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Saturday, March 15, 2008

ऐसे तो उच्च शिक्षा में मिल चुकी मंजिल

राजकेश्वर सिंह

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम आने वाले वर्षो में उच्च शिक्षा की तस्वीर बदल देने के जो भी सब्जबाग दिखा रहे हों, लेकिन जमीनी तौर पर चीजें उतनी ठोस दिखती नहीं हैं। दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले हमारे पास तो पीएचडीधारकों तक की बहुत बड़ी कमी है। वैज्ञानिक शोध के मामले में हम कहीं ठहरते ही नहीं। बावजूद इसके शोध की जरूरत के हिसाब से सरकार धन नहीं दे पा रही। संसद की एक समिति भी हैरान है कि आखिर सुधारों पर अमल होगा तो कैसे?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबंधित मानव संसाधन विकास मंत्रालय की प्राक्कलन समिति की बीते दिनों संसद में पेश रिपोर्ट काबिलेगौर है। जान सकते हैं कि आजादी के 60 साल बाद भी सालभर में हमारे यहां सिर्फ पांच हजार लोग पीएचडी करके तैयार होते हैं। जबकि भारत से बाद में आजाद हुए पड़ोसी देश चीन में सालाना 35 हजार और अमेरिका में हर साल 25 हजार लोग पीएचडी करते हैं। इसी तरह 2005 में भारत के पास कुल 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452, अमेरिका के पास 45,111 और जापान के पास 25,145 पेटेंट थे।

बात इतनी ही नहीं है। अकेले अमेरिका पूरे विश्व के 32 प्रतिशत शोधपत्र प्रकाशित करता है। इस मामले में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.5 प्रतिशत है। शोध को बढ़ावा देने के उपाय सुझाने के लिए सरकार की ओर से गठित प्रो. एमएम शर्मा समिति ने चालू वित्तीय वर्ष में 600 करोड़ रुपये के प्रावधान की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने दिए हैं सिर्फ 205 करोड़। यह स्थिति तब है, जब यूजीसी ने प्रो. शर्मा की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वह यह समझ पाने में नाकाम है कि बुनियादी ढांचे और मानव संसाधनों के अभाव में यूजीसी वैज्ञानिक अनुसंधानों में कैसे सुधार ला पाएगा? समिति ने यूजीसी से वित्तपोषित विश्वविद्यालयों में शोध की बहुत कम संख्या और उसकी गुणवत्ता को लेकर भी गहरा दुख जताया है।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही समिति ने वैज्ञानिक अनुसंधानों में सुधार के लिए सरकार से अगले वित्तीय वर्ष में हर स्थिति में 600 करोड़ रुपये का प्रावधान करने की ठोस सिफारिश की है। यह भी कहा है कि जरूरी हो तो लागत वृद्धि के मद्देनजर आवंटन को और भी बढ़ाया जाए।

यूजीसी बोर्ड में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के अलावा दस सदस्य होते हैं। इनमें सचिव (शिक्षा) व सचिव (व्यय) भी शामिल हैं। समिति तब दंग रह गई, जब उसे पता चला कि सचिव (व्यय) ने 2005 से 2007 के बीच आयोग की एक भी बैठक में शिरकत ही नहीं की।

(साभार याहू)

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

मुझे लगता है कि उच्च शिक्षा का कल्याण केवल बजट से नहीं होगा। मेरे कुछ सुझाव हैं:

१) उच्च शिक्षा न बहुत मंहगी हो न बहुत सस्ती ।

२) पाठ्यक्रम में समय के अनुसार नवीनता लायी जाय। सब जगह ड्राइं कम्प्यूतर पर साफ़्टवेयर (जैसे आटोकैड) के सहारे बनायी जा रही है। किन्तु इंजीनीयरिंग के छात्रों को अब भी पतरी, परकार, टी-सेट और मिनिड्राफ्टर आदि से ही ड्राइन सिखायी जा रही है।

३) प्रयोग (प्रैक्टिकल) के नाम पर खानापूर्ति हो रही है। पचासों वर्षों से छात्र पुरानी पुस्तिकाओं की आँख मूंदकर नकल मारते आ रहे हैं।

४) छात्रों को घिसे पिटे प्रोजेक्ट थमा दिये जाते हैं। सामान्य जीवन की किसी समस्या से या किसी उद्योग की किसी तकनीकी समस्या से इन प्रोजेक्टों का कोई लेना-देना नहीं होता।

५) अच्छे अध्यापकों की जबरजस्त कमी है। जिसे कहीं दूसरे जगह काम नहीं मिलता वह कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-कूचे पर खुल गये इंजीनीयरिंग कालेजों में अध्यापक (लेक्चरर, रीडर, प्रोफ़ेसर) हैं।

६) पी एच डी आदि भी अधिकांशत: खानापूर्ति का ही दूसरा नाम बनकर रह गया है। कोई भी शोधकर्ता या शोधअध्येता कोई चुनौतीपूर्ण विषय को हाथ में लेकर उसका समाधान प्रस्तुत करने का कष्ट उठाना या उसके लिये आवश्यक आत्मविश्वास जुटाना नहीं चाहता।

७) परीक्षाएं रट्टामारों के लिये पहले भी बनी थीं और आज भी रट्टामार ही परीक्षाओं का सबसे ज्यादा आनन्द उठा पाते हैं। ज्यादा सोचने-विचारने और तर्क-वितरक करने वाला औसत अंक ही जुटा पाता है।