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Monday, August 30, 2010

याद रहे हिंदी की बोलियाँ ही उसकी ताकत हैं



याद हो तो...आज से करीब साठ साल पहले हमने एक जंग जीती है...आज़ादी की, उससे भी पहले गर याद हो तो..उससे सौ साल पहले एक बड़ी जंगी शिकस्त भी खाई है.ये बात हमें याद हो तो ये भी याद होगा उस शिकस्त की वजह क्या थी ? हार के तमाम कारणों में एक बड़ी वजह विभिन्न राज्यों और सेनाओं के बीच सुचारू रूप से संवाद ना हो पाना भी था.इसकी एक वजह जहान संवाद के लिए जरुरी माध्यम का ना होना था वहीं एक वजह भाषागत दूरियां भी थी.इसके सौ साल बाद जब हमें बाजी पलटने का मौका हाथ लगा तो हमने आज़ादी के आलावें भी बहुत कुछ हासिल किया.जिसमें भारत की एकता के साथ -साथ सुन्दर भारत का एक खुबसूरत ख़्वाब भी पाया और साथ ही पाई एक प्यारी सी भाषा हिंदी.जिसे विभिन्न बोलियों को मिलकर खड़ा किया गया था.जिसके जरिये हम पूरे देश के लोगों से आसानी से बातें कर सकते थे.एक ऐसी भाषा जिसमें भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति,धर्म और संस्कृति की भी झलक दिखती है.लेकिन जैसा की होता है हर खुबसूरत ख्वाब कभी ना कभी टूटते ही हैं. वैसे ही भारत के सुन्दर भविष्य का ख़्वाब भी टुटा और साथ में ख़तम होती गई हिंदी की एकता और अखंडता भी. इस अखंडता पर ये संकट वाहरी ही नहीं बल्किं भीतरी भी है.इस संकट से निकले के लिए,अपनी भाषा को बचाने के लिए कोल्कता के संगठन 'अपनी भाषा' के प्रोफेसर अमरनाथ और डॉ. ऋषिकेश राय देश भर के बुद्धिजीवियों से संवाद कर रहे हैं.और इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुवे वे एक गोष्ठी '' हिंदी उसकी बोलियाँ और संविधान की आठवीं अनुसूची '' दिल्ली में ''गाँधी शांति प्रतिष्ठान'' में 22 अगस्त को आयोजित किये मिलते हैं.जहाँ वे हिंदी पर छाए संकट की लोगों को याद दिलाते हैं...

संगोष्ठी दो सत्रों में आयोजित होती है.प्रथम सत्र का संचालन डॉ. ऋषिकेश राय करते हैं और अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी करते हैं.विषय प्रस्तावना में प्रोफेसर अमरनाथ अपनी चिंता लोगों के सामने रखते हैं.किस तरह कुछ दिनों पहले हिंदी की एक बोली मैथली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर हिंदी के समनांतर दर्जा दे दिया गया.उसके बाद हिंदी पट्टी के लोग अपनी अपनी बोली को संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल करने को लेकर आये दिन आन्दोलन कर रहे हैं.खतरे की तरफ वे इशारा करते हुवे कहते हैं - दरअसल बात सिर्फ इतनी नहीं है की किसी बोली को हिंदी के बराबर दर्जा दिया जा रहा है दरअसल बात ये है की बोली और भाषा के नाम पर कुछ लोग अपनी राजनितिक महत्वकांक्षा साध रहे हैं.आज यदि किसी बोली को भाषा का दर्जा दे दिया जाता है तो कल उस भाषा के आधार पर एक अलग प्रदेश की मांग उठ खड़ी होती है.इसके समर्थक उस बोली के तमाम साहित्यकार भी है क्योंकि आज उन्हें किसी वजह से आकादमिक पुरस्कार नहीं मिल पता तो. जब-तब वे अलग प्रदेश और अलग भाषा की बात उठाने लगते हैं.,जाहिर है प्रदेश बनने के बाद अलग से उस भाषा की एक आकादमी बनेगी और इन लेखकों को सम्मान मिलने में आसानी होगी. आगे कहते हैं खतरा सिर्फ यही नहीं है- हिंदी को राष्ट्रिय भाषा का दर्जा इस वजह से नहीं मिला की इसका साहित्य बहुत समृद्ध और विशाल है, बल्किं इस वजह से मिला की हिंदी क्षेत्र में बोले जानी वाली बोलियों के लोगों के संख्या बल को देखते हुवे ही इसे राष्ट्रिय भाषा होने का अवसर मिला.मगर अब ये अखंडता खतरे में है.क्योंकि मैथली के बाद छत्तीसगढ़ी,बुन्देली, राजस्थानी,भोजपुरी के इलाकों से इन्हें अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की मांग उठने लगी है.यदि इन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाता है तो जाहिर है हिंदी का रास्ट्रीय स्वरूप खतरे में पड़ जायेगा क्योंकि संख्या बल की वजह से ही तो हिंदी रास्ट्रीय भाषा है.ये एक साम्राज्यवादी शाजिस है ताकि भारत की अखंडता और एकता को तोडा जा सके..एक और गृह युद्ध में इसे धकेला जा सके.वे बताते हैं जहाँ जातिय चेतना मजबूत नहीं होती वहां समय समय पर विघटनकारी शक्तियां अपना सर उठती हैं.दुर्भाग्य से हिंदी जाति की जातिय चेतना मजबूत नहीं है.बोलियाँ ही हिंदी की शक्ति हैं. अपनी बोलियों से अलग होकर हिंदी कमजोर होगी ही, बोलियाँ भी अलग थलग हो कर कमजोर हो जाएँगी.बोलियों का विकास हिंदी के साथ जुड़कर रहने और उसमें रचनाकर्म के जरिये ही संभव है.हाँ यदि कोई समस्या है .बोलियों के लेखक और उनकी रचनाओं को यदि कोर्स की किताबों में पर्याप्त जगह नहीं मिलती तो वे इसके लिए अपनी आवाज उठा सकते हैं.लेकिन हिंदी से अलग होकर वे हिंदी को तो तोड़ेंगे ही साथ ही ये बोलियों के लिए भी खतरनाक स्थिति होगी..
पहले वक्ता के रूप में वरिष्ठ समीक्षक कमाल किशोर गोयल एक निबंध पढ़ते हैं .दरअसल अपनी अपनी बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले लोग .अपने लिए और अपने लोगों के लिए सत्ता की मांग कर रहे हैं.हिंदी का संसार छिन्न-भिन्न करना हमारी राष्ट्रिय एकता और अखंडता के लिए घातक होगा.हिंदी और उसकी बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं.प्रभाकर क्षोत्रिय हिंदी को एक नदी के समान बताते हैं जो अपनी राह में आने वाले हर छोटे बड़े तालाबों को अपने अन्दर जब्त कर लेती है.बोलियों की मांग पर वे कहते हैं अभी तो ये शुरुवात है हमने अपने आपको खंडो में बाटना तयं कर लिया है.वहीं प्रभाकर जी के वक्तव्य में से ये चीज भी निकाल कर आती है की किस तरह हम तकनीक से पुर्वाहग्रसित हैं,उनकी ये चिंता है की आज कल हिंदी रोमन में लिखी जा रही है.शायद ये बात उन्हें नहीं मालूम की इसी वजह से कितने सारे लोग अपने आपको हिंदी में व्यक्त कर पा रहे हैं.लिखने दीजिये उन्हें रोमन में एक ना एक दिन वे देवनागरी में भी लिखने ही लगेंगे.हाँ जबरदस्ती आपने लोगों पर देवनागरी में लिखने का दबाव डाला तो शायद ये लोग कभी भी हिंदी में ना लिख पायें.क्योंकि ये वे लोग हैं जो अपना हर काम इंग्लिश में ही करने के आदि हैं लेकिन ये मातृभाषा से जुड़ाव ही है जो उन्हें हिंदी में लिखने को प्रेरित करती है. अनन्त राम त्रिपाठी हमें संविधान निर्माण की बैठक में ले जाते हैं.जहाँ डॉ. भीमराव आंबेडकर लोगों संविधान सभा में सभी से दरख्वास्त कर रहे हैं - मैं आप सबसे निवेदन करता हूँ.कि हिंदी राष्ट्र भाषा होने के साथ साथ प्रान्तों कि भाषा भी हिंदी होनी चाहिए...कहते हैं वे यदि उस वक़्त आंबेडकर का ये निवेदन स्वीकार कर लिया जाता तो आज हमें ये चिंतन मनन करने कि जरुरत नहीं होती.
बोलियों कि समस्याओं पर देवेन्द्र चौबे प्रकाश डालते हैं.आखिर क्यों बोलियों के लोग अपनी बोली को संविधान के आठवीं अन्सुची में शामिल करने कि मांग ना करें जब भोजपुरी के बड़े कवि 'भिखारी ठाकुर '' को रामचंद्र शुक्ल अपनी किताब 'हिंदी साहित्य के इतिहास में जगह नहीं देते तो जाहिर भोजपुरी के लोग अपने कवि और बोली के लिए संविधान कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने कि मांग करेंगे ही. .हिंदी अकेड्मियों को लताड़ लगते हैं-जाहिर है अकेडमिक हिंदी के सवालों को हाल करने में नाकाम रही.हिंदी को बचाए रखना है तो बोलियों को हिंदी के ढांचे में पर्याप्त स्पेश दे नहीं तो वे अपने स्पेश के लिए लड़ेंगे. हम सिर्फ अच्छा सुनना चाहते हैं अपनी गलतियों कि तरफ ध्यान नहीं देना चाहते. आयोजन कि एक सबसे बड़ी कमी मुझे ये दिखी कि यहाँ बोलियों कि समस्याओं पर देवेन्द्र चौबे के बाद कोई बोलने वाला नहीं था जबकि उनकी समस्याओं पर भी प्रकाश डालने वाले और वक्ता होने चाहिए थे.इसके बाद मृदुला सिन्हा अपनी चिंता में ये जाहिर करती हैं कि मैथली के अलग होने के बाद विद्यापति को यदि कोर्स से हटाया जाता है तो हिंदी का ये दुर्भाग्य होगा कि इतना अच्छा वर्णन पढने से वे वंचित हो जायेंगे.अध्यक्षीय उद्बोधन से पहले अपनी भाषा कि कि पत्रिका '' भाषा विमर्श'' का लोकार्पण प्रभाकर क्षोत्रिय,चित्र मुगदल और हिमांशु जोशी करते हैं.अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में हिमांशु जोशी इस देश को विडम्बनाओं का देश बताते हैं.एक तरफ हम जहाँ चीजों को स्थापित करते हैं दूसरी तरफ उसे हमीं विखंडित भी करते हैं.रचनाकर्म की आवश्यकता पर वे बल देते हैं साथ ही बताते हैं हिंदी गानों की मिठास भोजपुरी से ही आई है.जब हम गाते हैं तो कभी नहीं लगता की ये हिंदी नहीं बल्किं कोई और बोली ,कोई और भाषा है.भोजपुरी का ही स्वरूप है हिंदी और हिंदी का ही स्वरूप है भोजपुरी ये अलग नहीं हो सकते.ये जो हमें अलग अलग करने की शाजिसें चल रही हैं इनके पीछे पश्चिमी दुनिया का हाथ है.वे साफ शब्दों में बताते हैं - ''हिंदी का होना होने के लिए भोजपुरी, मैथली,अवधी, वर्ज ,राजस्थानी और हरियाणवी का होना भी जरुरी है''..
इसके बाद भोजन आवकाश के बाद दूसरे सत्र की कार्यवाही शुरू होती है.जिसमें मंच का संचालन श्री भगवान सिंह करते हैं और अध्यक्षता डॉ.कैलाश पन्त करते हैं.तमाम वक्ता अपने -अपने वक्तव्य में हिंदी पर छाए संकट पर चिंता जाहिर करते हैं.लेकिन उबाल तब आता है जब वेद प्रताप वैदिक मुद्दे पर बात ना कर मंच का इस्तेमाल अपने अजेंडे का प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए करते हैं.किसी के ये कहने पर सर आप सब्जेक्ट से हट कर बोल रहे हैं.पर वे अपने आपे से बाहर हो जाते हैं यहाँ तक की वे मंच की गरिमा और लोकतान्त्रिक मूल्यों की भी तिलांजली देते हुवे मंच से नीचे आकर शायद असहमति वाली आवाज का कलर पकड़ना चाहते हैं.किसी तरह उन्हें मंच के संचालक श्री भगवान सिंह रोकते हैं.आज कल हर सेमिनार का नजारा है ये जहाँ वक्ता अपने से असहमति रखने वाली आवाज को अपने आक्रामक रुख के जरिये दबाना चाहता है.इसके बाद प्रोफेसर चमनलाल आते हैं वे अभी बोलना शुरू ही करते हैं की उनके लिए वक़्त समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है.लगता है जैसे आयोजक ये पहले से ही मान बैठे हैं कि फलां वक्ता सही बोलते हैं और फ़ला सही नहीं बोलेंगे.वैदिक जी को जहाँ बोलने का निश्चित समय से आधिक समय दिया जाता है.जबकि वे सब्जेक्ट से हट कर बोलते हैं .बोलते क्या हैं कुछ कुछ प्रवचन से करते हैं.उनके लिए कोई समय सीमा नहीं है .जब प्रोफ़ेसर चमनलाल जिन्हें स्टुडेंट्स सुनना चाहते हैं उन्हें बोलने का पूरा मौका नहीं दिया जाता जबकि वे मुद्दे पर ही बातें कर रहे होते हैं.इस गरमा गर्मी के बाद कई वक्ता अपनी बात रखते हैं जिनमें अजय तिवारी ,चित्र मुगदल,कृस्नदत्त पालीवाल,परमानद पंचाल आदि .मगर दूसरे सत्र की महफ़िल लुटते हैं इंदौर से आये प्रभु जोशी माहौल में आई गर्मीं को उनकी शांत और गंभीर आवाज़ धीरे धीरे ठंडा करती है वे बताते हैं कैसे कैसे साम्राज्यवादी ताकतें हमारी भाषा और एकता पर हमला कर रही हैं.उनकी आवाज़ उनके टीवी से जुड़ाव की भी कहानी कहती है.आखिर में कैलाश पन्त चीजों को समेटे हुवे कहते हैं -दरअसल हिंदी के खिलाफ शाजिस का माहौल तभी पैदा कर दिया गया जब संविधान में ''इंडिया दैट इज भारत '' कहा गया ...वे सवाल करते हैं क्या कभी किसी प्रापर नउन का ट्रांसलेशन होता है?
पूरी संगोष्ठी को देखें तो ये कह सकते हैं ये एक सफल गोष्ठी रही ''अपनी भाषा ''के लोग जिस उद्देश्य से आये थे उसमें वे सफल होते हैं.वे ये याद दिलाने में कामयाब जरुर होते हैं- '' याद रहे हिंदी की बोलियाँ ही उसकी ताकत हैं''..हिंदी और उसकी बोलियों को अलग थलग होने की चिंता से वे दिल्ली के बुद्धिजीवियों को चिन्तित जरुर करते हैं.लेकिन वहीं जरा व्यापक दृष्टीकोण से देखें तो ये संगोष्ठी आगे की लड़ाई कैसे हो? उसका तरीका क्या हो ?इस बारे में कोई दिशा दिखने में असफल दिखती है..
-अंजुले श्याम मौर्य
anjuleshyam@gmail.com