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Sunday, February 24, 2008

राहत की चाहत



कई बार ज़िंदगी में कुछ ऐसी घटनाए घट जाती हैं, जो हमें सोचने पर तो मजबूर करती ही हैं साथ ही साथ हमारी आत्मा को भी कचोट देती है। कुछ दिनों पहले मैं एक ऐसी महिला के दर्द से रूबरू हुआ, जिसने मुझे हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की रजाई में पड़े पैबंद दिखाए, यह वो व्यवस्था है जो हालातों की सर्दी में ठिठुरते आम लोगों को राहत देने का वादा तो करती है, लेकिन इसमें हुए दंबगदारी के छेद से गरीब और मजबूर जनता के हाड़ तक को कंपा देने वाली असंवेदशील सर्द हवा अंदर प्रवेश करती ही रहती है।
मै जिस महिला की बात कर रहा हूं वो अनिता नाम की एक मध्यमवर्ग की महिला है। एक ऐसा वर्ग जो अपने ज़िंदगी के कुंए में रोज़ हक़ीकत की बाल्टी उतारता है औऱ उसमें अपने सपने के पानी को देखने की कोशिश करता है। अनिता की मां भी है और पिता भी, यानि एक भरापूरा परिवार, जो एक दूसरे की मुस्कुराहटों पर जीवित है। अनिता एक कामकाजी महिला है, जो अपनी कमाई से अपने माता-पिता औऱ घर का खर्च चलाती है। मां बाप बूढ़े हो चुके है, इसलिए उनके सेहत को ध्यान में रखते हुए अनिती ने उनका मेडिकल इंश्योरेंस भी करवा रखा है। आखिर बुरा वक्त कह कर थोड़ी ना आता है। वो अपनी छोटी सी कमाई में से इस इंश्योंरेंस के पैसों को जमा करना कभी नहीं भूलती है।
एक दिन अनिता की मां को हल्का सा बुखार हो गया, उसकी मां को सर्दी-जुखाम कुछ दिनों से था, उसने सोचा शायद उसी के कारण बुखार हो गया होगा।
वो अपनी मां को लेकर पास के मैक्स नाम के निजी अस्पताल में पहुंची, डॉक्टरों ने बताया कि उसकी मां को मामूली सा वायरल इंफेक्शन है, एक दो दिन में ठीक हो जाएगा। एहतियात के तौर पर उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया । अनिता ने सोचा, किसी बात को जोखिम क्यों उठाया जाए और फिर मेडिकल इंश्योरेंस भी है, उसने अपनी मां को अस्पताल में भर्ती कर दिया, इलाज भी शुरू हो गया।
दो दिन की बीमारी दो महीने में तब्दील हो गई, वो डॉक्टर जो इसे एक मामूली बीमारी बता रहे थे, अब इसकी गंभीरता बयान करने लगे। पैसा लगातार खर्च हो रहा था। इंश्योरेंस कंपनी भी पैसा देने में नानुकुर करने लगी । डॉक्टर अपने अनुसार अनिता की मां के इलाज का बिल बना रहे थे, वैसे भी इंश्योरेंस कंपनी जिन अस्पतालों से समझौता करती हैं, वे दोनों मिल कर क्या करते हैं यह कभी ग्राहक को पता नहीं चल पाता है। उसे तो अंत में मालूम चलता है कि वो इतना लुट चुका है। एक दिन डॉक्टर ने आकर बताया कि उसकी मां को निमोनिया है वो भी ऐसा जो हज़ारों में किसी एक को होता है। अनिता कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी वो सिर्फ चुपचाप अपनी मां को देख रही थी, उसे अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था। दिन बीतते गए। एक दिन इंश्योरेंस कंपनी वालों ने आकर कहा कि हमारी योजना में इतना खर्च वहन करना नही है और पता नहीं उसे क्या समझा गए, उसे सिर्फ इतना समझ में आया कि पॉलिसी लेते वक्त उसे अंधेर में रखा गया, वो कुछ नहीं कर सकती थी। एक दिन डॉक्टरों ने कहा कि उसे एक नियत राशि जमा करनी होगी तभी आगे उसकी मां का इलाज हो सकता है अन्यथा वो अस्पताल खाली करे। सरिता डॉक्टरों के आगे गिड़गिड़ाई, रोई, लेकिन डॉक्टर ने एक नहीं सुनी, आखिर उन्होंने खैरातखाना तो खोल नहीं रखा था। एक दिन अनिता की मां को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया, अनिता इसके बात जी.बी पंत नामक सरकारी अस्पताल में गई। ये वो अस्पताल है, जिन्हे ऐसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ही जाना जाता है, और यह अस्पताल आम जनता के लिए ही बनाए गए हैं,। मगर अफसोस हमारे देश में आम नागरिक आमतौर पर मरने के लिए बना है, जीना तो उसके अधिकार में है ही नही। जिन अस्पतालों के विषय में कहा जाता है कि यहां गरीबों का इलाज किया जाता है, यह खैराती अस्पताल है वहां भी खैरात सिर्फ दंबगदारों के नसीब में ही है। आपके पास कितनी लंबी पहुंच है कितना जेब में माल है, यह बात निर्धारित करती है कि आप जीने के हकदार है कि नहीं । अनिता की मां इस बात को साबित करने में नाकामयाब रही और उसे किसी सरकारी अस्पताल में दाखिला नहीं मिला। अनिता ने लाख सिर पटके, कार्यालय दर कार्यालय, यहां तक कि मुख्यमंत्री के पास भी पहुंची, लेकिन आम जनता की आवाज़ में वो बुलंदी नहीं होती की वो किसी खास के कान में जूं को रेंगा सके, धीरे-धीरे अनिता की मां मरती गई, यह सब हमारी आंखो के सामने घटा। अनिता रोज़ अपनी मां को तड़पता देखती और बिलखते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती कि है ईश्वर मेरी मां को उठा ले, उसे मुक्ति दे दे, उसे जीने का कोई हक नहीं है क्योंकि वो एक आम इंसान है। एक दिन ईश्वर ने अनिता की सुन ली औऱ उसकी मां ने इलाज के अभाव में अंतिम हिचकी ली। यह बात सुन कर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला शायद किसी की आत्मा भी ना कचोटे, क्योंकि हमने अपनी संवेदनाओं, इंसानियत, मानवता को सरे बाज़ार नीलाम कर दिया है। फिर ऐसे आदमी के मरने पर क्या अफसोस करना जो कीड़ों मकोड़ों की तरह जी रहा है, भारत का हर आम नागरिक एक कीड़ा है, जो ना जीने का हक़दार है औऱ ना ही जिसे मौत भी मयस्सर है, उसे सिर्फ तड़प मिल सकती है, यह आम आदमी, उस चूसने वाले आम की तरह होता है जिसका रस का आनंद उठाया जाता है, और फिर उसे कूड़ा समझ कर फेंक दिया जाता है। अनिता की मां महज एक उदाहरण है जो हमारी दिन प्रति दिन खत्म होती संवेदना को बताती है, क्योंकि सरकार चाहे लाख वादे कर ले प्रशासन चाहे लाख दुरुस्त हो जाए लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इसे चलाने वाले हैं तो आखिर इंसान, जिनकी आंखे भौतिकता की चकाचौंध का कारण तड़पती मानवता को नहीं देख पा रही है। अगर देश के एक बड़े तबके को यूंही मरना है तो फिर उन्हें सीधे सीधे मरने देना चाहिए, यह अस्पतालों का झूठा दिखावा क्यों ? जो एक इंसान की जान भी लेता है औऱ दूसरे की हिम्मत को तोड़ भी देता है। क्या हमारे देश के नेता जिस जनता के सामने झोली फैलाए गद्दी की भीख मांगते रहते हैं, बाद में उसका जीवन उनके सामने बोझ बन जाता है ? हर साल स्वास्थ्य विभाग के लिए करोड़ो का बज़ट पास होता लेकिन आम जनता ऐसे ही इलाज के अभाव में मरती रहती है, तो आखिर यह पैसा जाता कहां है ? यह खैराती अस्पताल आखिर किसको खैरात बांट रहे हैं ? यह ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब कोई भी नहीं देना चाहता है।

4 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

अच्छी लगी आपकी अभिव्यक्ति !

Anonymous said...

it reality

good one....................

Unknown said...

aapka comment bahut aacha laga.bt haqeeqat hote hue bhi iski sunwai kahin nahi hai. aur uska karan hai bahre aur goonge wo log jo hamare sir per chadkar baithe hain.

Unknown said...

Bhut khub