Pages

Friday, September 26, 2008

वेलकम टु सज्जनपुर "फिल्म हिट"


रुपेश गुप्ता
लोग कहते हैं कि हिट फिल्म के लिए कोई फार्मूला नहीं होता.लेकिन फिर भी कुछ तत्वों का होना फिल्म में ज़रुरी माना जाता है,
जिसके बिनाह पर कहा जा सके कि फिल्म हिट हो सकती है. ये बातें फिल्म को हिट कराने की संभावनाएं बढ़ा देती है. चलिए पहले
इन तत्वों को तलाशते हैं जो अच्छी फिल्म की निशानी के तौर पर देखी जा सकती है, कहानी और प्रस्तुतीकरण के इतर.
अच्छी स्टारकास्ट, हिट गाने, शानदार लोकेशन्स, मार्डन कपड़े और सपनों की दुनिया- जहां जहां ज़िंदगी के कड़वे हकीकत न हों

ताकि दर्शक तीन घंटे स्वप्नलोक में विचरण कर सके.इन सबके अलावा इंटरनेशनल तकनीक जो फिल्म को आधुनिक लुक दे.
इसमें शानदार इडिटिंग से लेकर विसुअल इफेक्ट तक शामिल हैं. अगर किसी फिल्म में ये तमाम बातें होंगी तो फिल्म के हिट
होने की संभावना ज़्यादा होगी. ग्रामीण पृष्ठभूमि की स्टोरी में इन तत्वों बातों की गुंजाइश काफी कम हो जाती है,और उसके नाकाम होने की
संभावनाएं बढ़ जाती है.इसलिए ग्रामीण परिवेश की फिल्में बनाना जोखिम से भरा माना जाता है और यही वजह है कि पिछले दो दशक से
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्में बननी करीब-करीब बंद हो चुकी हैं. लगान और मालामाल वीकली इसके अपवाद हैं, ये फिल्में दुहस्साहस का विजयी
नतीजा हैं.जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के बाद भी सफल रहीं.

अगर बात दुस्साहस की करें तो सबसे बड़ा दुस्साहसी काम श्याम बेनेगल ने किया है,वेलकम टु सज्जनपुर में. न गाने सुपर हिट हैं न ही
सुपरहिट स्टार कास्ट. और फिल्म भी ऐसे गांव की है जिसके माहौल से परिचय शहरी तबके का परिचय कम ही होगा. सुविधाविहीन गांव.
लेकिन इसके बाद भी एक शानदार और यादगार फिल्म. ये लोगों को एक
नया ज़ायके का मज़ा देती है.
अगर इसके स्टाकास्ट की बात करें तो,श्रेयस तलपड़े स्टार बनने की जद्दोजहद कर रहे हैं, तो अमृता राव कुछ एक फिल्मों के बाद उसकी
कामयाबी को कायम नहीं रख पाईं. बाकी स्टारकास्ट की बात करें तो कोई नाम ऐसा नहीं है जिसके लिए दर्शक फिल्म देखने चले आएं.लेकिन इन
छोटे स्टार और अच्छे कलाकारों ने ऐसा काम किया कि पूछिए मत. श्रेयस तलपड़े अपने पात्र में इतना डूबे हैं कि कहीं भी श्रेयस आपको
नहीं दिखेगी, हर जगह कहानी का मुख्य पात्र महादेव ही नज़र आएगा.और अमृता राव, जैसी खूबसूरती वैसी मासूमियत.ऐसी मासूमियत कि काफी
दिनों बाद याद आया कि हम हिंदुस्तानी खूबसूरती को एक और नाम से जानते हैं मासूमियत. खूबसूरती ऐसी कि मर मिटने को दिल चाहेगा.आपको
ये भी समझ में आ जाएगा कि गर्दन से नीचे नज़र न जाने का मतलब क्या होता है.कुछ दिन बाद फिर से ये खबर पढ़ने को मिल जाए कि मकबूल
फिदा हुसैन कमला यानी अमृता पर पेंटिग बनाएंगे. पूरी गारंटी है कि फिल्म देखने के बाद घूंघट में कुछ छिपा, कुछ झांकता कमला का चेहरा
आपकी आंखों के सामने नाचता रहेगा.और अगर उसके पति से जलन होने लगे तो यकीन मानिए आप इकलौते नहीं हैं

फिल्म की कहानी गांव की है, और काल्पनिक नहीं-हकीकत के इर्दगिर्द। फिल्म की कहानी हमारे समाज में हाल के दिनों में घटी तमाम
असल घटनाओं के ज़िक्र या चित्रण से आगे बढ़ती है. चाहे वो किडनी का काला कारोबार हो या फिर बेरोजगारी और उससे पैदा हुए पलायन से
कैसे घर बार की सामान्य खुशियां तार तार हो जाती हैं, बड़ी ही सफाई से दिखाया गया है. यह फिल्म इन समस्याओं के जड़ में पहुंचती है और
इन समस्याओं का समाज में असर दिखाती हैं, संवेदनाओं के साथ. जहां तक खबरें नहीं पहुंच पाती.हिरोईन सुन्दर है.लेकिन उसकी सुंदरता घुंघट में
कैद रहती है.जब घुंघट से बाहर निकलती है तो चेहरे से नीचे आपकी नज़र नहीं जा सकती.
फिल्म की जान है इसकी कॉमेडी. जो बड़े ही स्वाभाविक हैं.किसी को तोतला या लूला बनाकर कॉमेडी को ठूंसने की कोशिश नहीं की गई है.न ही
आपको हंसने के लिए लॉजिक को घर छोड़कर आने की ज़रुरत है. बल्कि यहां त्रासदियों से भी हंसी निकालने की निर्देशक ने सफल कोशिश की है.