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Monday, April 7, 2008

हमउ भी कोई कम नीच नाही

पंकज रामेन्दू

मध्यप्रदेश के एक कवि हैं, माणिक वर्मा, उनकी कविता पढ़ने का अंदाज़ एकदम जुदा है। जब वो कविता पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि किसी को गाली बक रहे हैं, गाली भी ऐसी की आपने आज तक नही सुनी होगी, एकदम अनूठा प्रयोग करते हैं। उनकी एक कविता की एक पंक्ति है- उच्च कोिट के नीच लोगों।

आप यह सोच रहे होंगे कि मैं माणिक वर्मा का ज़िक्र क्यों कर रहा हूं, दरअसल रविवार के जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर दो लेख एक दूसरे के बगल में बाते करते हुए नज़र आए। एकतरफ भारत भारद्वाज जी गुड़िया भीतर गुड़िया हेडिंग के साथ यह कह रहे थे कि मैत्रयी पुष्पा ने जो अपनी आत्मकथा लिखी है वो एकदम सतही है, उन्होंने यह तक लिखा है कि आजकल जिन्हें लिखना नहीं आता है वो आत्मकथा लिखने लगे हैं। रसेल, गांधी से लेकर तसलीमा तक उन्होंने सभी आत्मकथाओं का ज़िक्र भी छेड़ दिया था। यह सब बताने के साथ वो राजकिशोर जी की छीछालेदर भी करने पर तुले थे, वो यह कहना चाह रहे थे कि राजकिशोर जी ने पैसे लेकर इस आत्मकथा की शान में कसीदे पढ़े हैं।
दूसरी तरफ - मो सम कौन कुटिल खल कामी के साथ राजकिशोर जी यह कहते नज़र आये कि उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा से उनकी किताब की आलोचना लिखने के लिए दस हज़ार रु मांगे थे, वो उन्हे आज तक नहीं मिले, ऐसी ही कई प्रकार की व्यंग्योक्तियों के साथ राजकिशोर जी की किलपन नज़र आई।
इस बात की शुरूआत १६ मार्च के जनसत्ता में छपी मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़ियी भीतर गुड़िया की आलोचना से हुई, जिसमें राजकिशोर जी ने इस पुस्तक की काफी तारीफ की हुई है।
भारत भारद्वाज जी इसे सतही बता रहे हैं और वो यह भी कह रहे हैं कि राजकिशोर जी इसकी मार्केटिंग कर रहे हैं।
अब यहां से समस्या खड़ी होती है। जब आपके सामने दो वरिष्ठ एवं गरिष्ठ साहित्यकारों की विपरीत प्रतिक्रिया किसी समान विषय पर मिलती है तो वो अकस्मात ही आप में एक जिज्ञासा पैदा कर देती है। आप सोचने लगते हैं कि चलो पढ़ कर देखा तो जाए आखिर है क्या मामला ।
तो इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ऐसा भी हो सकता है कि मैत्रयी पुष्पा से जो पैसे प्राप्त हुए वो आपस में बांट लिए गए हों। भई हंगामा खड़ा करना भी तो एक मकसद हो सकता है। अब मेरे जैसे लोग जिनमें साहित्य पढ़ने की खुजली है और जो यह विश्वास करके बैठा है कि यह वरिष्ठ साहित्यकार थोड़े ईमानदार टाइप के भी हैं मुझमें और खुजाल पैदा कर देगा और नतीजा में वो किताब खरीद डालूंगा। मेरे जैसे कई ग़रीब लेखक है (वैसे हिंदी के लेखक का ग़रीब होना ही इस बात का सूचक है कि वो लेखक है या यूं कह लो की ग़रीब ही लेखक है)वो इस किताब को खरीद डालेंगे। अब हम सब एक दूसरे से मिलते तो हैं नहीं तो किताब के अच्छे या बुरे होने की बात भी नहीं बता सकेंगे। नतीजा, उद्देश्य की पूर्ति ।
अगर दोनों वरिष्ठ मतैक्य नहीं भी हैं तो भी मैत्रयी पुष्पा के लिए तो यह फायदे का सौदा रहा। वो कुछ कहा जाता है ना कि दो .. कि लड़ाई में .. तीसरे का फायदा। वैसे एक बात काबिल-ए-तारीफ है, इनका इस तरह से लड़ना इस बात की पुष्टि कर देता है कि हिंदी साहित्य में जो केकड़ा प्रथा का बार बार ज़िक्र आता है वो कितना सही है। तो इस बात की पुष्टि कराने के लिए मैं इन दोनों का धन्यवाद भी देता हूं। यह बात हमें बताती है कई कीचड़ ऐसी हैं जिनमें कमल खिलते नहीं है, हां अगर खिले हुए कमलों को उनमें डाल दो तो वे मुरझा ज़रूर जाएंगे।

1 comment:

note pad said...

हें हें हें हमने पढा है जी ! अभी इसकी अच्छी रपट लेते है हम चोखेर बाली में ।
sujata
sandoftheeye.blogspot.com