हिंदी के विकास की दुहाई देने वाले तमाम लोग खुद की इसकी रेड़ मारते रहते हैं। गिद्ध के समान हमेशा सब कुछ झपट लेने की मानसिकता हमारे तथाकथित साहित्यकारों की एक विधा रही है।
अब इस काम को आग बढ़ाने का बीढ़ा उठाया है, इन ब्लागरों ने, यह भी वही हरकत कर रहे हैं जो हिंदी साहित्यकार करते हैं, जिसके कारण हिंदी साहित्य और तमाम खूबसूरत कृतियां लोगों तक आने से पहले ही मर जाती हैं। लगे हुए हैं एक दूसरे की जूतमपैजार करने में। सब एक दूसरे को गरिया कर अपनी लकीर बड़ी करने में लगे हुए हैं, इन सभी लोगों का एक ही सिद्दांत हो चुका है, मेरी साड़ी से तेरी साड़ी सफेद कैसे।
लेकिन इन तमाम पहलुओं में एक बात पर गौर करना सभी लोग भूल रहे हैं, या यूं कहे कि गुस्से में सभी का ध्यान इस ओर नहीं गया है कि यह प्रचार का एक बाज़ारु तरीका भी हो सकता है। अभी कुछ दिनों पहले सराय में ब्लागरों की मीटिंग हुई थी, मैं भी वहां पहुंचा था, वहां कोई सज्जन थे( नाम मुझे याद नहीं आ रहा है क्योंकि मैें उनसे पहली बार ही मिला था और चेहरे और नाम याद रखने में मेरी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर है) उन्होने कहा था कि हमें ब्लाग में सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना होगा कि इसकी पाठक संख्या कैसे बढ़ती है, मीडिया वाले जहां भी अपनी नाक घुसेड़ेंगे वहां वो टी आर पी की ही गंध चाहते हैं, इसे कहा जाता है, बिल्ली की नज़र में छींछडे। तो वो ब्लागरों की संख्या बढ़ाने को लेकर काफी चिंतित थे, इस चिंता के पीछे का सच तो वो ज़्यादा बेहतर बता सकते हैं। इसके अलावा एक चीज़ और देखने को मिली थी कि जिस प्रकार किसी कविता गोष्ठी में अगर कोई नया कवि बगैर किसी का हाथ थामे पहुंच जाए , तो उसके साथ जैसा बर्ताव वरिष्ठ कवियों द्वारा किया जाता है, यानि जैसे ही वो अपनी कोई रचना प्रस्तुत करेगा तो कई वरिष्ठ चेहरों पर संतो वाली मुस्कान लहर जाती है, ऐसे ही कुछ लोग थे जिनके चेहरे पर वो संतो वाली मुस्कान थी। अविनाश जी को तो हमेशा से बहस में मज़ा आया है, उनकी कम्युनिस्ट विचार धारा उन्हे हमेशा से ऐसा करने पर मजबूर करती रहती है, तो वो तो बहस का भरपूर आनंद उठा रहे थे।
यह पूरी बात बताने के पीछे मंतव्य यही था कि अभी जो ब्लाग पर मारकुटाई चल रही है, वो महज एक प्रचार का तरीका भी हो सकता है, जिसे देशी भाषा में कह सकते हैं . तू मेरी खुजा,में तेरी खुजाता हूं।

लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अपने को होशियार और दूसरे को बेवकूफ समझना बुरे वक्त की निशानी होती है।