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Tuesday, February 19, 2008

करो या मरो



जिस विषय पर मैं बात करने जा रहा हूं, यह विषय उतना ही गंभीर है जितना भारत-पाक के रिश्तों को लेकर हमारे नेता, कश्मीर मामले पर भारत-पाक राजनीति, विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए पाक-अमेरिका, और शादी को लेकर सैफ-करीना। जो विषय इतना गंभीर हो उसको मैं तो हल्के मे नहीं ले पाया, आप भी उसके बारे में गंभीर रूप से विचार कीजीयेगा। वैसे भी भारत का नागरिक विचार को अचार की तरह इस्तेमाल करता है, बनाता देर तक है, खाता कम-कम है।
विषय को जानने के लिए हमे आज़ादी की लड़ाई के दौर में जाना पड़ेगा, साहब हालत बहुत खराब थी, अंग्रेज मान ही नही रहे थे, हम कहे जा रहे थे चले जाओ, वो थे की अड़ियल मेहमान बने जा रहे थे। वो क्या कहते हैं- वो हमारे घर में कुछ इस तरह आए, जैसे किरायेदार मकानमालिक हो जाए। गांधी जी ने खूब समझाया, जब वो लोग नही माने तो गांधी जी ने गुस्से मे आकर कहा कि अब तो - करो या मरो की स्थिति है। तो साहब गांधी जी ने यह नारा दिया, लोगो ने इस पर अमल किया और लो भारत को आज़ादी भी मिल गई। लेकिन भाईसाब कई बार समय के साथ ऐसी बाते नुकसानदायक हो जाती है।
अब हमारे क्रिकेटर हैं उनके लिए आए दिन हर नई सीरिज़ में करो या मरो की स्थिति बनी रहती है। अच्छा वो लोग भी क्या करे, गांधी जी ने इतना अच्छा नारा दिया है वो बेचारा बने ये सही नही लगता, तो वो हमेशा करो या मरो की स्थिति बना देते हैं। इसे कहते हैं सच्चे गांधी भक्त।
अब हमारे देश के नेता है, इनकी अब इतनी औकात तो रही नही कि यह जीत सके, तो यह क्या करते हैं, यह भारत का पुराना फार्मूला यानि जुगाड़ तकनीकी के तहत भानुमति का कुनबा बना लेता है। लेकिन साहब परेशानी यहां पर भी वही है, आखिर कुछ तो बात हो जिसे लेकर हम कह सकें कि, हां भईया हम गांधी जी की नीतियों का अनुसरण कर रहे हैं। तो क्या होता है पार्टी के अंदर का एक नेता विदेश से कोई डील करता है, तो जूगाड़स्वरूप आई दूसरी पार्टी कहती है - हमारी नहीं सुन रहे हो तो मरो। तो एक पार्टी इस प्रकार संयुक्त रूप से गांधी के वाक्यों को दोहराती है (डील) करो या (नहीं मान रहे) मरो।
आप लोग यह बात तो जानते ही हैं कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, इस सदी की सबसे खास बात यह है कि इस सदी में कानून कोई नहीं तोड़ता (क्योंकि टूटे -फूटे को क्या तोड़ा जाए)। इस सदी में अपराध, भ्रष्टाचार और जो इस प्रकार के तमाम बाते गुजरे ज़माने में गलत मानी जाती थी, आज कल कानूनन कर दी गई हैं तो इससे क्या होता है गलत बातों में कमी आई है। अच्छा एक बात और इक्कीसवीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते हमने भले ही कितनी भी तरक्की कर ली हो, लेकिन मजाल है कि कोई गांधी जी की कही हूई बातों को भूल जाए, सवाल ही पैदा नहीं होता, आज भी अगर कोई ईमानदारी या सच्चाई जैसी फालतू की बातों का अनुसरण करता है, तो तुरंत यानि तत्काल प्रभाव से उसके सामने दोहराया जाता है- करो या मरो।यह करो या मरो आज के परिप्रेक्ष्य में उस कब्ज़ के मरीज के समान है जिसकी यही स्थिति है कि भैया- करो या मरो।आप लोग क्या सोच रहे हैं, सोचने में समय व्यतीत मत कीजीए- जल्दी से देश के लिए कुछ करिए, अन्यथा.........

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