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Friday, February 29, 2008

ब्लाग मेरे बाप की


पंकज रामेन्दू

आखिरकार ब्लागरों ने अपनी औकात दिखाना शुरु कर दिया, लगातार छप रही इन तकरीरो को देख कर एक कहानी याद आती है, एक सियार शहर में गया, शहरी लोग उसे भगाने लगते हैं, वो छिपते-छिपते एक रंग के टब में गिर जाता है और उसका रंग नीला हो जाता है। उसके रंग को देख कर सब लोग अचंभित रह जाते हैं और उसकी देख रेख होने लगती है, एक दिन अचानक सियार हू हू करते हैं तो वो भी उनके साथ ताल में ताल मिलाने लगता है।
ब्ललागर भी अब सियारों की तरह हू हू करने में लगे हुए हैं, सब को दूसरे की दाद में खुजाने में आनंद आ रहा है, भड़ास हो या मोहल्ला। सभी को दूसरे की छीछालेदर करने में आनंद आ रहा है, मोहल्ला कौन होता है यह कहने वाला की भड़ास बंद होना चाहिए, भड़ास कौन होता है मोहल्ला को अनुशासन सिखाने वाला। अपने आप को क्या यह ब्ललॉग का बाप मानने लगे हैं या ब्ललॉग इन्होंने खरीद लिया है।
जब ब्लागिंग शुऱू हुई थी, तो इसका उद्देश्य हिंदी को आगे बढ़ाने और एक दूसरे के भावनाओं को बांटने का था। बहुत अच्छी पहल थी, जिसने इन्हे शुरू किया था वो उस छोटे बच्चे के समान थे जो अपने तन पर कपड़े इसलिए नहीं रखना चाहता है क्योंकि उसे कपड़े एक बनावटी आवरण लगते हैं। उसको प्राकृतिक रूप से रहने में आनंद आता है, उसके नंगेपन में मासूमियत होती है। यह तथाकथित पत्रकारों ने इसमें अपनी नाक घुसेड़ कर इसमे होने वाले नंगेपन को अश्लीलता की सीमा पर ला दिया है.
ब्लाग ब्लाग ना रहकर अखाड़ा बन गया है, सब लाल लंगोटी पहने तैयार है, और एक दूसरे की लंगोटी उतारने का प्रयास करने में लगे हए हैं।
दरअसल यह सारे के सारे किसी विषय पर चरचा नहीं करना चाहते यह बहस करना चाहते हैं, यह ग़लतफहमी पाले बैठे हैं कि ब्लाग की सत्ता इनके हाथों में है, यह जैसे चाहे नचा लेंगे। कुछ लोगों को अतिक्रमण करने की आदत होती है, वो चाहे रेल्वे की बर्थ पर बैठे, टेलीफोन की लाइन में खड़े हो, या कुछ लिखे पढ़े, हर जगह वो पिछवाड़ा टिका कर पांव पसारने पर विश्वास रखते हैं।
लेकिन यह भूल गए हैं कि १२ घंटे बाद तो सूरज भी अस्त हो जाता है।
इसलिए भैया अगर आप लोग यह सोच कर बैठे हो कि जिस तरह मीडिया में फन फैलाए बैठे हो और किसी दूसरे को अंदर नहीं आने देने चाहते हो, खड़ी भाषा में कहें तो, जो आप लोग अगले को चूतिया समझने की भूल कर रहे हो ना, तो यह भूल जाओ क्योंकि

हर एक चीज़ का होता है, एक ना एक दिन अंत
बारहों महीने नहीं रहता बंसत

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