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Friday, February 29, 2008

टी.वी. पर ट्राई मारने का है एक बार।



संजीव चौधरी

सात-आठ साल उम्र के दो बच्चे । एक के गले में लटका हुआ छोटा-सा पुराना
हारमोनियम और दूसरे के हाथ में एक डफ़ली । महानगर नयी दिल्ली का व्यस्ततम
इलाका कनॉट प्लेस इन दोनों बच्चों के कमाने-खाने की जगह। फुटपाथ और खुले
आसमान के अलावा जमा पूंजी के नाम पर और तीसरा उनके पास कुछ भी नहीं। उलझे
बाल, बुझे चेहरे और अलमस्त आंखों में सुलगते हुए सवाल महानगर की इलीट
सोसायटी से अनजान नहीं है । समाज में हाशिये पर रुके ये बच्चे इतने नादान
भी नहीं हैं कि हवा का रुख भी न भांप सके । माहौल और मौका देखकर कभी माता
की भेंट गाते हैं तो कभी दुत्कार मिलने पर सिर खुजाने के अलावा और दूसरा
चारा नहीं रहता । कभी हल्की सी रोमांटिक आवारगी में 'ये इश्क हाय' गाते
हैं कभी 'सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा' । जनपथ बाज़ार पर पटरी
के किनारे चिंहुकते इन दोनों बच्चों से मुखातिब हुआ -

क्या नाम है?
असली नाम तो कुछ और है लेकिन मुझे रितिक कहते हैं और मेरे इस दोस्त को
अभिषेक । आपको क्या काम है हमसे, गाना सुनोगे?

नहीं, कहां रहते हो?
यूं तो हम पहाड़गंज के हैं । यहां और कई ऐसे बच्चे हैं, जो जमनापार,
पहाड़ी धीरज और कुचापातीराम से आते हैं। अपुन कनॉट प्लेस में रहते हैं,
अपुन का दिल यहीं लगता है।

मां-बाप क्या करते हैं?
नहीं मालूम।

मां-बाप का क्या नाम है?
होगा कुछ, वो भी नहीं मालूम।

सिंगर कैसे बने?
पैसा कमाने के लिए। अभी इधर दिल्ली में हैं। टी.वी. पर ट्राई मारने का
है एक बार। बाम्बे जाने का मूड है।

मां की याद नहैं आती?
नहीं।एक बाई है बाई। वे जी.बी. रोड एरिया है न, वहीं है। उसी को मां बोलते हैं।

गाकर कितना कमा लेते हो?
कुछ पक्का नहीं। इधर धंधा बहुत डल है। बीस-तीस की पॉकेट हो जाती है।

कभी स्कूल गये हो?
क्यों जाएं स्कूल, वहां कोई पैसे मिलते हैं।

कहां-कहां गाते हो?
कभी सफेद बस में, कभी लाल बस में, कभी नीली बस में। कई बार रेल में भी
गाते हैं। शाम को इधर जनपथ पर गाते हैं। इधर का छोकरी बहुत अच्छा है।
छोकरा लोग पैसा नहीं देता। कुछ और पूछना है आपको? कौन हैं आप?

सबसे ज्यादा गाना कौन सा गाना गाते हो?
बस दीवानगी है, ओम शान्ति ओम।

ब्लाग मेरे बाप की


पंकज रामेन्दू

आखिरकार ब्लागरों ने अपनी औकात दिखाना शुरु कर दिया, लगातार छप रही इन तकरीरो को देख कर एक कहानी याद आती है, एक सियार शहर में गया, शहरी लोग उसे भगाने लगते हैं, वो छिपते-छिपते एक रंग के टब में गिर जाता है और उसका रंग नीला हो जाता है। उसके रंग को देख कर सब लोग अचंभित रह जाते हैं और उसकी देख रेख होने लगती है, एक दिन अचानक सियार हू हू करते हैं तो वो भी उनके साथ ताल में ताल मिलाने लगता है।
ब्ललागर भी अब सियारों की तरह हू हू करने में लगे हुए हैं, सब को दूसरे की दाद में खुजाने में आनंद आ रहा है, भड़ास हो या मोहल्ला। सभी को दूसरे की छीछालेदर करने में आनंद आ रहा है, मोहल्ला कौन होता है यह कहने वाला की भड़ास बंद होना चाहिए, भड़ास कौन होता है मोहल्ला को अनुशासन सिखाने वाला। अपने आप को क्या यह ब्ललॉग का बाप मानने लगे हैं या ब्ललॉग इन्होंने खरीद लिया है।
जब ब्लागिंग शुऱू हुई थी, तो इसका उद्देश्य हिंदी को आगे बढ़ाने और एक दूसरे के भावनाओं को बांटने का था। बहुत अच्छी पहल थी, जिसने इन्हे शुरू किया था वो उस छोटे बच्चे के समान थे जो अपने तन पर कपड़े इसलिए नहीं रखना चाहता है क्योंकि उसे कपड़े एक बनावटी आवरण लगते हैं। उसको प्राकृतिक रूप से रहने में आनंद आता है, उसके नंगेपन में मासूमियत होती है। यह तथाकथित पत्रकारों ने इसमें अपनी नाक घुसेड़ कर इसमे होने वाले नंगेपन को अश्लीलता की सीमा पर ला दिया है.
ब्लाग ब्लाग ना रहकर अखाड़ा बन गया है, सब लाल लंगोटी पहने तैयार है, और एक दूसरे की लंगोटी उतारने का प्रयास करने में लगे हए हैं।
दरअसल यह सारे के सारे किसी विषय पर चरचा नहीं करना चाहते यह बहस करना चाहते हैं, यह ग़लतफहमी पाले बैठे हैं कि ब्लाग की सत्ता इनके हाथों में है, यह जैसे चाहे नचा लेंगे। कुछ लोगों को अतिक्रमण करने की आदत होती है, वो चाहे रेल्वे की बर्थ पर बैठे, टेलीफोन की लाइन में खड़े हो, या कुछ लिखे पढ़े, हर जगह वो पिछवाड़ा टिका कर पांव पसारने पर विश्वास रखते हैं।
लेकिन यह भूल गए हैं कि १२ घंटे बाद तो सूरज भी अस्त हो जाता है।
इसलिए भैया अगर आप लोग यह सोच कर बैठे हो कि जिस तरह मीडिया में फन फैलाए बैठे हो और किसी दूसरे को अंदर नहीं आने देने चाहते हो, खड़ी भाषा में कहें तो, जो आप लोग अगले को चूतिया समझने की भूल कर रहे हो ना, तो यह भूल जाओ क्योंकि

हर एक चीज़ का होता है, एक ना एक दिन अंत
बारहों महीने नहीं रहता बंसत

Wednesday, February 27, 2008

मर्जी एक्सप्रेस





अभय मिश्र
अशोक कुमार की एक फिल्म का गाना याद आ रहा है। बोल थे- रेलगाड़ी रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक, बीच वाले स्टेशन बोले रुक रुक रुक रुक। बचपन में यह गाना गाते हुए भाई बहनों के साथ रेलगाड़ी का खेल खेलना हमारा प्रिय शगल होता था। खेलते वक्त बीच में गाड़ी रोक कर घर के अन्य सदस्य खुद को गाड़ी में बैठाने का आग्रह करते थे और हम उन्हें अपनी रेल में बिठा कर नानी के य़हां छोड़ देने का उपक्रम करते .
बचपन में खेले जाने वाले इस खेल की याद हाल में एक खबर से आई। एक चैनल ने दिखाया कि बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में लोग पटरियों पर खड़े बीस रुपये का नोट हाथ में लेकर हिलाते हैं। ट्रेन आती है और रुक जाती है. ड्राइवर बीस रुपये हाथ में लेता है और लोग आराम से ट्रेन में चढ़ जाते हैं। यह लोगों की रेल ड्राइवरों के साथ मिल कर बनाई हुई व्यवस्था है।
लोगों का कहना है कि रेल मंत्री भी तो यही चाहते हैं कि सबको रेलवे की सुविधा मिले। रेल आपकी अपनी संपत्ति है- इस सूत्र को पूरी तरह अपने में समाहित करने इन गांव वालों को स्टेशन जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. वे आराम से घर के पास ही सुविधा प्राप्त कर लेते हैं, बिना इस बात की चिंता किए कि ट्रेन के इस तरह बार-बार रोके जाने से दूसरे दूसरे लोगेों को कितनी असुविधा और रेलवे को राजस्व का कितना नुकसान होता होगा। उन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पडता कि उस ट्रेन में बैठा कोई बेटा शायद अपने बीमार बूढे मां-बाप को देखने जा रहा होगा और जितनी बार गाड़ी रुकती होगी उतनी बार उसके मन में हज़ार आशंकाएं उठ खड़ी होती होंगी. गाड़ी में जा रही किसी बारात को देर हो रही होगी या नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहे किसी बेरोज़गार को समय पर न पहुंच पाने का डर सता रहा होगा. यही नही, यह सुविधा उठाने वालों को यह अहसास ही नहीं रहता होगा कि उनकी वजह से कोई बीमार समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाया और समय पर कारखाने न पहुंच पाने के कारण किसी की आधे दिन की दिहाड़ी काट ली गई। ऐसे कितने अफसानों के साथ एक ट्रेन के भीतर हज़ारों लोग यात्रा करते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली हो या बघेलखंड के पिछड़े इलाके में बसा मेरा गांव, सार्वजनिक सुविधाओं का जितना दुरुपयोग हम करते हैं उसकी नज़ीर कही और देखने को नहीं मिलती । पिछले दिनों लंबे अंतराल के बाद गांव जाने का मौका मिला। रीवा से गांव की दूरी मात्र नब्बे किलोमीटर है। लेकिन यह सफर तय करने में सात या आठ घंटे तक का समय लगता है। क्योंकि हर मुसाफिर अपने घर के समाने बस रुकवाना चाहता है। थोड़ी थोड़ी दूरी पर खड़े रहते है, एक जगह खड़ा रहने में मानों उनका अहं आड़े आता हो। कोई ब्राह्मण या ठाकुर किसी दलित के साथ खड़े होकर कैसे बस का इंतज़ार कर सकता है ।
बहरहाल, बस धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी कि चुरहट पार करते ही फिर रुक गई। बारह झांक कर हक़ीकत जानने की कोशिश की, बस किसी नई-नवेली दुल्हन के लिए रुकवाई गई थी, और वह दूर से लंबा घूंघट और चमकीलीी गुलाबी साड़ी में लिपटी धीरे-धीरे बड़बड़ाता हुआ गाड़ी को रोके रहा और दुल्हन का इंतज़ार करता रहा. उसके पास कोई चारा नहीं था, क्योंकि उसे रोज़ इसी रास्ते निलना है और यहां बसों में तोड़-फोड़ मारपीट रोज़ की बात है।
इस तरह ट्रेन-बसों को रोकने की प्रवृत्ति सिर्फ बिहार में नहीं है। खंडवा-इंदौर रेल लाइन पर दूध वाले ड्राइवर को थोड़े से दूध के बदले में कहीं भी रुकने पर मजबूर कर देते हैं। नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर रेलवे का एक विज्ञापन आता था- हम बेहतर इसे बनाएं और इसका ळाभ उठाएँ, रेल रेल। हमने इसे बेहतर तो पता नहीं कितना बनाया, लेकिन इसका मनमुताबिक लाभ ज़रूर उठा रहे हैं।

Monday, February 25, 2008

जय जवान, जय किसान


जय जवान, जय किसान, यह नारा भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादूर शास्त्री ने दिया था, यह बात हम सब को मालूम है, इस नारे से प्रभावित होकर उपकार फिल्म का निर्माण हूआ यह भी हम लोग जानते हैं। उपकार फिल्म का गाना मेरे देश की धऱती सोना उगले-उगले हीरे मोती, हम सभी ने सुना है (वैसे भी हर स्वतंत्रता दिवस पर यह गीत कही ना कहीं सुनाई दे ही जाता है।)। मेरे ख्याल से मेरी इस बात से किसी को गुरेज नहीं होगा।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री के नारे दिए जाने औऱ फिल्म निर्माण से अब तक काफी समय गुजर गया, देश ने काफी तरक्की भी कर ली, हर जगह मॉल भी खड़े हो गए, औऱ तो औऱ सेज़ की सेज बनाकर सरकार ने गहरी निंद्रा भी तान ली। इस पूरे बदलावीकरण में कुछ चीजें है जो हमारी परंपराओं के समान अडिग रही, औऱ ना पहले बदली औऱ नही अब बदली, हां बदतर ज़रूर होती गई। किसान आज भी मुंशी प्रेमचंद की पूस की रात का किरदार है जो अपने कुत्ते झबरा को छाती से चिपटाकर हाड़ तोड़ती सर्दी में गर्माहट लेता है, यह किसान कभी जवान नहीं हो पाया क्योंकि वक्त से पहले झुकती कमर ने इसे बचपन से सीधे बूढ़ापे ला पटका, हर जगह पराजय स्वीकारता किसान कभी जय किसान नहीं बन पाया।
कभी प्रकृति की मार सहता, कभी सूखा कभी बाढ़ सहता यह किसान इन त्रासदियों से उभर नहीं पाता है कि कोई नई मुसीबत उसके सामने दम साधे खड़ी रहती है।



सेज़ की सेज पर नंदीग्राम में कई लाशे सोई पड़ी है, तो विदर्भ में अपने पेट को घुटने से चिपकाकर अपनी भूख को मारता किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहा है। यहां प्रधानमंत्री भी आते है, औऱ मुख्यमंत्री भी दौरा करते हैं लेकिन इनके वादों की आभासीय मिठाई मुंह मीठा नहीं कड़वा कर जाती है। किसान इन मु्द्दो को सहन करने के बाद फिर उठने का प्रयास करने लगा तो हमारे देश के कर्णधारों को यह भी नागवार गुजरा औऱ वो गेंहू के मूल्य निर्धारण का निर्णय लेकर फिर किसान की कमर तोड़ने पर आमादा हो गए।
जिस देश का स्थान कृषि में सर्वोच्च रहा करता था, आज उस भारत में कृषि सरककर तीसरे स्थान पर आ गई है। बढ़ते शहरीकरण औऱ खेती में लगातार होते घाटे को देखते हुए किसान का मन भी अब खेती की ओऱ से खट्टा होने लगा है औऱ वो शहरों की तरफ आकर्षित हो रहा है, जो न सिर्फ उसके लिए बल्कि देश के लिए भी एक चिंतन का विषय है। आज का किसान अपनी दो बीघा ज़मीन को वापस पाने के लिए शहरों में संघर्ष करने नहीं पहुंच रहा है बल्कि उसका उचटा मन उसे यह करने पर मजबूर कर रह है। हमारे देश की शासन व्यवस्था जिसने कभी ज़मींदारी प्रथा औऱ सूदखोरी जैसी व्यवस्थाओं पर लगाम लगाने के लिए कदम उठाए थे, आज मदर इंडिया के सुख्खी लाला की तरह हर किसान का दो तिहाई अनाज छीन रही है औऱ बिरजू बना किसान आज भी सुख्खी लाला के बही को दुनिया की सबसे कठिन पढ़ाई समझे बैठा हुआ, एक बेबस की तरह उसे समझने का प्रयास कर रहा है।

Sunday, February 24, 2008

राहत की चाहत



कई बार ज़िंदगी में कुछ ऐसी घटनाए घट जाती हैं, जो हमें सोचने पर तो मजबूर करती ही हैं साथ ही साथ हमारी आत्मा को भी कचोट देती है। कुछ दिनों पहले मैं एक ऐसी महिला के दर्द से रूबरू हुआ, जिसने मुझे हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की रजाई में पड़े पैबंद दिखाए, यह वो व्यवस्था है जो हालातों की सर्दी में ठिठुरते आम लोगों को राहत देने का वादा तो करती है, लेकिन इसमें हुए दंबगदारी के छेद से गरीब और मजबूर जनता के हाड़ तक को कंपा देने वाली असंवेदशील सर्द हवा अंदर प्रवेश करती ही रहती है।
मै जिस महिला की बात कर रहा हूं वो अनिता नाम की एक मध्यमवर्ग की महिला है। एक ऐसा वर्ग जो अपने ज़िंदगी के कुंए में रोज़ हक़ीकत की बाल्टी उतारता है औऱ उसमें अपने सपने के पानी को देखने की कोशिश करता है। अनिता की मां भी है और पिता भी, यानि एक भरापूरा परिवार, जो एक दूसरे की मुस्कुराहटों पर जीवित है। अनिता एक कामकाजी महिला है, जो अपनी कमाई से अपने माता-पिता औऱ घर का खर्च चलाती है। मां बाप बूढ़े हो चुके है, इसलिए उनके सेहत को ध्यान में रखते हुए अनिती ने उनका मेडिकल इंश्योरेंस भी करवा रखा है। आखिर बुरा वक्त कह कर थोड़ी ना आता है। वो अपनी छोटी सी कमाई में से इस इंश्योंरेंस के पैसों को जमा करना कभी नहीं भूलती है।
एक दिन अनिता की मां को हल्का सा बुखार हो गया, उसकी मां को सर्दी-जुखाम कुछ दिनों से था, उसने सोचा शायद उसी के कारण बुखार हो गया होगा।
वो अपनी मां को लेकर पास के मैक्स नाम के निजी अस्पताल में पहुंची, डॉक्टरों ने बताया कि उसकी मां को मामूली सा वायरल इंफेक्शन है, एक दो दिन में ठीक हो जाएगा। एहतियात के तौर पर उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया । अनिता ने सोचा, किसी बात को जोखिम क्यों उठाया जाए और फिर मेडिकल इंश्योरेंस भी है, उसने अपनी मां को अस्पताल में भर्ती कर दिया, इलाज भी शुरू हो गया।
दो दिन की बीमारी दो महीने में तब्दील हो गई, वो डॉक्टर जो इसे एक मामूली बीमारी बता रहे थे, अब इसकी गंभीरता बयान करने लगे। पैसा लगातार खर्च हो रहा था। इंश्योरेंस कंपनी भी पैसा देने में नानुकुर करने लगी । डॉक्टर अपने अनुसार अनिता की मां के इलाज का बिल बना रहे थे, वैसे भी इंश्योरेंस कंपनी जिन अस्पतालों से समझौता करती हैं, वे दोनों मिल कर क्या करते हैं यह कभी ग्राहक को पता नहीं चल पाता है। उसे तो अंत में मालूम चलता है कि वो इतना लुट चुका है। एक दिन डॉक्टर ने आकर बताया कि उसकी मां को निमोनिया है वो भी ऐसा जो हज़ारों में किसी एक को होता है। अनिता कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी वो सिर्फ चुपचाप अपनी मां को देख रही थी, उसे अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था। दिन बीतते गए। एक दिन इंश्योरेंस कंपनी वालों ने आकर कहा कि हमारी योजना में इतना खर्च वहन करना नही है और पता नहीं उसे क्या समझा गए, उसे सिर्फ इतना समझ में आया कि पॉलिसी लेते वक्त उसे अंधेर में रखा गया, वो कुछ नहीं कर सकती थी। एक दिन डॉक्टरों ने कहा कि उसे एक नियत राशि जमा करनी होगी तभी आगे उसकी मां का इलाज हो सकता है अन्यथा वो अस्पताल खाली करे। सरिता डॉक्टरों के आगे गिड़गिड़ाई, रोई, लेकिन डॉक्टर ने एक नहीं सुनी, आखिर उन्होंने खैरातखाना तो खोल नहीं रखा था। एक दिन अनिता की मां को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया, अनिता इसके बात जी.बी पंत नामक सरकारी अस्पताल में गई। ये वो अस्पताल है, जिन्हे ऐसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ही जाना जाता है, और यह अस्पताल आम जनता के लिए ही बनाए गए हैं,। मगर अफसोस हमारे देश में आम नागरिक आमतौर पर मरने के लिए बना है, जीना तो उसके अधिकार में है ही नही। जिन अस्पतालों के विषय में कहा जाता है कि यहां गरीबों का इलाज किया जाता है, यह खैराती अस्पताल है वहां भी खैरात सिर्फ दंबगदारों के नसीब में ही है। आपके पास कितनी लंबी पहुंच है कितना जेब में माल है, यह बात निर्धारित करती है कि आप जीने के हकदार है कि नहीं । अनिता की मां इस बात को साबित करने में नाकामयाब रही और उसे किसी सरकारी अस्पताल में दाखिला नहीं मिला। अनिता ने लाख सिर पटके, कार्यालय दर कार्यालय, यहां तक कि मुख्यमंत्री के पास भी पहुंची, लेकिन आम जनता की आवाज़ में वो बुलंदी नहीं होती की वो किसी खास के कान में जूं को रेंगा सके, धीरे-धीरे अनिता की मां मरती गई, यह सब हमारी आंखो के सामने घटा। अनिता रोज़ अपनी मां को तड़पता देखती और बिलखते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती कि है ईश्वर मेरी मां को उठा ले, उसे मुक्ति दे दे, उसे जीने का कोई हक नहीं है क्योंकि वो एक आम इंसान है। एक दिन ईश्वर ने अनिता की सुन ली औऱ उसकी मां ने इलाज के अभाव में अंतिम हिचकी ली। यह बात सुन कर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला शायद किसी की आत्मा भी ना कचोटे, क्योंकि हमने अपनी संवेदनाओं, इंसानियत, मानवता को सरे बाज़ार नीलाम कर दिया है। फिर ऐसे आदमी के मरने पर क्या अफसोस करना जो कीड़ों मकोड़ों की तरह जी रहा है, भारत का हर आम नागरिक एक कीड़ा है, जो ना जीने का हक़दार है औऱ ना ही जिसे मौत भी मयस्सर है, उसे सिर्फ तड़प मिल सकती है, यह आम आदमी, उस चूसने वाले आम की तरह होता है जिसका रस का आनंद उठाया जाता है, और फिर उसे कूड़ा समझ कर फेंक दिया जाता है। अनिता की मां महज एक उदाहरण है जो हमारी दिन प्रति दिन खत्म होती संवेदना को बताती है, क्योंकि सरकार चाहे लाख वादे कर ले प्रशासन चाहे लाख दुरुस्त हो जाए लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इसे चलाने वाले हैं तो आखिर इंसान, जिनकी आंखे भौतिकता की चकाचौंध का कारण तड़पती मानवता को नहीं देख पा रही है। अगर देश के एक बड़े तबके को यूंही मरना है तो फिर उन्हें सीधे सीधे मरने देना चाहिए, यह अस्पतालों का झूठा दिखावा क्यों ? जो एक इंसान की जान भी लेता है औऱ दूसरे की हिम्मत को तोड़ भी देता है। क्या हमारे देश के नेता जिस जनता के सामने झोली फैलाए गद्दी की भीख मांगते रहते हैं, बाद में उसका जीवन उनके सामने बोझ बन जाता है ? हर साल स्वास्थ्य विभाग के लिए करोड़ो का बज़ट पास होता लेकिन आम जनता ऐसे ही इलाज के अभाव में मरती रहती है, तो आखिर यह पैसा जाता कहां है ? यह खैराती अस्पताल आखिर किसको खैरात बांट रहे हैं ? यह ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब कोई भी नहीं देना चाहता है।

Saturday, February 23, 2008

भूख



पंकज रामेन्दू मानव

जब घुटने से सिकुड़ा पेट दबाया जाता है
जब मुंह खोल कर हवा को खाया जाता है
जब रातें, रात भर करवट लेती है
जब सुबह देर से होती है
जब चांद में रोटी दिखती है
तब दिल में यह आवाज़ उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब गिद्ध मरने की राहें तकता है
जब कचरे में भी कुछ स्वादिष्ट दिखता है
जब कलम चलाने वाला बार-बार दाल-चावल लिखता है
जब एक वक्त की खातिर जिगर का टुकड़ा बिकता है
जब रातें सूरज पर भारी होती हैं
तब दिल से एक आवाज़ होती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब हांडी में चम्मच घुमाने का कौशल दिखलाया जाता है
जब चूल्हे की आंच से बच्चों का दिल बहलाया जाता है
जब मां बच्चों की कहानी सुना, फुसलाती है
जब सेहत की बातें बता ज़्यादा पानी पिलवाती है
जब रोटी की बातें ही आनंदित कर जाती हैं
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब पेट का आकार बड़ा सा लगता है
जब इंसान भगवान पर दोष मढ़ता है
जब भरी हुई थाली महबूबा लगती है
जब महबूबा सुंदर कम स्वादिष्ट ज़्यादा दिखती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब एक टुकड़ा ज़िंदगी पर भारी लगता है
जब तिल तिल कर जीना लाचारी लगता है
जब बातें रास नहीं आती
जब हंसना फनकारी लगता है
जब एक निवाले पर लड़ती भौंक सुनाई देती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

Thursday, February 21, 2008

बलात्कार के प्रकार



पंकज रामेन्दु मानव

मैं एक औरत हूं
मेरा रोज़ बलात्कार किया जाता है
बलात्कार सिर्फ वो नहीं है
जो अंग विच्छेदन पर हो

बलात्कार सिर्फ वो भी नही है
जब कपड़ों को तार तार करके कई लोग जानवरों के समान
मेरा मांस नोचते हैं
वो तो अपराध भी होता है
यह बात जानते हुए, अब मेरा बलात्कार
दूसरी तरह से किया जाता है
यह बलात्कार हर दिन होता है
भीड़ में होता है, समाज के सामने होता है
कई बार समाज खुद इसमें शरीक भी हो जाता है
इसमें मेरे कपड़े तार -तार नहीं होते
कई निगाहें रो़ज़ मुझे इस तरह घूरती हैं कि
वो कपड़ो को भेदती चली जाती हैं, और मैं सबके सामने
खुद को नंगा खड़ा पाती हूं
कई बार बातों से भी मेरी अस्मिता लूटी जाती है और
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढांकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
ऐसे ही न जाने कितने तरीकों से लुटती मैं रोज़ाना
इन्ही अपराधियों का सामना करती हूं
समाज के शरीफ की श्रेणी में रखे जाने वाले यह लोग
बात बात पर मेरे बदन के स्पर्श का लुत्फ लेते यह लोग
कभी अपराधी नहीं माने जाएगें
क्योंकि यह आपराधिक बलात्कार नहीं

Wednesday, February 20, 2008

जनतंत्र एक डैश है

सफ़हे पे दर्ज
दो ईस्वीसनों के बीच छोटी लकीर की तरह
जन और तंत्र के बीच का छोटी लकीर की तरह
पर आंख से एकदम ओझल
यह जनतंत्र
जन और तंत्र के बीच का
सिर्फ़ एक डैश ( - ) है
(जो समझो, उसके पहिये की कील है)
जिसे जनगण ने उस आदमीनुमा जंतु के हवाले कर दिया है
जो सियार और सांप के हाईब्रीड से
इंसानी मादा की कोख का इस्तेमाल कर पैदा हुआ है
और घुमा रहा है जनतंत्र का पहिया
लगातार उल्टा-पुल्टा, आगे के बजाय पीछे
पर भूख की जगह भाषा पर छिड़ी बहस में जुटे लोग
डैने ताने अपने को फुलाये बैठे हैं कि
उनका लोकतंत्र सरपट दौड़ रहा है
गंतव्य की ओर।
डैश पर टांगें फैलाये बैठा
पूरे तंत्र का तमाशागर यह जीव
जनता की बोटियों के खुराक पर
जिन्दा रहता है
लूटता है उनके वोटों को
घुस आता है सरकार की धमनियों में
वायरस बनकर और
डैश को लंबा करने की
हर मिनट
बहत्तर शातिर चालें चलता है ।

(सुशील कुमार की कविता)


(साभार कृत्या)

Tuesday, February 19, 2008

करो या मरो



जिस विषय पर मैं बात करने जा रहा हूं, यह विषय उतना ही गंभीर है जितना भारत-पाक के रिश्तों को लेकर हमारे नेता, कश्मीर मामले पर भारत-पाक राजनीति, विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए पाक-अमेरिका, और शादी को लेकर सैफ-करीना। जो विषय इतना गंभीर हो उसको मैं तो हल्के मे नहीं ले पाया, आप भी उसके बारे में गंभीर रूप से विचार कीजीयेगा। वैसे भी भारत का नागरिक विचार को अचार की तरह इस्तेमाल करता है, बनाता देर तक है, खाता कम-कम है।
विषय को जानने के लिए हमे आज़ादी की लड़ाई के दौर में जाना पड़ेगा, साहब हालत बहुत खराब थी, अंग्रेज मान ही नही रहे थे, हम कहे जा रहे थे चले जाओ, वो थे की अड़ियल मेहमान बने जा रहे थे। वो क्या कहते हैं- वो हमारे घर में कुछ इस तरह आए, जैसे किरायेदार मकानमालिक हो जाए। गांधी जी ने खूब समझाया, जब वो लोग नही माने तो गांधी जी ने गुस्से मे आकर कहा कि अब तो - करो या मरो की स्थिति है। तो साहब गांधी जी ने यह नारा दिया, लोगो ने इस पर अमल किया और लो भारत को आज़ादी भी मिल गई। लेकिन भाईसाब कई बार समय के साथ ऐसी बाते नुकसानदायक हो जाती है।
अब हमारे क्रिकेटर हैं उनके लिए आए दिन हर नई सीरिज़ में करो या मरो की स्थिति बनी रहती है। अच्छा वो लोग भी क्या करे, गांधी जी ने इतना अच्छा नारा दिया है वो बेचारा बने ये सही नही लगता, तो वो हमेशा करो या मरो की स्थिति बना देते हैं। इसे कहते हैं सच्चे गांधी भक्त।
अब हमारे देश के नेता है, इनकी अब इतनी औकात तो रही नही कि यह जीत सके, तो यह क्या करते हैं, यह भारत का पुराना फार्मूला यानि जुगाड़ तकनीकी के तहत भानुमति का कुनबा बना लेता है। लेकिन साहब परेशानी यहां पर भी वही है, आखिर कुछ तो बात हो जिसे लेकर हम कह सकें कि, हां भईया हम गांधी जी की नीतियों का अनुसरण कर रहे हैं। तो क्या होता है पार्टी के अंदर का एक नेता विदेश से कोई डील करता है, तो जूगाड़स्वरूप आई दूसरी पार्टी कहती है - हमारी नहीं सुन रहे हो तो मरो। तो एक पार्टी इस प्रकार संयुक्त रूप से गांधी के वाक्यों को दोहराती है (डील) करो या (नहीं मान रहे) मरो।
आप लोग यह बात तो जानते ही हैं कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, इस सदी की सबसे खास बात यह है कि इस सदी में कानून कोई नहीं तोड़ता (क्योंकि टूटे -फूटे को क्या तोड़ा जाए)। इस सदी में अपराध, भ्रष्टाचार और जो इस प्रकार के तमाम बाते गुजरे ज़माने में गलत मानी जाती थी, आज कल कानूनन कर दी गई हैं तो इससे क्या होता है गलत बातों में कमी आई है। अच्छा एक बात और इक्कीसवीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते हमने भले ही कितनी भी तरक्की कर ली हो, लेकिन मजाल है कि कोई गांधी जी की कही हूई बातों को भूल जाए, सवाल ही पैदा नहीं होता, आज भी अगर कोई ईमानदारी या सच्चाई जैसी फालतू की बातों का अनुसरण करता है, तो तुरंत यानि तत्काल प्रभाव से उसके सामने दोहराया जाता है- करो या मरो।यह करो या मरो आज के परिप्रेक्ष्य में उस कब्ज़ के मरीज के समान है जिसकी यही स्थिति है कि भैया- करो या मरो।आप लोग क्या सोच रहे हैं, सोचने में समय व्यतीत मत कीजीए- जल्दी से देश के लिए कुछ करिए, अन्यथा.........

Monday, February 18, 2008

नोएडा का महाघोटाला - भाग-2

द ग्रेट इंडिया प्लेस के नाम से मशहूर यह उत्तर भारत का सबसे बड़ा मॉल बताया जाता है जिसके दो फ्लोर पर दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों के शोरुम हैं। तीसरे फ्लोर पर निर्माण कार्य चल रहा है जो लगभग पूरा हो चुका है। द ग्रेट इंडिया प्लेस को पूरी मस्ती के साथ देखने के लिए एक दिन कम पड़ता है। इस मॉल में प्रवेश के साथ ही इसके तामझाम यह बताने के लिए काफी हैं कि इसमें युवाओं के लिए विशेष इंतजाम हैं। जगह जगह बैठे प्रेमी युगलों की जोड़ी का नजारा अपने आप एक सबूत है। सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हैं और फोटो खीचने की मनाही है। जनसुबिधा की चमक किसी भी पांचसितारा होटल से बेहतर है। द ग्रेट इंडिया प्लेसको देखकर आप भी कहेंगे खेल बड़ा है।
ग्रेट इंडिया प्लेस को यूनिटेक अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन पार्क बताती है। एक ऐसी जगह जिससे भारत अब तर परिचित नहीं था। यह मनोरंजन सिटी का एक हिस्सा है जहां दुनिया के बेहतरीन रिटेल और इंटरटेनमेंट कांपलेक्स होंगें। 1,500,000 वर्गफीट में बना यह भारत का सबसे बड़ा रिटेल सेंटर है।
नियमानुसार मॉल बनाने के लिए प्राघिकरण अलग भूखंडों का चयन करके महंगी दरों पर आवंटन करता है। बानगी के तौर पर सेक्टर - 18 में इसी दौरान व्यावसायिक भूखंडों की नीलामी 5 लाख से 6 लाख (5 हजार प्रतिवर्ग मीटर) की दरों से गई थी, जबकि इन भूखंडों का एफ.ए.आर. मॉल को दिए गए एफ.ए.आर. से काफी कम होता है। मनोरंजन पार्क के नाम पर बनाए गए उत्तर भारत के इस विशाल मॉल की भूमि की कीमत का अनुमान लगाएं तो देश के एक बड़े घोटाले का पर्द ाफाश होता है। 21 एकड़ यानी लगभग 85 हजार वर्ग मीटर भूमि पर बने मॉल की भूमि की कीमत 5 लाख प्रतिवर्ग मीटर की दर से 4250 करोड़ बनती है। इसके अलावा शेष बची 120 एकड़ भूमि का आकलन करके घोटाले के व्यापक आकार का अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में, आश्चर्यजनक यह है कि भूखंड आवंटित करने व नक्शा स्वीकृत करने वाले अधिकारियों की कुंभकरणी नींद क्यों नहीं खुली कि मात्र 108 करोड़ में 140 एकड़ भूमि कैसे दे दी गई। ऐसा नहीं है कि इस महाघोटाले को भाजपा व बसपा नीत सरकारों का ही संरक्षण प्राप्त था, बल्कि 25 अगस्त 2003 को मायावती सरकार के पतन के पश्चात सत्ता में आई मुलायम सिंह सरकार का आशीरवाद और संरक्षण भी इस कंपनी को मिलता रहा। पुरानी कहावत है कि चांदी की जूती भी अच्छी लगती है। मुलायम सिंह सरकार के दौरान भी समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने यह मामला उठाने का प्रयास किया तो सपा हाईकमान ने उसे चुप रहने का निर्देश दिया, क्योंकि इस घोटाले के सूत्रधार और कंपनी के मालिकों के मधुर संबंध सरकार के दो बड़े नेताओं से हो चुके थे जो नोएडा के भाग्य का फैसला किया करते थे। सरकार में आते ही समाजवादी पार्टी के नेता इस घोटाले की जांच करवाने की घोषणा कर रहे थे, परंतु कंपनी के मालिकों से मुलाकात के बाद उनके सुर बदल गए। महाघोटाले का सिलसिला यहीं पर समाप्त नहीं होता, बल्कि इस कंपनी की हिस्सेदार कंपनी यूनिटेक को नोएडा में सैकड़ों एकड़ जमीन आवासीय व व्यावसायिक गतिविधियों के लिए आवंटित की गई। इसके अलावा प्रदेश में दो महत्वपूर्ण स्थानों पर उन्हें हाईटेक सिटी विकसित करने के लिए भी हजारों एकड़ भूमि आवंटित की गई।

(साभार प्रथम प्रवक्ता) 


Saturday, February 16, 2008

नोएडा का महाघोटाला भाग-1



नोएडा का यह एक एेसा जमीन घोटाला है जिसकी राजनाथ सिंह की सरकार में शुरुआत हुई और बाद की राज्य सरकारों में उसे पूरी तरह से अंजाम दिया गया। जो सिलसिला उस समय शुरु हुआ वह मायावती से होते हुए मुलायम सिंह के कार्यकाल में भी बदस्तूर जारी रहा। यह एक बेशकीमती जमीन को कौड़ियों के दाम लुटाने का मामला है। इसकी ढंग से अगर जांच की जाए तो पांच हजार करोड़ रुपए का घोटाला सामने आएगा। जमीन दी गई मनोरंजन पार्क के लिए और बन गया उस पर बड़ा सा मॉल। नियमों की अनदेखी और नेताओं - अफसरों और कारोबारियों की साठ-गांठ का ही है यह कमाल।
नोएडा सेक्टर-18 के ठीक सामने सेक्टर-38 ए में करीब 140 एकड़ जमीन मनोरंजन पार्क के लिए आरक्षित की गई थी। वर्ष 2001 में समाचार पत्रों के जरिए इस जमीन पर मनोरंजन पार्क विकसित करने के लिए निविदाएं आमंत्रित की गई थीं। 17 जुलाई 2001 को नोएडा के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी देवदत्त, महाप्रबंधक (वित्त) एस.के.सिंह, महाप्रबंधक संस्थागत विजय अग्रवाल, वास्तुविद ए.के.इंगले की उपस्थिति में इन निविदाओं को खोला गया। कुल छह निविदाओं में दिल्ली में अप्पू घर का संचालन करने वाली मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की 108 करोड़ की निविदा पर चिंतन मनन करते रहे और उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की शैली में इच्छुक पार्टियों से मोलभाव करते रहे। जिस समय इस बेशकीमती भूमि के आवंटन की प्रक्रिया चल रही थी, उस समय प्रदेश के औघोगिक विकास आयुक्त के पद पर बहुचर्चित अफसर अखंड प्रताप सिंह काबिज थे। आप को याद ही होगा कि उनका भ्रष्टाचार जैसे
विवादों से बड़ा गहरा रिश्ता रहा है। वे बाद में प्रदेश के सर्वधिक विवादित मुख्य सचिव भी रहे और भ्रष्टाचार के आरोप में उन्हे सीबीआई ने पकड़ा।
जिस समय इस घोटाले की नींव पड़ी तब उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह थे। उनकी सरकार ने उस जमीन को मनोरंजन पार्क बनाने के लिए मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. को कुछ शर्तों सहित आवंटित कर दिया गया। इस कंपनी को यह सुविधा दी गई कि उस जमीन के 15 प्रतिशत हिस्से पर वह प्रोजेक्ट के समर्थन के लिए व्यावसायिक गतिविधियां संचालित कर सकती है। इसमे एक शर्त यह थी कि निर्धारित 21 एकड़ जमीन का 30 प्रतिशत हिस्सा ही प्रोजेक्ट के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। जिसका एफ.ए.आर 1.5 होगा। नोएडा के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी संजीव नायर ने अन्य शर्त सहित यह पत्र जारी कर दिया था। उन दिनों उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे और 14 फरवरी, 2002 को प्रथम चरण का मतदान होना था। परंतु आदर्श चुनाव आचार संहिता का पालन न कर अधिकारियों ने इस भूमि का आवंटन कर दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस मै. इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. के नाम यह भूमि आवंटित की गई उसका पता बी.ए.-324 टैगोर गार्डन, नई दिल्ली-27 है। यह पता भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन प्रदेश महासचिव व विधायक ओमप्रकाश बब्बर का है और उनके पुत्र राकेश बब्बर इस कंपनी के निदेशक हैं। क्या इस आवंटन में उन्हे इसलिए प्राथमिकता दी गई कि वे भाजपा के हैं? उन्हें आनन फानन में आवंटन पत्र जारी कर दिया गया। सतही तौर पर भले ही इसमें पार्टी के तार जुड़े हुए दिखते हैं पर किस्सा उससे कहीं आगे का है।
याद करिए कि उस चुनाव में राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की शर्मनाक हार हो गई। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा क्योंकि 3 मई, 2002 को उत्तर प्रदेश में तीसरी बार जब मायावती मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुईं तो इस मनोरंजन पार्क का रथ रुका नहीं। उसकी गतिविधियों में तेजी आई। सबसे बड़ा रहस्य तो यह है कि मायावती सरकार के कार्यकाल में जिस 4 फरवरी, 2003को नोएडा प्राधिकरण ने मै. इंटरनेशनल रिक्रिएशन पार्क प्रा. लि. से समझौता किया उसे इसका अधिकार ही नहीं था क्योंकि जमीन इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. को आवंटित की गई थी। सवाल यह है कि एक नई कंपनी से लीज का समझौता कैसे हो गया? यह निविदा की शर्त का खुला उल्लंघन था। क्या नोएडा प्राधिकरण ने तब यह काम किसी उपकार भाव से किया? सवाल यह भी है कि जिसे लीज पर वह जमीन गैरकानूनी तरीके से दी गई उसे मनोरंजन पार्क चलाने का क्या अनुभव था?
नियमानुसार वहां बनना था-मनोरंजन पार्क। नोएडा में सेक्टर - 18 का अपना रुतबा है। उसके ठीक सामने के अवैध कारोबार पर नजर क्यों नहीं गई। ऐसा हो नहीं सकता कि इसे किसी अधिकारी ने न देखा हो या उसे न बताया गया हो। साफ है कि अफसरों की मिलीभगत से मॉल का नक्शा पास कराया गया। जिस अंधेरगर्दी से यह हुआ उसी तरह वहां एफ.ए.आर. के नियमों का मजाक उड़ाते हुए मॉल का निर्माण प्रारंभ हुआ।
इस प्रोजेक्ट को यूनिटेक नामक कंपनी के साथ मिलकर बनाया गया है। यूनिटेक और इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की साझेदारी के कई मिसाल हैं। ग्रेट इंडिया प्लेस एक नमूना भर है। दिल्ली के रोहिणी इलाके में जापानी पार्क के साथ ही एडवेंचर आइलैंड और मेट्रो वॉक प्रोजेक्ट विकसित किया गया। इस प्रोजेक्ट की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है।
एडवेंचर आइलैंड मनोरंजन पार्क का हिस्सा है और मेट्रोवॉक रिटेल सेंटर है। जी हां, कुछ उसी तरह ग्रेट इंडिया प्लेस को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन पार्क बताकर एक अलग तरह का खेल खेला गया। रोहिणी के दोनों प्रोजेक्ट यूनिटेक और इंटरनेशनल एम्यूजमेंट लि. की 50 : 50 प्रतिशत साझेदारी के तहत तैयार की गई है।
(साभार प्रथम प्रवक्ता)

शेष आगे...........................

Friday, February 15, 2008

छुट्टे सांड और भांड



पंकज रामेन्दु
राजधानी दिल्ली हो या बिहार का छपरा, एक प्राणी है जो सर्वव्याप्त है। मस्तमौला यह प्राणी सड़क से लेकर संसद तक हर जगह उनमुक्त होकर विचरण करता है। किसी माइके लाल में इत्ती हिम्मत भी नही है कि इसको उठाने की कोशिश कर सके। अभी कल ही की बात है, सड़क पे ये लंबा जाम लगा हुआ था, हमारी बदकिस्मती ऐसे मौके पर इतनी कामयाब रहती है कि उसने हमें पीछे रख छोड़ा था, तो साहब नज़र तो कुछ आ नही रहा था, थोड़ा सा आगे वालों से जानकारी जुटाई तो मालूम चला कि एक सांड महोदय हैं उन्हें रोड इतनी पसंद आ गई है कि वो उस पर आराम करना चाह रहे थे। और यह कंबख्त गाड़ी वाले पीं पीं करके उनके आराम में खलल डाल रहे है, बस इस बात पर सांड साहब को गुस्सा आ गया और लोकतांत्रिक शरीर में तानाशाही आत्मा ने प्रवेश कर डाला।
अब साहब बर्दाश्त की भी एक हद होती है, एक तो कोई किसी से कुछ कह नहीं रहा है अपना आराम कर रहा है, औऱ यह गाड़ीवाले हैं कि लगे हैं उंगली करने में। भैया पूरे 3 घंटे में सांड साहब माने।
साहब यह सांड वो प्राणी है जो पहले आराम से बदमाशी किया करता था, कभी कभार इसका उपयोग चुनावी के दौरान किया जाता था, फिर इसको लगा कि भैया यह कोन बड़ी चीज़ है राजनीति तो ससुरी सांडगिरी का ही काम है तो ये भी कूद पड़े मैदान में, और लो जीत भी गये, गाय जनता ने सोचा कि वैसे ही कौन से भले हो रहे हैं कम से कम ये अपनी तरह जमीन से जुड़कर बदमाशी तो किया करता है। अब साहब यह सांड भाई छुट्टे होकर राजनीति के गलियारों में घूमते हैं।
सांड की सांडाई बताने में एक प्राणी का ज़िक्र करना तो भूल ही गया, तो ऐसा है कि भारत देश में सांड जितना खुला है उतना ही हक एक औऱ प्राणी को मिला है, यह है भांड। भांड एक ऐसा प्राणी है, जो राजे महाराजे के ज़माने से अपने कर्तव्य को निभाता आ रहा है, सत्ता की ताल में ताल ठोंकता भांड हमेशा खुश रहने वाला प्राणी है, चाहे गाली पड़े या ताली मिले। भांड का काम हंसते-हंसते सब ज़ब्त कर जाना है। यह जीने का एक ही सिद्धांत मानता है जहां बम वहां हम। यह सत्ता के सांडों को ज्ञान भी देता है औऱ चाशनी सी बातों में घुली हुई सानी देकर खुद को भी पोसता रहता है। भांड ने ही जामवंत के माफिक सांड को उसकी शक्ति का एहसास दिलाया है।
आज के ज़माने में भैया ये ही है जो जमे हुए हैं औऱ लगातार सफलता को चूम रहे हैं। कई बार मुझे लगता है कि सांड बनने की औकात मेरी है नहीं, भांड बनने के तरीके मुझे मालूम नहीं है, यही कारण हैं कि मैं आज तक ऐवेंइ पड़ा हुआ हूं। भैया सांडगिरी हो या भांडगिरी सब टैलेंट की बात है, हर किसी के बस का रोग नहीं है।
क्या कर सकते हैं, ईश्वर कला से हर किसी को थोड़े ना नवाज़ता है. तो भैया हमारे पास तो अफसोस करने के अलावा कोई चारा नहीं है। अगर आप में यह टैलेंट है तो देर मत कीजिए, अपनी इस कला को निखारिये देखिए फिर क्या कमाल होता है।